बिहार के चुनाव पर नेपाली निगाहें
सात सीमावर्ती ज़िले बिहार के हैं, जिनके मुख्यालय की राजनीतिक गतिविधियों में नेपाल के लोगों की दिलचस्पी बनी रहती है। चुनावी सभा चाहे दरभंगा में हो, या कि मोतिहारी में, राहुल-मोदी अथवा अमित शाह को देखने नेपाल के लोग पहुंच ही जाते हैं। बिहार में इस तरह के 60 से 65 ज़िले हैं, जिनके भावी विधायकों, मंत्रियों, सांसदों के ‘गुड बुक’ में बने रहने की कवायद नेपाल में चलती रहती है।
नेपाल के मेट्रो शहर वीरगंज में प्रोफेसर भाग्यनाथ प्रसाद गुप्ता मधेस राजनीति की सुपरिचित शख्सियत में से हैं। फोन पर पूछा, कि आम नेपाली किस नुक्ते-नज़र से बिहार चुनाव को देखता है? जवाब, एक नेपाली कहावत के रूप में पेश था- ‘अन्धो गाई र लंगडो गोरु’ अर्थात, 'अंधी गाय और लंगड़ा बैल'। ऐसी कहावत का उपयोग तब किया जाता है, जब दो असमर्थ लोग मिलकर एक दूसरे की मदद करते हैं। इस कहावत के बहुआयामी निहितार्थ हैं। संसाधनों के मामलों में नेपाल सम्पूर्ण नहीं है। जहां उसे बिहार से मदद चाहिये, मिलती है। और जब सीमा पार बिहार में मुश्किलें होती हैं, नेपाल की जनता और व्यापारी, सेवाभाव से प्रस्तुत होते हैं।
1751 किलोमीटर लंबी भारतीय सीमा नेपाल से लगती है। इनमें भारत के पांच राज्यों की सीमाएं : बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और सिक्किम बाड़बंदी के बग़ैर हैं। सबसे लंबी सीमा बिहार की 756 किलोमीटर, और सबसे छोटी सीमा सिक्किम की मात्र 99 किलोमीटर है। बिहार के सात सीमावर्ती ज़िले- पश्चिम चंपारण, पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, मधुबनी, सुपौल, अररिया, किशनगंज हैं। नेपाल के हवाले से बहुत पुरानी कहावत इस्तेमाल होती रही, ‘बेटी-रोटी का सम्बन्ध।’ लेकिन, अब उसकी व्याख्या व्यापक है। बेटी-रोटी का सम्बन्ध केवल वोट बैंक तक महदूद नहीं है, विभिन्न दलों के जो प्रत्याशी खड़े होते हैं, उनके चुनावी खर्च का एक बड़ा हिस्सा नेपाल के उद्योग-व्यापार वाले वहन करते हैं।
वैसे 21 विधानसभा क्षेत्र हैं, जो बिलकुल बॉर्डर लाइन पर हैं। दरअसल, बेटी-रोटी का कॉन्सेप्ट इन्हीं वजहों से शुरू होता है। लगभग हर तीसरे-चौथे परिवार की रिश्तेदारी नेपाल में दिखाई देती है। चुनांचे, जब नेपाल में चुनाव होता है, भारत वाले दोस्त, रिश्तेदार एक्टिव हो जाते हैं, उसी तरह जब भारत के इन पांच राज्यों में चुनाव होता है, नेपाल का सरोकार सामने आ जाता है।
लेकिन, चुनावी दायरा 21 विधानसभा क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। ऐसे सात सीमावर्ती ज़िले बिहार के हैं, जिनके मुख्यालय की राजनीतिक गतिविधियों में नेपाल के लोगों की दिलचस्पी बनी रहती है। चुनावी सभा चाहे दरभंगा में हो, या कि मोतिहारी में, राहुल-मोदी अथवा अमित शाह को देखने नेपाल के लोग पहुंच ही जाते हैं। बिहार में इस तरह के 60 से 65 ज़िले हैं, जिनके भावी विधायकों, मंत्रियों, सांसदों के ‘गुड बुक’ में बने रहने की कवायद नेपाल में चलती रहती है।
दूसरा, मुस्लिम फैक्टर भी है, लगभग 80 फ़ीसद मुस्लिम आबादी तराई क्षेत्र में है, शेष 20 प्रतिशत मुसलमान मुख्यतः काठमांडू, गोरखा और पश्चिम नेपाल की पहाड़ियों तक सीमित हैं। लेकिन, जो बॉर्डर लाइन के नेपाली मुसलमान हैं, बताना अब ज़रूरी नहीं रह गया, कि बिहार में होने वाले चुनाव में वो किसकी जीत के ख्वाहिशमंद हैं। आप देख सकते हैं, चम्पारण के ढाका तथा सीमांचल के चार ज़िले पूर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज वाले अल्पसंख्यकों का राब्ता, नेपाल में एक्टिव मुसलमानों से रहता है।
बिहार-नेपाल व्यापार के लिए बारा, पर्सा, महोत्तरी, मोरंग, धनुषा, सर्लाही, रौतहट, सुनसरी और झापा ज़िलों से जुड़े 10 ट्रांज़िट पॉइंट शामिल हैं। मुख्य व्यापार में कृषि उत्पाद, दूध प्रसंस्करण, नॉन-वोवन बैग निर्माण, पशुधन के लिए खनिज और विटामिन मिश्रण वाला उत्पादन, औषधि, पेट्रोलियम, लिथियम आयन सौर बैटरी, कॉस्मेटिक्स से लेकर कपड़े और इलेक्ट्रॉनिक सामान तक शामिल हैं। लेकिन अब इसमें नया तड़का लगा है, शराब और शबाब का, जिसने एक नई क़िस्म की कनेक्टिविटी दोनों देशों में पैदा की है।
वर्ष 2016 में बिहार में शराबबंदी होने के बाद से, नेपाल के सीमावर्ती शहरों में अल्कोहल इंडस्ट्री और उसका खुदरा कारोबार ज़बरदस्त रूप से रफ़्तार पकड़ने लगा है। नेपाल के सीमावर्ती इलाकों में होटल और रेस्टोरेंट भारतीय विज़िटर्स की वजह से गुलजार हैं। बॉर्डर पार करके शराब पीने का शगल कुछ नया नहीं था। लेकिन इन दिनों आप बीरगंज से लेकर बिराटनगर, इटहरी और राजबिराज जैसे शहरों को जाकर देख आइये, चुनाव के समय शराब की मांग डबल हो गई है।
नौ वर्षों में नेपाल, बिहार वालों के लिए ‘लीकर डेस्टिनेशन’ बन चुका है। अब चूंकि, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, उनके समर्थकों को ‘अतिरिक्त ऊर्जा’ चाहिए, तो नेपाली शहरों में शराब का धंधा और तेज़ हुआ है, विदेशों से शराब का आयात 12 फीसद बढ़ गया। नेपाल की शराब लॉबी चाहती है, कि बिहार में वैसी सरकार रहे, जो मद्यनिषेध जारी रखना चाहती हो। शराबबंदी से पहले बिहार में 3,142 करोड़ की सालाना आमदनी केवल शराब के ठेकों से सरकार को होती थी। अब आप मानकर चलें, विगत नौ वर्षों में लगभग 30 हज़ार करोड़ का राजस्व नेपाल सरक गया, मगर बिहार में शराबबंदी कामयाब नहीं हुई।
बिराटनगर के व्यापारी बताते हैं, ‘बिहार सरकार द्वारा शराब पर बैन लगाने के बाद शराब की खपत बढ़ गई है। पहले हर दिन करीब सौ-डेढ़ सौ भारतीय शराब पीने के लिए हमारे इलाके में आते थे, अब यह संख्या अचानक से डबल हो गई। रेस्टोरेंट के अलावा, होटलों को भी फायदा हुआ है, क्योंकि कुछ भारतीय रात भर रुकते हैं। वे शराब पीकर बॉर्डर पार बिहार नहीं जा सकते।’
एक स्थानीय बिजनेसमैन बताते हैं, ‘अमीर भारतीय महंगे होटलों में रुकते हैं, जबकि कम आय वाले लोग सस्ते होटलों में जाते हैं।’ कोसी बैराज, कुनौली बाज़ार और सखाड़ा जैसे इलाकों में शराब ढूंढ रहे भारतीयों की भारी भीड़ देखी जा सकती है। वहीं दूसरी ओर, पटना, दरभंगा, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर जैसे बिहार के बड़े शहरों से भी लोग राजबिराज, बीरगंज और नेपाल के दूसरे सीमावर्ती शहरों में आते हैं। चुनाव के समय पेटी भर-भर के बिहार में शराब की होम डिलीवरी हो रही है।
‘पीपुल टू पीपुल कनेक्टिविटी’ का दूसरा उदाहरण बिहार में कुकुरमुत्ते की तरह उग आई ऑर्केस्ट्रा पार्टी है। उनमें ठुमके लगाने वाली अधिकांश बालाएं नेपाल से मंगाई जाती हैं। सामाजिक-धार्मिक उत्सव हो, अथवा चुनाव, नेपाल से आई ‘भोजपुरी डांस कलाकार’ नेताओं के प्रचार और मनोरंजन के काम आ रही हैं। नेपाली डांसर बताती हैं, ‘हमें राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मनोरंजन के लिए जाना पड़ता है।’ बिहार की राजनीति में रौनक लाने के वास्ते अश्विनी शाही, बन्दना नेपाल जैसी भोजपुरी डांसरों की मांग बढ़ गई है। मीडिया वाले भोजपुरी गानों और डांस में अश्लीलता पर सवाल पूछते हैं, नेता मुंह घुमा लेते हैं, अथवा सवाल इग्नोर कर देते हैं। किसी भी पार्टी के एजेंडे में अश्लीलता पर रोक का प्रण नहीं पाइयेगा। बिहार में यदि सचमुच ग़रीबी और बेरोज़गारी है, तो ये सब धंधा चल कैसे रहा है?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
 
 
             
            