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माया मिली न राम, गिरे तीस मारखां धड़ाम

तिरछी नज़र

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शमीम शर्मा

एक बार की बात है कि हरियाणवी बटेऊ बिना कोई फल-फरूट लिये सुसराल पहोंच गया जबकि उसकी सालियां इंतजार कर रही थी कि जीजा लड्डू लेकर आयेगा। उसके पहुंचते ही चारों सालियां एक सुर में बोली- जीजा लड्ड ल्याया? बटेऊ भूंडा सा मुंह बनाकर बोला- लाड्डू तो कोनीं ल्याया। शाम को चारों सालियों ने सोच्ची कि इससे लड्डू तो जरूर लेने हैं। उन्होंने मिलकर एक तरकीब बनाई कि जब जीजा सो जायेगा तो हम सब मिलकर इसकी कोरड़ों से अच्छी धुनाई कर देंगे और कल की तारीख में लड्डू खिलाने की हां भरवा कर ही दम लेंगी। यह बात किवाड़ की ओट में से जीजे ने भी सुन ली। रात को सोने से पहले वो अपने ससुर जी से बोला- पिता जी, थम इस खाट पै आ जाओ, या खाट मेरै छोटी पड़ै है। इस तरह जीजे की खाट पर ससुर जी और ससुर जी की खाट पर जीजा सो गया। आधी-सी रात को सालियों ने इकट्ठे होकर अपना ही बाब्बू कोरड़ों से धमाधम कूट दिया। जब ससुर जी की बहुत अधिक पिटाई होने का अहसास जीजे को हुआ तो वो अपना खेस उघाड़ते हुये बोला- सालियो! थम नैं लाड्डू तो मिलैंगे पर मिलैंगे बारहां दिन बाद।

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इस बार चुनावों में यही हुआ। कइयों ने उलटफेर कर दी। जिनको भरोसा था कि अब की बार वोटरों को पक्के लड्डू खिलायेगा वो तो बेचारा बासी ककड़ी की तरह मुंह लटका कर बैठा है और जिन्हें कल्पना भी नहीं थी लड्डू खिलाने या खाने पड़ेंगे, वे लड्डुओं की बौछार कर रहे हैं। हार के मारों को बूंदी भी नसीब नहीं हो रही। बड़ेे-बड़े तीस मारखां कभी टिकट न मिलने पर सुबके तो कभी अपनी या अपनों की हार पर बिलखते नजर आये। कइयों ने अपनी बहादुरी के फैसलों से अपनी टिकट खुद ही गढ़ ली और जीत को मुट्ठी में कर लिया।

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एक बर की बात है अक नत्थू नैं अपणी सुसराल जाणा पड़ ग्या। उस बिचारे नैं गाम-गोत का किमें बेरा ना था। ना उसनैं दुनियादारी का बेरा था। घर तैं सीधा खेत अर खेत तैं सीधा घर। उसकी मां नैं समझाया अक कोय बड़ा-बूढ्ढा मिल ज्यै तो राम-राम कर दिये अर कोय छोटा मिलै तो सिर पुचकार दिये अर कोय हाथ मिलावै तो हाथ मिला लिये। सुसराल पहोंचते ही उसनैं एक मोड्डा मिल ग्या। उसकी ओड् बड्डी दाढ़ी अर कसूती लाम्बी मूंछ। नत्थू कई देर ताहिं उसतै देखता रह्या अर सोच्चण लाग्या अक ईसां खात्तर तो मां नैं किमें नहीं कही। फेर दुखी सा होकै बोल्या- फूफ्फा! तू ही बता दे तन्नैं क्यूंकर भुगताऊं?

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