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आरटीआई कानून को प्रभावकारी बनाने की जरूरत

आरटीआई कानून शासन-प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए है जो लोकतंत्र की जरूरत भी है। आवेदन करने में बाधाओं के बावजूद अब वेबसाइट लिंक मुहैया होना सकारात्मक पहलू है। बेशक कुछ संशोधनों से सूचना आयोगों पर असर पड़ा है।...

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आरटीआई कानून शासन-प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए है जो लोकतंत्र की जरूरत भी है। आवेदन करने में बाधाओं के बावजूद अब वेबसाइट लिंक मुहैया होना सकारात्मक पहलू है। बेशक कुछ संशोधनों से सूचना आयोगों पर असर पड़ा है। पूरे 20 साल पुराने इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए लोगों को आगे आना होगा।

भारत का प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त होने के नाते मुझे राजस्थान स्थित ब्यावर में आयोजित सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के 20 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में हुए समारोह में आमंत्रित किया गया, वह शहर जहां 1996 में इस प्रकार का कानून बनाए जाने के समर्थन में पहला सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ था। अपने संबोधन की शुरुआत मैंने गुरुदत्त की क्लासिक फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ के गीत की पंक्तियों से की—‘वक़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न तुम हम रहे न हम...।’

अब जबकि 2005 में आए इस अधिनियम की सालगिरह मनाई जा रही है, इसको लेकर गर्मागर्म बहसें भी चली हुई हैं, अक्सर भावनात्मक, यह क्या फायदे लेकर आया और क्या चुनौतियां भी। कहा जा सकता है कि 2014 के राष्ट्रीय चुनावों में यह उसी सरकार को मुश्किल में डालने के कारणों में से एक रहा, जिसने इस अधिनियम को लागू किया था। अगली सरकार ने घोषित तौर पर पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांत को बरकरार रखने की बात कही और प्रशासन एवं सरकार की पहचान अलग रखने का प्रयास किया। पीएम नरेंद्र मोदी ने 2014 के अपने चुनाव अभियान में ‘पारदर्शिता अधिकतम और प्रशासनिक अड़ंगे न्यूनतम’ रखने का वादा किया था–‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देकर प्रशासन में जन भागीदारी बढ़ाने का वादा।

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फिर भी, जैसा कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने हाल ही में ब्यावर में आयोजित एक आरटीआई मेले में अपने संबोधन में उल्लेख किया है, कानून में संशोधन और गोपनीयता की सुरक्षा के लिए बनाए गए नए कानून के पारित होने के कारण सूचना आयुक्तों का अधिकार क्षेत्र घटा है और यह सूचना आयोगों की स्वतंत्रता में भी ह्रास करने वाला है। आगे, आरटीआई अधिनियम की धारा 8 में भी एक संशोधन किया गया है, जिसमें सार्वजनिक हित स्थापित होने पर निजी मानी जाने वाली जानकारी के प्रकटीकरण की अनुमति थी। इसलिए, यह अधिनियम शासन की प्रकृति के संदर्भ में परिवर्तनकारी रहा।

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यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि लोकतंत्र में सरकार का सार तत्व पारदर्शिता है, ताकि प्रत्येक अंग - कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका- नागरिक के प्रति जवाबदेह हो। लेकिन जहां तक भारत में नौकरशाही की मानसिकता का प्रश्न है, ‘माई-बाप’ वाली सामंती सोच गणतंत्र के जन्म के बाद भी लंबे समय तक कायम है।

सूचना का अधिकार अधिनियम घोषित करता है कि लोकतंत्र के लिए एक जागरूक नागरिक वर्ग और सूचना की पारदर्शिता होना आवश्यक है, जो इसके संचालन के लिए तो अत्यंत आवश्यक है ही, साथ ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने, सरकारों एवं उनके तंत्रों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए भी जरूरी है। इस प्रकार, यह अधिनियम लोकतंत्र में नागरिकों को शासन में प्रमुख भागीदार बनाने का प्रयास करता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह कानून शासन को अत्यधिक सुदृढ़ बनाने में एक माध्यम है। दो प्रतिष्ठित गैर-सरकारी संगठनों - सूचना का अधिकार आकलन एवं विश्लेषण समूह (आरएएजी) और जन सूचना के अधिकार के लिए राष्ट्रीय अभियान - ने अपनी जन आकलन रिपोर्ट (2008) में 11 राज्यों से प्राप्त फीडबैक के विस्तृत विश्लेषण के आधार पर पाया कि आरटीआई अधिनियम को लेकर जागरूकता स्तर, अपने प्रारंभिक चरण में किसी भी अन्य कानून के बारे में जागरूकता की तुलना में काफी ऊपर था। सर्वे में भाग लेने वाले 40 प्रतिशत से अधिक शहरी उत्तरदाताओं को इस अधिनियम के बारे में जानकारी थी, हालांकि ग्रामीण उत्तरदाताओं में यह आंकड़ा 20 फीसदी से भी कम था। ग्रामीण भारत में जागरूकता के स्रोत में : समाचार पत्र (35 प्रतिशत), टेलीविजन एवं रेडियो, दोस्त-रिश्तेदार (प्रत्येक 10 प्रतिशत), और एनजीओ (5 प्रतिशत) थे। शहरी क्षेत्र के लोगों में सजगता का मुख्य स्रोत समाचार पत्र (30 प्रतिशत), एनजीओ (20 प्रतिशत), टीवी (20 प्रतिशत) दोस्त और रिश्तेदार (10 प्रतिशत) था।

नकारात्मक पहलू यह पाया गया कि प्रशासनिक अड़चनें आवेदन दाखिल करने में अड़ंगा डालती रहीं। यह मुश्किल इस तथ्य से और बढ़ गई कि देश भर में अधिनियम को लागू करने के लिए आरटीआई नियमों के 114 अलग-अलग सेट थे और ऐसी कोई एक जगह नहीं थी जहां वे सभी सुलभ हों। कुछ राज्यों ने तो अधिनियम की धारा 4(4) के बावजूद केवल स्थानीय भाषा में पत्राचार पर जोर दिया, जबकि उक्त धारा कहती हैः आवश्यक है कि सूचना ‘उस क्षेत्र में संचार की सबसे प्रभावशाली विधि’ द्वारा प्रदान की जाए।

ये आरंभिक कठिनाइयां काफी हद तक काबू कर ली गयी हैं और आज हरेक केंद्रीय मंत्रालय और राज्यों के विभाग इस अधिनियम के तहत अपने यहां इसके लिए अनिवार्य वेबसाइट लिंक होने पर गर्व कर सकते हैं। राजस्थान में इसके लिए ‘जन सूचना’ तो कर्नाटक में ‘माहिती कनाजा’ पोर्टल हैं, जो उन सभी सरकारी विभागों तक पहुंच प्रदान करते हैं, जिससे उन सूचनाओं के लिए औपचारिक रूप से आवेदन करने की जरूरत से छुटकारा मिल जाता है, जिन्हें कानून सामान्य मानता है लेकिन औसत उपभोक्ता के लिए रोजमर्रा के काम की हैं।

सार्वजनिक प्राधिकरणों पर आरटीआई अधिनियम के प्रभाव पर निष्कर्षों के आकलन में, 2006 की रिपोर्ट में पाया गया कि 20 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण और 45 प्रतिशत शहरी पीआईओ (लोक सूचना अधिकारी) ने दावा किया कि कानून के कारण उनके कार्यालयों के कामकाज में बदलाव आए हैं। इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक परिवर्तन रिकॉर्ड रखरखाव में सुधार से संबंधित थे, जैसा कि मैंने स्वयं हमारे सबसे कार्यकुशल माने जाने वाले कार्यालयों के नाना विभागों से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए पाया था, जोकि पहले एक घोर उपेक्षित क्षेत्र था।

दिलचस्प यह कि तब तक, ग्रामीण कार्यालयों में से 10 प्रतिशत और शहरी सार्वजनिक प्राधिकरणों में से 25 फीसदी ने कार्यप्रणाली और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में बदलाव अपनाकर, उन्हें आरटीआई के अनुरूप बना लिया था। तब से यह आंकड़ा काफ़ी बढ़ गया होगा। फिर भी, साझा की जाने वाली जानकारी, कम से कम केंद्र सरकार के संदर्भ में, जनता की ज़रूरत की बजाय, सरकारी सफलताओं का दिखावा ज़्यादा लगती है।

सूचना के अधिकार को भारत के लोगों के लिए वास्तविक बनाने में कुछ प्रगति हुई है, लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है। सबसे अहम यह कि इस माध्यम से भारत के नागरिकों को शासन प्रणाली का हिस्सा बनने की ज़रूरत है, जिसकी मात्रा लोकतंत्र या दूसरे शब्दों में, जनता के राज का सबसे अच्छा पैमाना है। हालांकि शासन में पारदर्शिता लागू करके एक शुरुआत की गई है, लेकिन यह शुरुआत भर है। और जवाबदेही बनती तो और भी कम दिखाई दे रही है। तो फिर हमें क्या करने की ज़रूरत है?

स्पष्टतया, सब के लिए प्रथम जरूरत केवल तमाम नागरिकों के बीच अपने अधिकार के बारे में सार्वभौमिक जागरूकता बनना नहीं है। उस कानून का लाभ क्या जिसका इस्तेमाल न किया जाए, और जो लोग इससे अनजान हैं, वे उपयोग करने से रहे।

अब आगे देखने का समय आ गया है। यह अधिनियम शासन व्यवस्था का एक हिस्सा बन गया है। इसे और प्रभावी बनाने के लिए, सरकार के अंग के रूप में जनता को पंचायतों, न्यायपालिका, नौकरशाही के जरिये व उन विधानमंडलों के जरिए, जिनके सदस्य इस अधिनियम के स्वामी हैं, स्वयं आगे आकर नेतृत्व करना होगा।

लेखक भारत के मुख्य सूचना आयुक्त रहे हैं।

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