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सुशासन हेतु नेतृत्व परिवर्तन की दरकार

राजेश रामचंद्रन ‘तुम्हें मंदिर परिसर में टांगेंगे और जला देंगे’! मणिपुर की हिंसा का एक सीधा असर केरल में मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं द्वारा लगाया गया यह नारा है। यह दर्शाता है कि किस कदर केरल ‘सांप्रदायिकता की हांडी’ बन...

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राजेश रामचंद्रन

‘तुम्हें मंदिर परिसर में टांगेंगे और जला देंगे’! मणिपुर की हिंसा का एक सीधा असर केरल में मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं द्वारा लगाया गया यह नारा है। यह दर्शाता है कि किस कदर केरल ‘सांप्रदायिकता की हांडी’ बन चुका है और इसकी अल्पसंख्यक-केंद्रित राजनीति ने क्या राह पकड़वा दी है। लेकिन ज्यादा अहम है मणिपुर की हत्याओं और बलात्कारों से राष्ट्रीय मानस पर पड़ा दीर्घकालीन असर। चंडीगढ़ हो या तिरुवनंतपुरम या समूचा भारत, पादरियों सहित ज्यादातर ईसाई समुदाय मणिपुर हिंसा के खिलाफ जुलूस निकाल रहा है। कुछ मुस्लिम लीग कार्यकर्ता, जिन्हें बाद में पार्टी ने निष्कासित कर दिया और पुलिस ने हिरासत में लिया है, उनके मंसूबे केरल के बेगुनाह हिंदुओं पर बदलाखोर हिंसा करने के थे।

क्या वास्तव में यह सब वही है जो मणिपुर की एन बीरेन सिंह की सरकार करवाना चाहती थी? क्या यह ध्रुवीकरण एक योजना का परिणाम है? या फिर डबल-इंजन सरकार की नाकामी और कुशासन का सीधा सा मामला है? जो भी हो, सत्तासीन पार्टी मणिपुर में सत्ता में बने रहने का हक नैतिक आधार पर पूरी तरह गंवा बैठी है। बीरेन सिंह इस्तीफा दें और उन्हें जल्द से जल्द बदल दिया जाये। केंद्रीय सरकार जितना अधिक बीरेन सिंह के बने रहने को सही ठहराएगी उतना ही बल ध्रुवीकरण किए जाने वाली दलीलों को मिलता जाएगा, खासकर आगामी लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में। पर, दुर्भाग्यवश केंद्र सरकार न केवल मैतई-कुकी रार को वैधता दे रही है बल्कि हिंदू-ईसाई दोफाड़ बनाने के अलावा ईसाई पश्चिमी जगत की आलोचना और उपहास को भी आमंत्रित कर रही है।

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जो कोई देश के उत्तर-पूरबी अंचल की जातीय समीकरण वाली राजनीति की समझ रखता है, वह जानता होगा कि मणिपुर के टकराव जातीय हैं न कि सांप्रदायिक, हालांकि कुकी जाति ईसाई है और अधिकांश मैतई हिंदू हैं। दोनों पक्ष अपनी मूल पहचान– मैतई और कुकी– को लेकर भूमि की खातिर लड़ रहे हैं। कुकी एक अनुसूचित जनजाति है, लिहाजा नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण सहित अनेक फायदे मिलते हैं जो कि मैतई समुदाय को नसीब नहीं हैं, और कुकी लोग पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी मल्कियत वाली विशाल भूमि से मैतियों को दूर रखना चाहते हैं। यह मैतियों के पक्ष में सुनाया गया एक अदालती फैसला है जिसने कुकियों को आंदोलन की राह पकड़वाई जिसकी परिणति राक्षसी हिंसा के रूप में हुई, जिसमें सार्वजनिक यौन उत्पीड़न की वायरल हुई वीडियो भी शामिल है।

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300 शरणार्थी कैम्पों में बेघर हुए लाखों लोग अब रह रहे हैं– अधिकांशतः कुकी, लेकिन मैतई भी हैं। राजनेताओं के लिए बाकी देश में सांप्रदायिकता फैलाने के लिए यह संदर्भ एक आसान औजार बन गया है। दूसरे, पहचान को लेकर बने टकरावों को राजनीतिक सहूलियत के लिए सांप्रदायिक रंगत दे दी गई है। एक बड़े दल के लिए यह अवसर अपने प्रभाव क्षेत्र में या जहां कहीं ‘हिंदू खतरे में है’ वाला नारा काम करता है, राजनीतिक लाभ उठाने का हथियार है। परंतु यह ध्रुवीकरण विपक्ष को ज्यादा माफिक है। जहां कहीं भाजपा ईसाइयों पर डोरे डाल रही थी, उदाहरणार्थ केरल, मणिपुर घटना से वे निर्णायक रूप से भाजपा के विरुद्ध हो जाएंगे।

हालांकि सुदूर केरल में मुस्लिमों को हिंदुओं के खिलाफ करवाना दीर्घकाल में बढ़िया नीति नहीं होगी। वास्तव में, वह सूबा जिसके इतिहास में आजतक कभी भाजपा या फिर संघ परिवार से जुड़ा कोई सांसद चुनकर न आया हो (यहां तक कि केरल विधानसभा में केवल एक भाजपा विधायक है) वहां अगर सांप्रदायिकता है तो यह विपक्षी दलों की मिलीभगत सिद्ध करती है। अतएव, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं के लिए सांप्रदायिक पत्ते खेलने के लिए भाजपा या संघ परिवार के राजनीतिक प्रभाव की उपस्थिति पूर्व-शर्त नहीं है। पहल उन्हीं ने की है और ऐसा करके संघ परिवार द्वारा अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण किए जाने वाले आरोपों को वैधता प्रदान की है।

परंतु, मैतई-कुकी संघर्ष का सांप्रदायीकरण होना निश्चित तौर पर प्रशासनिक असफलता है। समय रहते की गई प्रशासनिक और पुलिस कार्रवाई से टकराव टल सकता था। लेकिन शासन में बैठे लोगों ने लड़ाई से अधिक से अधिक फायदा उठाने का यत्न किया, जिसके परिणाम में खुद पैदा की मौजूदा स्थिति बदतरीन हालात में से एक बन गयी। अब केंद्र सरकार के लिए बदनामी का कारण बनी, खौफनाक अपराध वाली वीडियो क्लिप का प्रसार करने वालों को पकड़ने का प्रयास किया जा रहा है–यानी वीडियो आगे फैलाने के जुर्म की आड़ में मणिपुर की घटना को न्यायोचित राजनीतिक मुद्दा बनाने वाले विपक्ष को निशाना बनाने का एक और मौका। अगर यह सामूहिक बलात्कार एक राजनीतिक मुद्दा नहीं है, तो क्या है?

इस परिप्रेक्ष्य में मणिपुर के पड़ोसी राज्य का एक मामला बताने की जरूरत है, वर्ष 2005 में मेघालय में दो समूह एक-दूसरे का गला काटने को उतारू थे और भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक युवा अधिकारी ने स्थिति सामान्य बनाने के लिए स्वेच्छा से जिला प्रशासन का नेतृत्व करना चुना। ‘भारत के सबसे अधिक अशांत इलाकों में से एक में दीर्घ-कालीन शांति लाना मेरे सेवाकाल की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धियों में एक है। अशांति के केंद्रबिंदु में जिलायुक्त बनने की स्वैच्छिक पेशकश मैंने स्वयं की थी। वह समय था जब मेघालय में नागरिक अंशाति का दौर लंबे वक्त से जारी था और जनजातियों के बीच जातीय हिंसा हो रही थी’। उक्त शब्द अधिकारी ने हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में अपनी स्नातकोत्तर डिग्री के लिए जमा करवाए एक लेख में कहे।

यह अधिकारी शांति इसलिए स्थापित करवा पाया क्योंकि वह एक निष्पक्ष मध्यस्थ बना, जिसका भिड़ रहे पक्षों से कोई नाता नहीं था। यह वही आवश्यक प्रशासनिक औजार है, जिसे हमारे संस्थापक पूर्वजों ने ऐसी स्थितियों के लिए इजाद किया था और जो आज मणिपुर में नदारद है। अखिल भारतीय सेवा अधिकारियों की सेवा का औचित्य पहले अपने काडर में अथवा मूल राज्य के काम आने में है न कि दिल्ली अथवा कहीं और सुरक्षित जगहों पर। ऐसे में जब हालात हाथ से निकलते जा रहे हैं, बड़ी संख्या में मणिपुर काडर के अखिल भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों की वहां अनुपस्थिति खल रही है। संकट का एक बड़ा कारण प्रशासनिक एवं राजनीतिक पक्षपात है। जब किसी समुदाय को यकीन हो जाए कि उन्हें पक्षपाती व्यवस्था से न्याय नहीं मिलने वाला, तो वह हथियार उठाने, लड़ने और मरने से गुरेज नहीं करेगा।

अखिल भारतीय सेवा अधिकारी से उम्मीद की जाती है कि वे शांति और अशांति के वक्त में तटस्थ भूमिका निभाएंगे। यदि कोई बिना भय पुलिस शस्त्रागार लूट ले और लूटे हुए हथियार हिंसा पर उतारू लोग अपने पास रख लें, तो यह सिर्फ स्थानीय पुलिस की मिलीभगत को दर्शाता है। पुनः सवाल उठता है ः मणिपुर काडर के आईपीएस अधिकारी, जिन्हें अनुशासन के इस अभूतपूर्व भंग को रोकना चाहिये था, वे कहां हैं?

वह जो सुशासन का ढोल पीटते हैं उन्हें समझना होगा कि सरकारी मशीनरी के मूल औजार–निष्पक्ष अधिकारी– अब मणिपुर में लुप्तुप्राय हैं। सुशासन बनाने के लिए बीरेन सिंह को हटाया जाना चाहिए।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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