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कृत्रिम मेधा के वैश्विक मानकों की जरूरत

डॉ. शशांक द्विवेदी पिछले दिनों ब्रिटेन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर आयोजित महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन में तकनीकी और राजनीति की दुनिया के दिग्गजों ने चेतावनी दी कि अगर कृत्रिम बुद्धिमत्ता को नियंत्रित नहीं किया गया, तो दुनिया के लिए भारी...

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डॉ. शशांक द्विवेदी

पिछले दिनों ब्रिटेन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर आयोजित महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन में तकनीकी और राजनीति की दुनिया के दिग्गजों ने चेतावनी दी कि अगर कृत्रिम बुद्धिमत्ता को नियंत्रित नहीं किया गया, तो दुनिया के लिए भारी जोखिम पैदा हो जाएगा। लोगों की गोपनीयता भंग होने के साथ ही इंसानी जीवन पर भी खतरा मंडराने लगेगा।

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दुनिया में एआई को लेकर लगातार बढ़ रही चिंताओं के बीच ऐसे शिखर सम्मेलन की लंबे समय से प्रतीक्षा थी। वास्तव में यह शिखर सम्मलेन एआई से जुड़ी समस्याओं से समाधान खोजने का बड़ा प्रयास है। सम्मेलन की बड़ी कामयाबी यह कि तकनीक की दुनिया के दिग्गज जोखिमों को कम करने के लिए तैयार दिखे। असल में एआई के विकास में सरकारों के साथ मिलकर काम करना जरूरी है, ताकि कायदे-कानूनों के तहत ही इस नई तकनीकी का विकास हो। अगर निजी कंपनियों में एआई के विकास को लेकर खुली प्रतिस्पर्द्धा छिड़ी, तो यह मानवता को नुकसान पहुंचाने लगेगी। एआई के विकास में लगे अग्रणी व्यक्तियों को जिम्मेदारी का अहसास कराने में शिखर सम्मेलन को कामयाबी मिली है व भविष्य में आने वाली तकनीक के न्याय-अनुकूल होने की संभावना बढ़ गई। मूल विचार यह कि कंपनियां खुद सुरक्षा उपाय करने के साथ सुनिश्चित करें कि एआई के विकृत मॉडल या जोखिम पहुंचाने की क्षमता रखने वाले मॉडल तैयार न किए जाएं और न ही उनकी निर्माण प्रक्रिया स्वतंत्र छोड़ दी जाए।

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कृत्रिम बुद्धिमत्ता का आरंभ 1950 के दशक में ही हो गया था, लेकिन इसकी महत्ता को पहली बार 1970 के दशक में पहचान मिली। जापान ने सबसे पहले इस ओर पहल की और 1981 में फिफ्थ जनरेशन नामक योजना की शुरुआत की थी। इसमें सुपर-कंप्यूटर के विकास के लिये 10-वर्षीय कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी। इसके पश्चात अन्य देशों ने भी इस ओर ध्यान दिया। ब्रिटेन ने इसके लिये ‘एल्वी’ नामक परियोजना की शुरुआत की। यूरोपीय संघ के देशों ने भी ‘एस्प्रिट’ नाम से एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग हमेशा बेहतर फैसले लेने के लिए किया जाता रहा है। एआई तकनीक डेटा डिलीवरी का समन्वय कर सकती है, रुझानों का विश्लेषण कर सकती है, पूर्वानुमान प्रदान कर सकती है और बेहतरीन फैसले लेने के लिए अनिश्चितताओं की संख्या बता सकती है। जब तक एआई को मानवीय भावनाओं की नकल करने के लिए प्रोग्राम नहीं किया जाता है, तब तक यह मामले पर निष्पक्ष रहेगा और व्यावसायिक दक्षता का समर्थन करने के लिए सही फैसला लेने में मदद करेगा। इसके अलावा अलग-अलग क्षेत्रों में नयी-नयी खोजों में मदद करना व रोजमर्रा के जीवन को आसान बनाने से लेकर एआई कई मायनों में काफी उपयोगी है।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता के कई तरह के फायदे हैं तो इसके नुकसान भी हैं, इसलिए अब एआई के वैश्विक नियमन की जरूरत है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हाल ही में एक आदेश जारी किया जिसके मुताबिक यह सुनिश्चित करना है कि ‘अमेरिका आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की संभावनाओं को साधने के साथ ही इसके जोखिमों का प्रबंधन करने में सबसे आगे रहे।’ इसके लक्ष्यों में अमेरिका की गोपनीयता की सुरक्षा बरकरार रखते हुए एआई सुरक्षा के लिए नए मानक स्थापित करना है।

जेनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (जेनरेटिव एआई) इतना प्रभावशाली है कि इसका विकास एकदम स्वतंत्र तरीके से किए जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। यह ऐसा मुद्दा है जिस पर अधिकांश लोग सहमत हैं। डीप लर्निंग के प्रणेता जेफ्री हिंटन और ओपनएआई के पूर्व प्रमुख सैम ऑल्टमैन, दोनों ही इस मुद्दे पर सहमत हैं। हिंटन ने चेतावनी भी दी कि जेनरेटिव एआई मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा हो सकता है। ऑल्टमैन ने अमेरिकी सांसदों से अपील की कि वे एआई क्रिएटरों के लिए मापदंड तय करें ताकि वे दुनिया को जोखिम की स्थिति में न आने दें। दुनियाभर में कानून निर्माता सांसद अब भी इस बात को लेकर जूझ रहे हैं कि इस शक्तिशाली तकनीक का नियमन बेहतर तरीके से कैसे किया जाए। इनमें से कई जेनरेटिव एआई क्रिएटरों के पाले में गेंद डालने की कोशिश कर रहे हैं। इंटरनेट की वजह से दुनिया ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गई है, साथ ही तकनीक की उपलब्धता बढ़ गई है, तो कुछ देश एआई जैसी तकनीक पर अपना शिकंजा कसना चाहते हैं। दुनिया में एआई को लेकर साझा नीति बहुत जरूरी है, ताकि कोई भी देश या कंपनी इस तकनीक का दुरुपयोग न कर सके।

एआई नियमन के मामले में भारत के कम्यूनिकेशंस एंड आईटी मिनिस्टर अश्विनी वैष्णव के अनुसार, दुनियाभर में इन दिनों एआई प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल तेजी से बढ़ता हुआ देखा जा रहा है। ऐसे में सभी देशों द्वारा इस बारे में एक फ्रेमवर्क बनाना जरूरी हो गया है। यूरोपियन और अमेरिकन रेग्यूलेटर्स काफी समय से इस टेक्नोलॉजी को कंट्रोल में लाने को कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं। जिसके बाद अब भारत सरकार भी इस दिशा में रेग्यूलेटरी फ्रेमवर्क बनाने की सोच रही है। एआई के मोर्चे पर वैश्विक सहमति बनाना जरूरी होगा जिसमें दुनिया के सभी देश शामिल हों।

लेखक मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डायरेक्टर हैं।

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