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हर आपदा के समक्ष जरूरी राष्ट्र की एकजुटता

पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में बाढ़ से लाखों लोग प्रभावित हैं। शासन-प्रशासन की तैयारी व प्रतिक्रिया उम्मीद मुताबिक नहीं रही। सिविल ढांचा चरमराया हुआ है। ऐसे में सरकारों और नागरिक समाज को तालमेल बनाकर राहत कार्य करना चाहिये। राष्ट्र...

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पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में बाढ़ से लाखों लोग प्रभावित हैं। शासन-प्रशासन की तैयारी व प्रतिक्रिया उम्मीद मुताबिक नहीं रही। सिविल ढांचा चरमराया हुआ है। ऐसे में सरकारों और नागरिक समाज को तालमेल बनाकर राहत कार्य करना चाहिये। राष्ट्र के तौर पर बड़ी चुनौती बाढ़ ग्रस्त इलाकों में युद्ध स्तर पर पुनर्वास कार्य कर दिखाने की है।

चुनाव कोई भी हो—संसदीय, विधानसभा, नगरपालिका या पंचायत— उसे लड़ने की तैयारी की शुरुआत ढेरों बैठकों (संसदीय समितियां, कार्यसमितियां, चुनाव समितियां आदि) बनाने से की जाती है। पर्यवेक्षकों की नियुक्ति और बूथ स्तर तक चुनाव प्रबंधकों को काम पर लगाया जाता है; केंद्रीय नेता राज्यों में, राज्य के राजनेता ज़िलों में और ज़िला स्तरीय नेता पंचायतों में जाकर प्रचार करते हैं। चुनावी उत्सव लासानी रणनीति के साथ लड़ा जाता है – वॉर रूम बनाना, कार्यकर्ताओं को लामबंद करना, अद्भुत कंप्यूटिंग शक्ति और डेटा से लैस चुनाव विश्लेषकों की तैनाती। वहीं इन दिनों नौकरशाही भी खुलकर शामिल हो रही है और अंततः हमको चुनाव में सक्रिय हुए बेहतरीन और प्रतिभावान लोग देखने को मिलते हैं। बेशक, यह सब धन और भौंडेपन के प्रदर्शन के साथ होता है, जो अपने पिछले सर्वश्रेष्ठ से हमेशा एक कदम आगे ही होता है।

मुद्दा यह कि सभी दलों का नेतृत्व पूरी तरह सक्रिय दिखाई-सुनाई देता है। अगर चुनावों के लिए इस स्तर का प्रबंधन संभव है और इतनी बड़ी मात्रा में धन का इस्तेमाल किया जा सकता है, तो पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में लगातार जारी बाढ़ के बीच लाखों लोग क्यों दुख में डूबे हुए हैं?

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नदियां और पहाड़ी नाले उफान पर हैं, हर तरफ भूस्खलन हो रहा है, सड़कें बह गई, पुल ढह रहे हैं, बांधों-नहरों के कुप्रबंधन के आरोप लग रहे हैं- पूरा सिविल ढांचा चरमराया पड़ा है। प्रकृति का कोप हर ओर दिखाई देता है, लेकिन नागरिक प्रशासन का मरहम लगाने वाला हाथ कहने भर को सक्रिय है।

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बाढ़ बिना किसी अच्छी खासी पूर्व सूचना के नहीं आती; खासकर इस बार मौसम विज्ञान विभाग का अनुमान सटीक रहा। जुलाई, अगस्त, और सितंबर में भारी बारिश का पूर्वानुमान दिया था– फिर भी समय रहते संगठित प्रतिक्रिया का अभाव रहा। राज्य सरकारें कहती है, उन्होंने ऐसी आकस्मिकताओं के लिए बाकायदा दिशा निर्देश तय कियेे हैं। लेकिन, उन्हें लागू करने का जिम्मा किसका?

क्या यह व्यक्तिगत या संगठनात्मक विफलता थी, या इन राज्यों की सरकारों की सामूहिक विफलता? क्या रिकॉर्ड में कुछ दर्ज है? बताएं क्या कोई तैयारी पहले की थी, कोई अभ्यास किया, क्या अधिक आपदा की आशंका वाले इलाके चिन्हित किये थे? क्या ऐसे क्षेत्रों में पर्याप्त कार्यबल, सामग्री और अन्य संसाधन उपलब्ध थे? क्या इसके लिए अधिकारी नियुक्त किए गए? क्या ज़िला व राज्य स्तरीय नियंत्रण कक्ष स्थापित किए गए व उनका परीक्षण किया? बांधों से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने की स्थिति में निचले इलाकों के गांवों के लिए चेतावनी प्रणाली क्या थी? यकीनन, इन सवालों के अधिकतर जवाब नेगेटिव या अस्पष्ट ही होंगे।

फिर, बाढ़ आने के बाद प्रतिक्रिया क्या रही? क्या यह संस्थागत प्रतिक्रिया थी या फिर अक्ल और निष्ठा की काबिलियत से युक्त अधिकारियों की बेतरतीब प्रतिक्रिया रही? समाचारोंं के अनुसार, अधिकांशतः निराशा भरे इस माहौल में कुछ उजले बिंदु भी दिखाई दिये। मैंने सरकारी बचाव नौकाएं चलाए जाने की ज्यादा बात नहीं सुनी और आसमान में किसी भी तरह की बचाव हलचल नहीं दिखी, सिवाय एकाध हेलीकॉप्टर के। सूबे में केंद्रीय बल और सेना हर तरफ उपलब्ध है और ऐसी आकस्मिकता के दौरान नागरिक प्रशासन की मदद को उन्हें बुलाया जा सकता है। सेना की कुछ टुकड़ियां खासकर ऐसे उद्देश्यों के लिए तय होती हैं, और सिविल अधिकारियों को उनके साथ संपर्क बनाए रखना होता है।

मूल बात यह कि ऐसी वार्षिक आपदाओं का सामना करने के लिए योजनाएं पहले से बनाकर तैयारी रखी जानी चाहिए थी, खासकर जब मौसम विभाग का पूर्वानुमान इतना सटीक होे। सार्थक सरकारी प्रतिक्रिया के अभाव में, यह काम नागरिक समाज पर छोड़ दिया गया क्योंकि उनका जीवन व आजीविका प्रकृति के कोप से बचाव करने पर टिका है। ग्रामीणों ने तात्कालिक समस्याओं से लड़ने को खुद को संगठित किया। उन्हें अपने परिवार, घर, पशुओं को बचाना था - उन्हें भजन गाते हुए अपने भरोसे आपदा से जूझते देखना दिलासा देने वाले रहा। ऐसे लोगों को हमें किसी राष्ट्रीय धरोहर की तरह संजोकर रखना चाहिए- ऐसे मानव संसाधन आसानी से नहीं मिलते।

क्या हमेशा की तरह यह आपदा भी तुच्छ राजनीति और तस्वीरें खिंचवाने का मौका है? क्या हम एक राष्ट्र के रूप में इस अवसर पर खड़े नहीं हो सकते? 'राज्य', जब संगठित हो, तो संसाधन विशाल बन जाते हैं और जबरदस्त कारनामे करने में सक्षम होता है। नेतृत्व का अर्थ है लोगों को प्रेरित करना और संसाधनों का समन्वय करना - 'आपदा की घड़ी बने, तो अगुवा सबसे आगे लगे'। यहां वह व्यक्ति कहां है जो राष्ट्र की विशाल जनशक्ति को संगठित कर सके? या फिर क्या हम 'निम्न दर्जा नेताओं व खोखले लोगों' का पिछलग्गू बनने को अभिशप्त हैं? हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान हम सबके लिए एक मिसाल है, हम उस स्वतंत्र भारत की संतान हैं जिसमें अत्याचारों का कोई स्थान नहीं। क्या हमें अपने ही लोगों द्वारा लूटा जाना चाहिए?

आज देश के अंदर से और हमारी दुश्मन ताकतों की ओर से बहुत शरारतें हो रही हैं - टैरिफ के रूप में भू-राजनीतिक चुनौतियों से लेकर पाकिस्तान की धमकियां और उसके पाले-पोसे आतंकवाद से लेकर हमारे अन्य पड़ोसियों के निहित स्वार्थों तक। जलवायु परिवर्तन खुद में एक आपदा है। ऐसे समय हम एकजुट होकर सामना करें। यदि आज पंजाब और हिमाचल इसका खमियाजा भुगत रहे हैं, तो कल दक्षिण या पश्चिम भारत में भी ऐसा कुछ घट सकता है। राष्ट्र एकजुट होकर प्रतिक्रिया देना सीखे। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को युद्धस्तर पर पुनर्वास की जरूरत होगी। घर, खेत, पशुधन, उपकरण नष्ट हो गए, साथ ही आजीविका के साधन भी। सरकार और नागरिक समाज को तबाही का तुरंत संज्ञान लेना चाहिए और समन्वित प्रतिक्रिया देनी चाहिए।

आज, पश्चिमी दुनिया के अधिकांश हिस्से में अति-दक्षिणपंथी विचारधारा का पुनरुत्थान हो रहा है, और इसकी सीमाओं पर तनाव बढ़ा है। जिन युवाओं ने विदेश में अच्छे भविष्य की उम्मीदें लगायी थीं, वे शायद उस मृगतृष्णा को फीका पड़ता पाएंगे और उनमें कई खुद ही वापसी की फ्लाइट पकड़ते दिख सकते हैं या फिर 'पश्चिम जाने' से खुद को वंचित किए जाते पाएंगे। उन्हें यहां देश में ही अवसर ढूंढ़ने होंगे और महान राष्ट्र के निर्माण का हिस्सा बनना होगा।

बड़ी संख्या में वापस लौटने वाले युवाओं और पहले ही यहां काफी तादाद में मौजूद बेरोज़गार युवाओं को बाढ़ और तंत्र की अक्षमता से तबाह हुए देश का सामना करना पड़ेगा। ‘गिद्ध-शक्तियां’ इन युवाओं को आपराधिक गिरोहों, आतंकी संगठनों आदि के लिए इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं। सरकार के समक्ष पुनर्वास का विशाल कार्य होगा और उसे बेरोज़गार युवाओं की बड़ी संख्या को साथ लाने के लिए एक योजना बनानी होगी। इसके लिए चुनिंदा युवाओं, प्रतिभाशाली नौकरशाहों और कॉर्पोरेट जगत के लोगों को मिलाकर बनाए गए एक केंद्रीय कार्य समूह को यह काम सौंपा जाए और उनकी सिफारिशें तुरंत लागू की जाएं। नेताओं को भी इस प्रयास में वही ऊर्जा व नवीनता लानी पड़ेगी जैसी चुनाव में लगाते हैं।

एक अंतिम टिप्पणी : जलवायु परिवर्तन मुंह बाए खड़ा है, चाहे डोनॉल्ड ट्रम्प इस पर विश्वास करें या नहीं। विज्ञान इस ओर स्पष्ट इशारा कर रहा है, और हम ज़मीनी स्तर पर इस बदलाव के परिणाम देख-झेल रहे हैं। हम पहले ही बहुत देर कर चुके हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ बचाया जा सकता है। क्या मानव जाति एक बार फिर एकजुट होकर आसन्न सर्वनाश से खुद को बचा पाएगी?

लेखक मणिपुर के राज्यपाल और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।

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