गुरबचन जगत
जब हम स्वतंत्रता प्राप्ति का 75वां साल मना रहे हैं, आइए कुछ पीछे झांककर देखें। भारत को जिस रूप में आज हम जानते हैं, उसका यह स्वरूप नहीं था। ब्रिटिश हुकूमत की विदाई के वक्त भारतीय उप-महाद्वीप लगभग 565 रजवाड़े और हजारों अर्ध-संप्रभुता प्राप्त जमींदारों की जागीरों से मिलकर बना भूखंड था। म्यांमार (पूर्व में बर्मा) वर्ष 1937 तक ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का हिस्सा था। 19वीं शताब्दी में तीन एंग्लो-बर्मा लड़ाइयों के बाद वहां अंग्रेजी हुकूमत कायम हो पाई थी और 1937 में इसको पृथक प्रशासित कालोनी के रूप में जुदा किया गया। इससे पहले का इतिहास बताता है कि बर्मा शासकों का असम, मणिपुर इत्यादि पड़ोसी राजाओं से सदैव झगड़ा चलता रहा, इसीलिए अपने साम्राज्य की रक्षार्थ बर्मा को भी अपने नियंत्रण में लेना अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य था।
इसी तरह उत्तर भारत का इतिहास हमें राजपूताना, डोगरा, पहाड़ी राजा और सिख एवं मुगल साम्राज्य के पतन और ब्रिटिश हुकूमत की आमद की झलकियां दर्शाता है। खैबर दर्रा और हिंदुकुश पर्वतमाला से होकर आने वाले आक्रांताओं का रास्ता उत्तरी अंचल और पंजाब के पुराने इलाकों से था। यही वह इलाका है, जहां से होकर अपने अभियानों में विफल रहीं, पस्त फौजें वतन वापसी किया करती थीं। इस लेख का उद्देश्य इतिहास पढ़ाना न होकर केवल यह भर याद दिलाना है कि शेष मानव जाति के इतिहास की तरह हमारा अतीत भी लड़ाइयों, साम्राज्य के उद्भव-पतन, दमन-दासता झेलने और बीच-बीच में कुछेक समय आजादी की सांस वाला रहा है। आजादी, जिसका आनंद हम विगत 75 सालों से ले रहे हैं और जो एक नाज़ुक शांति पर टिकी है- यह हमारे दुश्मनों की कमजोरियों की वजह से नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों के संघर्ष की ताकत पर प्राप्त हुई है। देश की शांति सीमा पर चुपचाप अपना फर्ज निभा रहे महिला-पुरुष प्रहरियों की वजह से कायम है। यह शांति तब तक है जब तक हमारी सजगता और सामर्थ्य कायम है और इसको केवल राष्ट्र की सेना के आकार से नहीं मापा जा सकता। यदि ऐसा होता तो बाबर कभी भी पानीपत की लड़ाई नहीं जीत पाता, जबकि उसके सैनिकों की गिनती विरोधियों के मुकाबले केवल एक-तिहाई थी। इसी तरह एक छोटा-सा द्वीपीय राष्ट्र ‘द ग्रेट ब्रिटेन’ न बन पाता, जिसने तत्कालीन दुनिया का अधिकांश हिस्सा जीत लिया था।
पिछले दो सालों में, कोविड महामारी और इससे जुड़ी समस्याओं के चलते हमारा अधिकांश ध्यान आंतरिक मामलों पर केंद्रित रहा और यह सही भी था। ध्यान का अन्य मुख्य केंद्र चुनावों की झड़ी पर रहा। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल सत्ता पाने की दौड़ में लगे रहे। कदाचित मुख्य राजनीतिक दलों का सारा ध्यान अपनी असंवेदनशील किंतु सुचारु चुनावी मशीनरी के बूते ‘भारत’ जीतने पर ही केंद्रित है। वैसे साझा भलाई की खातिर चुनाव लड़ना और सत्ता-प्राप्ति जरूरी हो जाता है।
हालांकि, इस भूल-भुलैया में फंसकर अपने पड़ोसियों और अंतर्राष्ट्रीय पटल के मुख्य खिलाड़ियों से रिश्ता बनाए रखने पर जितना ध्यान देने की आवश्यकता है, नहीं हो पाया। दुनियाभर में उथल-पुथल के बीच भारी मंथन जारी है। महामारी ने तमाम राष्ट्रों को सर्वप्रथम महामारी और इसके आर्थिक प्रभावों से निपटने को बाध्य किया है। त्वरित उपाय के तौर पर बड़े पैमाने पर छापी गई करेंसी के नतीजे में बनी मुद्रा स्फीति काबू करने में केंद्रीय बैंक प्रयासरत हैं। महामारी आने से पहले भी आधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था एक भीमकाय किंतु नाजुक ताने-बाने से बना तंत्र थी, जो विभिन्न जटिल समझौतों, आपूर्ति रूटों और व्यापार-संधियों वाली व्यवस्था थी। महामारी ने इसके कमजोर तंतुओं पर काफी तनाव बना डाला है। ज्यादातर देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था बचाने की खातिर बाहरी आपूर्ति पर रोक लगाने और संरक्षणवादी उपायों का सहारा लिया है। उन्हें यह भी अनुभव हुआ है कि महामारी के दौरान जिस किसी महत्वपूर्ण आपूर्ति पर बाहरी निर्भरता थी वह समय पर नहीं मिल पाई। आत्मनिर्भरता बनाने की ओर दौड़ लग गई है– दूसरे शब्दों में, तैयार की बजाय कच्चे माल की आपूर्ति, व्यापारिक रूट और अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी स्रोतों की उपलब्धता सुनिश्चित करना मुख्य उद्देश्य है। क्या यूक्रेन युद्ध इसके सीधे परिणामवश है या किसी बड़े खेल का हिस्सा, यह समय बताएगा। लेकिन पूरी तरह स्पष्ट दिख रही अफरा-तफरी वाली स्थिति में हम अपनी सतर्कता सुदृढ़ करने को क्या कर रहे हैं? नजर आने वाली एकमात्र पहल यूक्रेन में फंसे अपने छात्रों को वापस लाना है, वह भी बहुत देरी से की गई प्रतिक्रिया थी।
आइए, अब अपने आस-पड़ोस पर और उनके लिए हमारी नीति पर नज़र डालें। आदर्श रास्ता तो शांतिपूर्वक जीना और द्विपक्षीय व्यापार एवं आर्थिक लाभार्थ नीतियों का क्रमिक विकास करते रहने में है। चीन और पाकिस्तान को छोड़कर हमारे पड़ोस में अधिकांश मुल्क छोटे हैं। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और मालदीव लघु आकारीय हैं, लेकिन हमारे लिए जरूरी है कि उनके साथ व्यवहार ‘बड़े भाई’ वाला न रखकर बराबरी वाला दर्जा दें। पिछले अर्से में, हम उनके प्रति यथेष्ट आदर भाव न रखने वाला रवैया अपनाते रहे हैं। बांग्लादेश के मामले में हमारा बर्ताव मानो कुछ ऐसा रहा कि क्योंकि हमने उसे आजादी दिलवाई है लिहाजा वह अनंत काल तक हमारा शुक्रगुजार रहे। जब तक आर्थिक रूप से बांग्लादेशी हम से आगे नहीं निकल गए, हमने उनकी परवाह नहीं की। आज बेशक बांग्लादेश में कमोबेश भारत-मित्र सरकार है लेकिन नागरिक स्तर पर आपसी संबंध बनाने के लिए किसी खास राजनीतिक शख्सियत या दल पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए।
श्रीलंका के साथ भी लगभग यही कहानी है, यहां तक कि हमने वहां शांति-सेना भेजी थी और इस प्रक्रिया में हम सिंहाला और तमिल, दोनों को ‘सफलतापूर्वक’ अपने विरुद्ध कर बैठे। आज हमारे सम्मुख न केवल श्रीलंका में बल्कि नेपाल और म्यांमार में भी चीन की तगड़ी उपस्थिति है। नेपाल के बारे में हमारी सोच थी कि एक हिंदू राष्ट्र होने के नाते वह हमारी जागीर का हिस्सा है। वर्तमान में नेपाल में खासी राजनीतिक उथल-पुथल है लेकिन न तो उसका वामदल, न ही दक्षिणपंथी पार्टी हमारे साथ खड़े दिखाई देते हैं। म्यामांर में हमारा झुकाव कभी नागरिक शासन तो कभी सैनिक तानाशाहों की तरफ झूलता रहा है। हमारे उत्तर-पूर्वी राज्यों के साथ रिवायती व्यापारिक संबंध रखने वाला म्यांमार आज भारत विरोधी विद्रोहियों की शरणस्थली बन चुका है। स्पष्टतः अपने पड़ोसी मुल्कों को लेकर हम एक दीर्घकालीन ऐसी कोई सामरिक नीति नहीं बना पाए, जो प्रत्येक मुल्क से साथ साझा और विशेष अवयवों की पूर्ति करने वाली हो। इसी नीति में रक्षा, व्यापार, पर्यटन, सांस्कृतिक आदान-प्रदान इत्यादि का समावेश और दीर्घ काल में सुधार करते रहने वाले उपाय अंतर्निहित होते। हम किसी बड़े रक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं हैं। सवाल पैदा होता है कि क्या हम अपने ही अड़ोस-पड़ोस में अलग-थलग पड़ गए हैं और क्या हमारा कोई स्थाई साथी है भी या नहीं। चीन के दबाव में भूटान भी हम से छिटकता लग रहा है। गौरतलब है कि लद्दाख में हुई हालिया चीनी घुसपैठ पर एक भी पड़ोसी मुल्क ने हमारे हक में बात नहीं की है।
पाकिस्तान की बात करें तो साफ है कि 1947 से लेकर किसी सरकार ने परस्पर संदेह का पाट भरने की गंभीर कोशिशें नहीं की हैं, हालांकि पाकिस्तानी सेना और इसके जनरलों के रुख ने इस शुभेच्छा को असंभव बना रखा है। परिदृश्य पर चीन की आमद से स्थिति और जटिल बन गई है। इस बाबत नेहरू के ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे से लेकर वाजपेयी की लाहौर यात्रा हो या मोदी की अप्रत्याशित पाकिस्तान यात्रा या फिर मनमोहन सिंह की पहल– तमाम प्रयास बेकार रहे। हमारा विश्वास बृहद संबंध बनाने की बजाय फोटो खिंचवाने में है। 1962 में चीनियों के साथ हमारी लड़ाई हुई, तब से लेकर वह बेधड़क होकर लद्दाख और उत्तर-पूर्वी सीमा पर, छोटे-छोटे टुकड़ों में हमारा बड़ा भूभाग हड़प चुका है और सरकार हमें बहलाती है कि यह इलाका तो पहले से उसके कब्जे में था। यदि ऐसा है, तो फिर आपने वापस पाने के लिए क्या किया? फौजी जनरलों के बीच वार्ता से केवल अस्थाई शांति-स्थापना कायम होती है न कि कोई राजनीतिक हल। ऐसे मामले में राजनयिकों और राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा अथक प्रयास करने की जरूरत होती है। पुनः, चीन के मामले में हमारे एकतरफा आर्थिक संबंध हैं यानी हमारी ओर से न्यूनतम निर्यात और चीन से अधिकतम आयात। हमने अपनी अर्थव्यवस्था की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया, सरकारी अदारों और निजी कंपनियों के बीच जो खींचतान चल रही थी, उसमें अब तीसरे पक्ष के रूप में ‘चारण पूंजीपति’ आन जुड़े हैं।
उधर चीन ने क्या किया? यहां मुझे काफी पहले एक वरिष्ठ वामपंथी नेता से की बातचीत याद आ रही है जब मैंने उनसे भारत या पश्चिमी जगत के विरुद्ध चीनी आक्रमण की संभावना को लेकर पूछा था, उनका उत्तर ज़ोरदार था : ‘अगले तीन-चार दशकों तक नहीं, जब तक वह आर्थिक और सैन्य रूप से अमेरिका जितने तगड़े न हो जाएं’। उनका आकलन एकदम सही बिंदु पर था। कालांतर में दीर्घ-कालीन सामरिक नीति के बूते चीन ने अमेरिकियों जितनी आर्थिक और सैन्य शक्ति हासिल कर दिखाई है।
पिछले कुछ सालों से हम हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने रिश्ते अमेरिका के साथ मधुर बनाने में लगे हुए हैं। हमने ‘क्वाड’ नामक संगठन की सदस्यता ले ली है, जो न तो सैन्य गुट है व न ही आर्थिक संगठन। पुनः, गौरतलब है इसके सदस्यों ने लद्दाख में चीनी घुसपैठ की कड़ी आलोचना नहीं की। इस बीच चीन और रूस ने ऐतिहासिक संधि कर ली है। पाकिस्तान पहले से चीन का निकट सहयोगी है– इस सब में हम कहां हैं? शुरुआत में, आजादी के बाद, अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर हमारी आवाज़ सुनी जाती थी और हम गुट-निरपेक्ष आंदोलन और पंचशील सिंद्धातों के संस्थापकों में एक थे। वक्त के साथ हम रास्ते से भटक गए। पहले हमने अपनी सुरक्षा संबंधी जरूरतों के लिए निर्भरता लगभग पूरी तरह रूसियों पर बना ली और अब अमेरिकियों से नज़दीकियां बढ़ाने में लगे हैं। पुराने समय से ईरान के साथ हमारे संबंध अच्छे रहे हैं लेकिन अमेरिकियों का एक फोन आया और हमारे हाथ से सस्ते तेल की उपलब्धता और मध्य एशिया तक पहुंचने का रास्ता मुहैया करवाने वाली ईरानी बंदरगाह जाती रही। क्या इससे हमारे हित सधते हैं, क्या हमने अपने सामरिक ध्येयों की अनदेखी की है, क्या ऐसा कोई लक्ष्य है भी या नहीं?
यूक्रेन के मामले में हमारा रुख क्या है? हमने न तो पश्चिम का विरोध किया न ही रूसियों का समर्थन। एक ओर रूस से गलबहियां डालने की एवज में मिलने वाली सैन्य सामग्री तो दूसरी ओर अमेरिकियों से गले मिलने पर प्राप्त होनी वाली सैन्य एवं आर्थिक फायदों की संभावना, इस दुविधा ने हमें असहाय कर डाला है। क्या हमारी विदेश नीति ने हमें असहाय बना डाला है? क्यों नहीं हम अपने पांवों पर खड़े होकर अपनी रक्षा और वैध हितों का प्रसार कर पाते? यह इसलिए क्योंकि हमें दो कश्तियों में एक-साथ पांव रखने की आदत हो गई है। अपनी सैन्य और आर्थिक जरूरतों के लिए हम लंबे समय से दूसरों की मदद पर निर्भर हैं। अपने सुरक्षा बलों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हमारे पास खुद का औद्योगिक आधार नहीं है।
राष्ट्र उन दूरंदेश व्यक्तियों द्वारा चलते हैं जो आधारभूत ढांचा बनाने के लिए सुदृढ़ नींव रखते हैं। आत्म-निर्भर बनने में सालों-साल लगते हैं, तब तक अपने वजूद के लिए हमारे पास एक योजना और भरोसेमंद मददगार दोस्त होने जरूरी हैं– क्या हमारे पास इन दोनों में कोई है?
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।