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हिंदी के विरोध की संकीर्ण राजनीति

त्रिभाषा फार्मूले का विरोध करने वालों को भी यह समझना होगा कि आवश्यकता इसके ईमानदार क्रियान्वयन की है। वर्ष 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति में इस फार्मूले को स्वीकारा गया था। तब यह कहा गया था कि तीसरी भाषा के रूप...

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त्रिभाषा फार्मूले का विरोध करने वालों को भी यह समझना होगा कि आवश्यकता इसके ईमानदार क्रियान्वयन की है। वर्ष 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति में इस फार्मूले को स्वीकारा गया था। तब यह कहा गया था कि तीसरी भाषा के रूप में उत्तर वाले दक्षिण की किसी भाषा को सीखेंगे और दक्षिण वाले उत्तर की भाषा हिंदी को। पर उत्तर वालों ने यहां ईमानदारी नहीं दिखाई। उन्होंने तीसरी भाषा के रूप में दक्षिण भारत की किसी भाषा के बजाय मुख्यत: संस्कृत को चुना।

विश्वनाथ सचदेव

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आपातकाल में हमारे संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गये थे- पहला ‘पंथ निरपेक्षता’ और दूसरा समाजवाद। संविधान जब तैयार किया जा रहा था तब भी इन शब्दों की आवश्यकता की चर्चा हुई थी, पर तब हमारे संविधान निर्माताओं ने यह माना था कि यह दोनों विचार संविधान में अन्यत्र स्पष्ट रूप से जुड़े हुए हैं, अत: इन्हें अलग से प्रस्तावना में जोड़ना आवश्यक नहीं है। जब आपातकाल के दौरान इन्हें जोड़ा गया तो तर्क यह दिया गया था कि यह दोनों विचार प्रमुखता के साथ रेखांकित होने चाहिए। संविधान के 42वें संशोधन से इसे रेखांकित कर दिया गया। बाद की जनता पार्टी की सरकार ने भी इस बात को मान लिया। पचास साल बाद यह विवाद फिर सिर उठा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को यह लग रहा है कि इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटा कर अब अपनी विचारधारा को संविधान में शामिल किया जा सकता है। और यदि संख्या की दृष्टि से फिलहाल संविधान में प्रयुक्त संशोधन नहीं हो सकता तो भी देश में अपने विचार के समर्थन में वातावरण बनाने का यह अच्छा मौका है।

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ऐसी ही एक कोशिश महाराष्ट्र में भी हो रही है-- राज्य की भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने केंद्र की नयी शिक्षा-नीति को लागू करने की प्रक्रिया की शुरुआत करते हुए यह निर्णय लिया था कि राज्य में त्रिभाषा फार्मूले को लागू किया जाये। इस फार्मूले के अनुसार राज्य के स्कूलों में पहली से पांचवीं कक्षा तक के बच्चों को मराठी और अंग्रेजी के अलावा तीसरी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाई जानी थी। विपक्ष, विशेषकर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को, सरकार के इस निर्णय का विरोध करके अपनी जमीन को मज़बूत करने का अवसर दिखाई दिया। उद्धव ठाकरे ने घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी इस निर्णय को किसी भी कीमत पर लागू नहीं होने देगी। लगभग दो दशक पहले बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना को छोड़कर अपना स्वयं का राजनीतिक दल बनाने वाले उनके भतीजे राज ठाकरे को भी इस स्थिति में एक अवसर दिखाई दिया और उन्होंने भी घोषणा कर दी कि राज्य सरकार की “मराठी विरोधी नीति” को लागू नहीं होने दिया जायेगा। कांग्रेस और शरद पवार की पार्टी भी ठाकरे बंधुओं के आह्वान के साथ जुड़ गयीं। एक बार फिर राज्य में मराठी अस्मिता के नाम पर माहौल बनने लगा। स्थिति को सुधारने के लिए राज्य सरकार ने यह घोषणा की कि पहली से पांचवीं तक तीसरी भाषा के रूप में हिंदी अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ाई जायेगी, यदि बच्चे किसी अन्य भाषा को पढ़ना चाहते हैं तो उनके लिए स्कूलों में इसकी व्यवस्था की जायेगी, बशर्ते किसी अन्य भाषा को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम से कम बीस हो। सरकार को लगा था कि इस घोषणा से स्थिति संभल जायेगी। पर ऐसा हुआ नहीं। उद्धव ठाकरे की शिवसेना (उबाठे) और राज ठाकरे की मनसे, दोनों किसी भी कीमत पर इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे। तय हुआ कि पांच जुलाई को राज्य का समूचा विपक्ष मराठी भाषा और मराठी अस्मिता की रक्षा के नाम पर केंद्र के निर्देश से काम करने वाली महाराष्ट्र सरकार के निर्णय के विरोध में आंदोलन करेगा।

बाजी हाथ से निकलते देख कर राज्य सरकार ने हिंदी की पढ़ाई वाला अपना कदम वापस लेने का निर्णय किया। अब एक उच्च स्तरीय समिति गठित की गयी है जो राज्य के स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले को लागू किये जाने के बारे में अध्ययन करके अपना सुझाव देगी। पर विपक्ष इस अवसर का लाभ उठाने पर आमादा है। ज्ञातव्य है कि भाषा के नाम पर महाराष्ट्र बहुत ही संवेदनशील है। दक्षिण और पूर्वी भारत के कुछ राज्यों में भी भाषा को लेकर संवेदनशीलता कम नहीं है। तमिलनाडु, कर्नाटक, असम, बंगाल आदि राज्यों में भी भाषा के नाम पर राजनीति होती रही है। और अब भी हो रही है। लेकिन महाराष्ट्र में तो भाषाई अस्मिता के नाम पर ही शिवसेना जैसे राजनीतिक दल की स्थापना हो पायी थी। आज भी ‘उबाठा’ या ‘मनसे’ जैसे दल एक तरह से भाषा की राजनीति ही कर रहे हैं। बालासाहेब ठाकरे ने ‘मराठी माणूस’ के हितों के नाम पर ही शिवसेना का गठन करने में सफलता पायी थी और आज भी त्रिभाषा फार्मूले वाली शिक्षा-नीति में हिंदी की स्थिति को लेकर होने वाले विरोध के मूल में भाषाई अस्मिता वाली बात ही है। महाराष्ट्र में इस नीति का विरोध करने वाले यह तो कहते हैं कि वह ‘हिंदी के विरोधी नहीं, हिंदी को थोपे जाने के विरोधी हैं’, लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि देश में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी की पढ़ाई का विरोध करने वाले एक विदेशी भाषा अंग्रेजी को कैसे स्वीकार कर पा रहे हैं? थोपी तो अंग्रेजी जा रही है।

बहरहाल, हिंदी भले ही संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं, बल्कि देश की राजभाषा के रूप में स्वीकार की गयी हो, पर इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे बहुभाषी देश में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। अंग्रेजी सीखने-सिखाने से भी किसी को विरोध नहीं होना चाहिए, अंग्रेज़ी एक समृद्ध भाषा है, दुनिया के कई देशों में बोली जाती है, इक्कीसवीं सदी के भारत में अंग्रेजी की आवश्यकता भी हो सकती है, पर 121 प्रमुख भाषाओं वाले भारत में, जहां संविधान बाईस भाषाओं को राष्ट्रभाषा का दर्जा देता है, अपनी किसी भाषा का विरोध उचित तो नहीं ही कहा जा सकता। राजनीतिक हितों और स्वार्थों की बात छोड़कर हमें देश की भाषाई वास्तविकता को समझना होगा।

त्रिभाषा फार्मूले का विरोध करने वालों को भी यह समझना होगा कि आवश्यकता इसके ईमानदार क्रियान्वयन की है। वर्ष 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति में इस फार्मूले को स्वीकारा गया था। तब यह कहा गया था कि तीसरी भाषा के रूप में उत्तर वाले दक्षिण की किसी भाषा को सीखेंगे और दक्षिण वाले उत्तर की भाषा हिंदी को। पर उत्तर वालों ने यहां ईमानदारी नहीं दिखाई। उन्होंने तीसरी भाषा के रूप में दक्षिण भारत की किसी भाषा के बजाय मुख्यत: संस्कृत को चुना। यह ग़लत था। अपने देश की भाषाओं को सीखकर ही हम अपने देश को समझ सकते हैं! इसलिए महाराष्ट्र अथवा अन्य किसी भी राज्य में हिंदी का विरोध बेमानी है। हमें तो इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हमारे पास इतनी सारी भाषाओं की संपदा है।

गर्व करने वाली यही बात संविधान की प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ के जुड़े होने पर भी लागू होती है। ये दोनों विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से नहीं देखे जाने चाहिए। पंथ-निरपेक्षता हमें सर्वधर्म समभाव के आदर्श से जोड़ती है, इसे धर्म से विमुखता का संदर्भ देकर राजनीतिक लाभ भले ही उठाया जा सकता हो, पर इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि हमारा भारत दुनिया का अकेला देश है जहां इतने सारे धर्म फल-फूल रहे हैं। हमारी धार्मिक और भाषाई विविधता हमारी विशेष पहचान है, हमारी विशेषता है। इस विशेषता पर हमें गर्व होना चाहिए। जहां तक समाजवाद का सवाल है समता, बंधुता और न्याय के आदर्श में विश्वास करने वाला भारत सबको आगे बढ़ने का समान अवसर देने वाले मार्ग के अलावा और कोई मार्ग चुन ही नहीं सकता। इसलिए ज़रूरी है कि हम राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर ‘सर्वजन हिताय’ के आदर्श को समझें-स्वीकारें।

कोई माने या न माने, पर तीन बातें स्वतः स्पष्ट हैं—पहली यह कि हिंदी देश में सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा है, दूसरी यह कि पंथ-निरपेक्षता हमारे संविधान की मूल भावना का हिस्सा है, और तीसरी यह कि समाजवाद शब्द से भले ही किसी को विरोध हो, पर ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का आदर्श यही समझाता है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए संविधान की मूल भावना को नकारना स्वीकार्य नहीं हो सकता।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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