यह पांच साल पहले की बात होगी। एक मित्र जिससे बहुत दिनों बाद बात हो रही थी, उससे घर-परिवार के बारे में भी बातें होने लगीं। होते-होते बात बच्चों और उनके परिवार पर आई, तो मित्र ने कहा कि उसके लड़के और बहू ने फैसला किया है कि वे बच्चे नहीं चाहते। ‘ऐसा क्यों’ पूछने पर उसने कहा कि वे कहते हैं कि वैसे ही देश की आबादी बहुत है। फिर बच्चे की जिम्मेदारी कौन उठाए। जीवन भर की जिम्मेदारी उठाने से बेहतर है कि कोई जिम्मेदारी न उठाई जाए और बच्चे पैदा न किए जाएं।
कुछ दिन पहले एक बहुत बड़े बहुराष्ट्रीय निगम में काम करने वाली परिचित लड़की से फोन पर बात हो रही थी। उसकी शादी को बारह साल हो गए मगर उसका कहना है कि उन्हें बच्चा नहीं चाहिए। डिंक इनकम ग्रुप यानी जहां पति-पत्नी दोनों कमाते हैं, वहां ये चलन बढ़ता जा रहा है। ये लोग खुद को चाइल्ड फ्री कहलाना पसंद करते हैं। अपने निर्णय पर इन्हें कोई पछतावा भी नहीं है। इनका मानना है कि बच्चे को पालना एक महंगा सौदा है। वह सही स्कूल में पढ़े, उसका ठीक से विकास हो इस पर भी बहुत परिश्रम करना पड़ता है। कई लोग अपने इस तरह के जीवन को बढ़ा-चढ़ाकर प्रसारित-प्रचारित भी करते हैं।
एक जोड़े ने सोशल मीडिया पर बताया था कि उनके बच्चे नहीं हैं, मगर उन्होंने छह डॉग पाल रखे हैं। वे उनकी देखभाल करते हैं। ये जोड़े अपने पैसे को अपनी जिंदगी की खुशियों पर खर्च करना चाहते हैं। खूब घूमना-फिरना चाहते हैं। जहां मर्जी आए, जब मर्जी हो उस काम को करने की आजादी है। सिर पर यह भार नहीं है कि पीछे से कोई बच्चा इंतजार कर रहा होगा, इसलिए घर लौटना है। ऐसी जिंदगी बहुत तनाव मुक्त होती है और हमेशा आजादी का अहसास कराती है।
ऐसे लोग अपने मन बहलाव के लिए श्वान पालते हैं, बिल्ली पालते हैं। यह लेखिका स्विट्ज़रलैंड में भी एक ऐसी महिला से मिली थी, जो छप्पन साल की थी। मगर उसने बच्चे न पैदा करने का निर्णय लिया था। उसने पांच बिल्लियों को पाल रखा था। वह इन बिल्लियों को डॉक्टर के पास ले जाने से लेकर उन्हें नहलाना-धुलाना, शैंपू करना, उनके बाल कटवाना, यहां तक कि वे अकेला महसूस न करें इसका इंतजाम तक करती थी। शायद यही कारण है कि भारत में बहुत सी कम्पनियां अब अपने-अपने पालतुओं को दफ्तर लाने की अनुमति दे रही हैं। हां, इन्हें लाने से आपके काम में कोई बाधा नहीं पड़नी चाहिए और ये किसी को नुकसान भी न पहुंचाएं।
इन दिनों यह बात भी देखने में आती है कि लड़कियां ज्यादा पैसे कमा रही हैं। इनमें से कइयों का कहना है कि उनके अंदर मां बनने की कोई प्राकृतिक इच्छा नहीं है। एक लड़की जो आये दिन विदेश जाती है, उसका कहना है कि न शादी से पहले व न शादी के बाद वह मां बनना चाहती थी। उसने भी एक डॉगी पाल रखा है लेकिन उसका कहना है कि मैं उसकी मां नहीं हूं। मैं किसी की मां नहीं बनना चाहती। लड़कियां जरूरी तौर पर मां बनें, यह बात अब पुरानी हो चली है।
ये युवा पर्यावरण के बारे में सोचते हैं। संगीत और बहुत से शेरो-शायरी को भी पसंद करते हैं। इनका यह भी कहना है कि वे इसलिए भी बच्चे पैदा नहीं करना बेहतर समझते हैं क्योंकि कोई आनुवंशिक बीमारी उन्हें नहीं सौंपना चाहते। इनमें से अधिकांश यह भी मानते हैं कि वे अपने कामकाज में इतने व्यस्त हैं कि बच्चे पालने का समय ही नहीं है। एक जोड़े ने यह भी बताया कि कोविड के दौरान उन्हें महसूस हुआ कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं कब तक कौन है। इसके अलावा न नौकरियों का भरोसा है। ऐसे में बच्चे की जिम्मेदारी लेना ठीक नहीं है। इस जोड़े के पास एक कुत्ता और एक बिल्ली है। ये जब भी अपनी कार से लम्बी यात्राएं करते हैं, अपने पालतुओं को साथ ले जाते हैं।
पिछले दिनों एक मार्केर्टिंग फर्म ने सर्वे के दौरान बताया था कि भारत में डिंक यानी डबल इनकम ग्रुप की संख्या हर साल तीस प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। महिलाएं कम बच्चों को जन्म दे रही हैं। भारत में प्रजनन दर भी तेजी से घट रही है। साल 1950 में यह 6.2 थी जो अब घटकर 2 रह गई है। इसका एक बड़ा कारण महिलाओं का घर से निकलना है। फिर परिवार नियोजन के साधनों ने दम्पतियों को यह सुविधा प्रदान की है कि वे माता-पिता बनें या न बनें या कब बनें। बहुत से ऐसे जोड़े भी हैं जो कहते हैं कि बच्चे को दुनिया में लाकर अगर जिम्मेदारी ही पूरी करनी है तो क्यों न दूसरी जिम्मेदारियां निभाएं, जैसे कि बुजुर्गों की देखभाल करें। दिव्यांगों की मदद करें। पेड़ लगाएं और पर्यावरण को बचाएं। बच्चे नहीं हैं, इस बात का इन्हें गर्व है।
ऊपर जिन लोगों का जिक्र है ऐसे सब लोगों की बातें सुनकर यह लगता है कि शायद इन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि नौकरियां हमेशा नहीं रहेंगी। एक दिन ऐसा आएगा कि जब रिटायर्ड जीवन बिताना होगा। शरीर में भी तब तक इतनी ताकत नहीं बचेगी कि रोज कहीं घूमने जा सकें, दोस्तों के साथ पार्टियां कर सकें। यहां तक कि अकेले अपने बल पर अपने पालतुओं की देखभाल भी कर सकें। तब क्या होगा। बीती हुई उम्र वापस नहीं आएगी।
रिटायर्ड जीवन की बदली परिस्थितियों के चलते आने वाली चुनौतियों की बात सुनकर इनमें से बहुत से कहते हैं कि उन्हें इस बात का अहसास है कि बुढ़ापे में उनका क्या होगा। कौन उनकी देखभाल करेगा। कुछ ये भी कहते हैं कि कौन बच्चे आजकल माता-पिता की देखभाल कर पाते हैं। करना भी चाहें, तो उनके पास समय नहीं है। लेकिन जब ये इन परिस्थितियों में आएंगे उससे पहले ही ये अपने स्वास्थ्य को लेकर काफी सजग हैं, जिससे कि किसी गम्भीर बीमारी के होने से पहले ही उसका इलाज करा सकें। इसके अलावा बचत भी इस तरह से कर रहे हैं कि जिस तरह की जीवनशैली अब है, उसमें जब रिटायर हो जाएं, कोई आय न भी रहे तो भी बदलाव न आए। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि क्या सिर्फ स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होने भर से सारी समस्याएं हल हो जाती हैं। जिसे ह्यूमन रिसोर्स कहते हैं , उसकी जरूरत तो पल-पल पड़ती है। और ये बात भी सच है कि दोस्त चाहे जितने अच्छे हों, वक्त पर आपके लिए दौड़ते भी हों, मगर वे परिवार की जगह नहीं ले सकते।
कई बार यह जो खाओ-पिओ मौज उड़ाओ की संस्कृति है, यह हमें बहुत स्वार्थी भी बनाती है। हम अपने अलावा किसी और के बारे में सोच नहीं पाते। हमारी आजादी और आनंद में कोई खलल न पड़े, इसके लिए बच्चे नहीं चाहिए। यह कैसा आनंद है जो बच्चे की जिम्मेदारी को इतना बड़ा बोझ मान रहा है कि बच्चे चाहिए ही नहीं। वे दुनिया में आएं ही नहीं। परिवार पर इन दिनों जो संकट आए हुए हैं, डिंक जोड़ों के ये निर्णय उसी संकट की ओर इशारा कर रहे हैं।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।