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संगीत-अध्यात्म एकाकार हो जाते थे उनकी ठुमरी में

स्मृति शेष : पंडित छन्नूलाल मिश्र

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उनकी आवाज़ में भक्ति और शृंगार दोनों का सहज संगम था। वे भजन गाते तो लगता कि ईश्वर हमारे सामने खड़े हैं और ठुमरी गाते तो लगता कि प्रेमिका अपने प्रिय की बाट जोह रही है।

भारतीय संगीत की परंपरा ऐसी है जिसमें हर स्वर केवल ध्वनि नहीं, बल्कि जीवन का अनुभव होता है। यह अनुभव पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहता आया है, जैसे गंगा की धारा कभी सूखती नहीं, वैसे ही राग-रागिनियों की धारा भी प्रवाहित रहती है। इसी प्रवाह में एक स्वरयोगी थे—पंडित छन्नूलाल मिश्र। जिनका जाना भारतीय संगीत-जगत के लिए एक गहरी रिक्तता है। वे केवल गायक नहीं थे, बल्कि संगीत के उस भावलोक के रक्षक थे, जहां शास्त्र और लोक एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं।

मिश्र जी के निधन से ऐसा लगा मानो बनारस की गलियों से कोई दीप अचानक बुझ गया हो। लेखिन उनकी आवाज़ का उजाला कभी खत्म नहीं होगा। उनकी गायकी, उनकी ठुमरियां, उनके भजन और उनकी अमर रचनाएं पीढ़ियों तक सुनाई देती रहेंगी।

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पंडित छन्नूलाल मिश्र का जन्म उ.प्र. के आज़मगढ़ की साधारण भूमि पर हुआ। संगीत उनके परिवार की परंपरा नहीं थी। बचपन के दिनों में गांव के आंगन में गूंजते भक्ति गीत, मां-बहनों की मधुर स्वर-लहरियां और मंदिरों में उठते कीर्तन उनकी आत्मा में गहरे उतरते गए। यह वही बीज थे, जिन्होंने आगे चलकर उन्हें स्वर-साधना की ओर मोड़ा। पंडित छन्नूलाल का बचपन मिट्टी की सोंधी गंध और गांव की सहज संस्कृति में बीता। तभी उनकी गायकी में हमेशा मिट्टी की सुगंध रही। एक ऐसी सुगंध, जो श्रोता को सीधे उसकी जड़ों तक पहुंचा देती थी।

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गुरुजनों की शरण में पहुंचकर उन्होंने किराना घराने की बारीकियों को आत्मसात किया। यहां उन्होंने सीखा कि एक स्वर मात्र ध्वनि नहीं, बल्कि साधना है। किराना घराना स्वर की शुद्धता के लिए प्रसिद्ध है और मिश्र जी ने इसे जीवन भर अपने गले में संजोए रखा। लेकिन उनकी आत्मा को असली घर मिला बनारस में। बनारस की गलियां, घाट और मंदिर उनके जीवन का संगीत बन गए। पंडित मिश्र ने एक बार कहा कि ‘बनारस की मिट्टी और गंगा का जल यदि गले में उतर जाए तो आवाज़ अपने आप पवित्र हो जाती है।’ यह उनका अनुभव था। वे जब ठुमरी गाते, तो उसमें केवल सुर ही नहीं होते, बल्कि बनारस का समूचा वातावरण उतर आता।

कल्पना कीजिए—गंगा की लहरों पर डूबते सूरज की किरणें, घाटों पर गूंजती आरती और गलियों से आती ठहाकों की आवाज़ें। यही बनारस है और यही बनारस उनकी ठुमरी में बसा रहता था। उनकी आवाज़ सुनकर श्रोता को लगता कि वह स्वयं गंगा किनारे बैठा है, जहां संगीत और अध्यात्म एकाकार हो जाते हैं।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में ठुमरी को सबसे कोमल विधा माना जाता है। इसमें शृंगार का रस भी है और भक्ति का आह्वान भी। पंडित छन्नूलाल ने ठुमरी को केवल गाया नहीं, बल्कि जिया। उनके गायन में ‘पुरब अंग की ठुमरी’ की झलक सबसे अधिक मिलती थी। यह ठुमरी भोजपुरी लोकसंवेदना से उपजी थी, जिसमें लोक की मिठास और सहजता समाई रहती है।

जब वे गाते, ‘मोरे सैयां बुलावे अदरसिया…’, तो श्रोता के हृदय में एक कंपन उठता। ऐसा लगता मानो यह गीत केवल गले से नहीं, आत्मा से निकला हो। वह सुरों को सिर्फ साधते नहीं थे, उन्हें आत्मा में जीते थे।

पंडित छन्नूलाल की गायकी का सबसे अनोखा और अमर योगदान था, ‘मसाने की होली।’ यह गीत केवल एक रचना नहीं, बल्कि बनारस की संस्कृति का जीवंत दर्शन है। बनारस वह शहर है, जहां मृत्यु भी जीवन का उत्सव बन जाती है। जहां श्मशान भी साधना का स्थान है। जब होली जैसी रंगों की बौछार वाला पर्व इस संस्कृति से मिलता है तो जन्म लेती है-मसाने की होली।

पंडित मिश्र की आवाज़ में जब यह गीत गूंजता, तो श्रोता खुद को श्मशान घाट पर पाता—जहां राख में भी रंग है और मृत्यु में जीवन का उल्लास। इस गीत ने यह सिद्ध कर दिया कि होली केवल गुलाल और रंगों की मस्ती नहीं है, बल्कि यह जीवन और मृत्यु की सीमाओं को पार कर लेने वाला उत्सव है। ‘मसाने की होली’ वर्षों से होली मिलन समारोहों, सांस्कृतिक मंचों और लोक उत्सवों का अभिन्न हिस्सा बनी हुई है। इसका श्रेय पंडित मिश्र को जाता है।

पंडित छन्नूलाल की गायकी का सबसे बड़ा गुण यह था कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत को जनमानस से जोड़ा। उनकी ठुमरियों में भोजपुरी और अवधी का रस होता था। यह लोकजीवन की आत्मा थी। जब वे इन भाषाओं में गाते, तो गांव-गली का श्रोता भी उनसे जुड़ जाता। फलत: वे हर घर-आंगन के गायक बन गए।

पंडित छन्नूलाल सिर्फ गायक नहीं, बल्कि कथावाचक भी थे। उनके गायन में हमेशा संवाद की छटा होती थी। जब वे गाते, तो श्रोता को लगता कि जैसे कोई उनसे सीधे बातें कर रहा है। यही कारण था कि उनकी ठुमरियां कहानी जैसी प्रतीत होती थीं—कभी शृंगार की, कभी विरह की तो कभी भक्ति की। उनकी आवाज़ में भक्ति और शृंगार दोनों का सहज संगम था। वे भजन गाते तो लगता कि ईश्वर हमारे सामने खड़े हैं और ठुमरी गाते तो लगता कि प्रेमिका अपने प्रिय की बाट जोह रही है।

पंडित मिश्र को वर्ष 2010 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण से अलंकृत किया। उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार जनता का प्रेम था। पंडित मिश्र के शिष्य आज देश-विदेश में भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने ठुमरी को लोक से जोड़ा।

आज जब पंडित छन्नूलाल हमारे बीच नहीं हैं, तो यह एक युग का अंत है। उनकी गायकी आने वाली पीढ़ियों के लिए दीपक की तरह मार्ग दिखाती रहेगी। जब भी गंगा किनारे कोई ठुमरी गाई जाएगी, जब भी कोई मंच पर ‘मसाने की होली’ गूंजेगी, तो लगेगा मानो पंडित मिश्र वहीं बैठे हों, अपनी मुस्कान के साथ, सुरों की तपस्या करते हुए। सच यही है—वे नहीं गए। वे तो हर ठुमरी, हर भजन और हर गली की गूंज बनकर अमर हो गए हैं।

लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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