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मुंशी प्रेमचंद भी 'मुरीद' थे जिनके

जयंती: आचार्य चतुरसेन शास्त्री
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दिलचस्प है कि ‘वैशाली की नगरवधू’ को आचार्य स्वयं भी अपना 'एकमात्र' उपन्यास मानते थे। उन्होंने घोषित कर दिया था कि यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। उन्हीं के शब्दों में ‘मैं अब तक की सारी रचनाओं को रद्द करता हूं और ‘वैशाली की नगरवधू’ को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूं।’

इसे हिंदी जगत की विस्मरण की प्रवृत्ति का विषफल ही कहा जायेगा कि उसे इतिहास की दृष्टि से लिखा गया पहला उपन्यास ‘वैशाली की नगरवधू' देने वाले आचार्य चतुरसेन शास्त्री को अब उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर भी याद नहीं किया जाता। यह तब है, जब आचार्य के जीते जी ही उनकी झोली प्रशंसकों और प्रशंसाओं से भरी हुई थी। कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद भी उनके मुखर प्रशंसक थे, जिन्होंने एक समय उनके सृजन पर रीझकर उनसे कहा था कि ‘लिखते तो आप हैं, मैं तो कलम रगड़ता हूं।' दिलचस्प है कि ‘वैशाली की नगरवधू’ को आचार्य स्वयं भी अपना 'एकमात्र' उपन्यास मानते थे। उन्होंने घोषित कर दिया था कि यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। उन्हीं के शब्दों में ‘मैं अब तक की सारी रचनाओं को रद्द करता हूं और ‘वैशाली की नगरवधू’ को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूं।’

रचना प्रक्रिया के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरी आत्‍मकहानी’ में लिखा है कि 1938 में उन्‍हें उपचार के सिलसिले में बिहार जाना पड़ा तो वहां पहाड़ियों में भटकने और जलस्रोतों में घंटों स्‍नान के दौरान वे एक जाग्रत स्‍वप्‍न देखने लगे। ऐसा लगने लगा जैसे कोई ग्रंथ लिख रहे हों। आंखों के सामने दृश्‍य बनने लगे। पत्‍तों की बातचीत प्रत्‍यक्ष कानों में पड़ने लगी। यह नित्‍य होने लगा तो एकबारगी तो वे डर गए कि कहीं उनको किसी मानसिक व्‍याधि ने तो नहीं घेर लिया है। उन्होंने लिखा है, ‘मेरे शरीर के संपूर्ण जीवकोष कल्पना के वशीभूत हो गए और मैंने कहा–‘नाचो अम्बपाली (उपन्यास की नायिका) और अम्बपाली नाची। मैंने अपनी आंखों से उसे नील गगन में चंद्रमा के उज्ज्वल आलोक में नाचते देखा। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे मैं भी आकाश में उसके निकट पहुंच गया हूं।...फिर...एकाएक... वेग से नीचे आ गिरा।...मैं दृढ़तापूर्वक कहता हूं कि मैंने स्वप्न नहीं देखा था। मैंने जो कुछ देखा- जागते हुए देखा, सब सत्य। उस समय रात्रि के दो बजे थे।... मैंने तुरंत उठकर उस नृत्य का वर्णन लिखा, जिसका संशोधित रूप ‘वैशाली की नगरवधू’ में कलमबद्ध है।’ उनके अनुसार वे यह उपन्‍यास लिखते थे तो उनको महसूस होता था कि आकाश से दो नेत्र उनके कंधों के पीछे से हर अक्षर को पढ़ रहे हैं।

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वर्ष 1891 में 26 अगस्त को उ.प्र. के बुलन्दशहर जिले के चांदोख गांव में पिता केशवराम वर्मा के घर माता नन्हीं देवी की कोख से जन्म हुआ तो उनका नाम चतुर्भुज रखा गया था। आरंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने 1915 में आयुर्वेदाचार्य व संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी। फिर आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में कैरियर आरंभ करने से पहले कुछ वक्त तक एक धर्मार्थ औषधालय में 25 रुपये माह पर नौकरी की। बाद में वे डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर में आयुर्वेद के प्राध्यापक नियुक्त हो गये थे, लेकिन प्रबंधन से खटपट के चलते कुछ ही सालों बाद इस्तीफा दे दिया।

आयुर्वेदाचार्य के तौर पर उनको अनेक तत्कालीन राजे-महाराजाओं, महामना मदनमोहन मालवीय व बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे स्वतंत्रता संग्राम के नायकों और हरिवंश राय बच्‍चन जैसे साहित्यकारों का उपचार करने का अवसर भी मिला था।

आलोचकों के अनुसार भले ही आचार्य 'वैशाली की नगरवधू' को अपना सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बता गये हैं लेकिन उनकी ‘सोमनाथ’ और ‘वयं रक्षाम:’ जैसी औपन्यासिक कृतियों की चर्चा के बगैर उनकी रचनाओं का मूल्यांकन अधूरा है। ‘सोमनाथ’ के केंद्र में सोमनाथ की ऐतिहासिक लूट और पुननिर्माण की गाथा है जबकि ‘वयं रक्षाम:’ का केंद्रीय पात्र राक्षसराज रावण है। यों, उनके खाते में आत्मदाह, बहते आँसू, दो किनारे, नरमेध, अपराजिता, बगुला के पंख, मोती, पूर्णाहुति, रक्त की प्यास, आलमगीर, लाल पानी, सह्याद्रि की चट्टानें, हरण निमंत्रण, सोना और ख़ून (चार खंड) जैसे अन्य उपन्यास भी हैं। उन्होंने आयुर्वेद पर आधारित लगभग एक दर्जन ग्रंथों का लेखन भी किया, जिनमें आरोग्यशास्त्र, स्त्रियों की चिकित्सा, योग चिकित्‍सा, नीरोग रहने के सरल उपाय और सुगम चिकित्‍सा आदि प्रमुख हैं।

1936 में उन्होंने उस वक्त आयुर्वेद चिकित्सा की अपनी जमी जमाई प्रैक्टिस छोड़ दी थी, जब उन्हें उससे महीने में तीन हजार रुपए तक की आय हो जाती थी। उन दिनों यह बहुत बड़ी रकम थी। तिस पर उनकी व्यस्तता इतनी थी कि पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसे वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानियों को भी उनका परामर्श पाने के लिए कई-कई दिन प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। लेकिन बाद में साहित्य और आयुर्वेद दोनों में से एक को चुनने का वक्त आया तो उन्होंने एक झटके में साहित्य को चुन लिया । वर्ष 1909 से 1948 के चार दशकों में उन्होंने अपने निजी जीवन में अनेक उतार-चढ़ावों के बावजूद 84 छोटी-बड़ी पुस्तकें और पत्रिकाओं के लिए सैकड़ों लेख लिखे थे।

उन्होंने अनेक कहानियों व गद्य काव्य और धर्म, राजनीति, इतिहास व समाजशास्त्र आदि विषयों पर भरपूर लेखन भी किया है। इतना ही नहीं, नाटक, एकांकी, आत्मकथा जैसी विधाओं में भी अपना योगदान किया है।

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