सुरेश सेठ
चौंतीस वर्ष बाद भारत की नयी शिक्षा नीति घोषित हो गयी है। यह शिक्षा नीति एक नयी शिक्षण संस्कृति की स्थापना का आग्रह कर रही है, जिससे दीक्षित स्नातक लार्ड मैकाले से प्रेरित शिक्षा संस्कृति से प्राप्त सफेद कॉलर वाले बाबू बनने की इच्छा और आकांक्षाओं के घेरे से बाहर आ सकें। पराधीन भारत में देसी नौजवानों को जो शिक्षा का लिबास पहनाया गया, वह उद्यमहीन बाबूगिरी का था। बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाली एक मध्यवर्गीय मानसिकता का था, जिसमें भारत की आधी आबादी उसकी कार्यशील युवा पीढ़ी किसी नव उन्मेषी राह पर नहीं चलना चाहती थी। वहां सुबह दस से पांच तक चलने वाली एक समतल जिंदगी थी, जिसमें नयी जमीन तोड़कर नया क्षितिज हासिल करने का कोई आग्रह नहीं था।
स्वाधीनता के उपरांत सन् 1986 में इसकी शिक्षा नीति ने आधारभूत शिक्षण की घोषणा से परिवर्तन का एक रूप धरा। लेकिन देश के नवशिक्षित मनचाही राहों पर जाने के लिए व्याकुल नहीं हो पाये। उनका तब भी आकर्षण तीन रास्तों में से एक का चुनाव था। या डाक्टर बनो या इंजीनियर या वकील। इससे जिस पेशेवर शिक्षण संस्कृति का जन्म हुआ, उससे उसके उन्हीं पेशों के आलीशान शिक्षण संस्थान यहां खुले, जहां हर महत्वाकांक्षी परिवार अपने लाड़लों को इन्हीं में से किसी एक रास्ते पर डालने के लिए प्रयासरत रहता।
यह सही है कि इस बीच अंतरिक्ष को खंगालने और उसके ग्रहों की थाह लेने के लिए ‘इसरो’ का जन्म और विकास इसी भारत में हुआ। इस संस्थान ने अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों से भारत का झंडा विश्व भर में बुलंद किया। लेकिन ऐसे संस्थान और इनमें जुटी युवा शक्ति मात्र एक अपवाद रही। पेशेवर शिक्षा के इन रास्तों पर अभी तक उसी मध्यवर्गीय चिन्तन का बोलबाला रहा, जो उद्यमी रास्ते को नकार कर अपनी शिक्षा से उसी सुरक्षित नौकरी को चाहता था, जिसमें किसी अप्रत्याशित मोड़ की गुंजायश न हो।
परिणाम यह हुआ कि नौकरियां कम, चाहवान ज्यादा। भारत जैसे कृषक समाज का जीने का ढंग था, कृषि वह एक धंधा बन गया। लाभ-हानि की गिनती होने लगी। गांवों की उभरती हुई युवा पीढ़ी अपने पुरखों के विरासती काम का आधुनिकीकरण या उसे वैज्ञानिक कलेवर देने के स्थान पर महानगरों की ओर, या वहां से निराश होकर विदेशों की ओर चल निकली। हर बरस कम से कम डेढ़ करोड़ नौजवान गांवों से अपनी धरती का मोह त्याग कर महानगरों या विदेशी धरती की ओर निकल रहे थे। जब कोरोना महामारी के प्रकोप ने विश्व के साथ भारत पर भी कुठाराघात किया तो तेरह करोड़ ऐसे प्रवासी श्रमिक थे, जो आर्थिक सुरक्षा के नाम पर भारत के महानगरों में दोयम दर्जे के नागरिकों का जीवन जी रहे थे। इनमें शामिल थी भारत की मध्यवर्गीय पीढ़ी जो बाबूगिरी जैसी नौकरियों में अपना जीवन तलाश रही थी।
कोरोना महामारी के भय ने सुरक्षित जिंदगी की गिनती उलटफेर कर दी। इसका सामना करने के लिए देश में लॉकडाउन के सिवा कोई और चारा नहीं बचा। विदेशों में भी अपना सुनहरा जीवन तलाशते प्रवासी भारतीयों के पैरों के नीचे से सुरक्षित धंधे की धरती उखड़ गयी। करोड़ों छोटे अनियमित कामों से लाचार हो गये लोग अपने गांवों की ओर और विदेशी धरती से उखड़े लोग, अपने देश की ओर चले कि शायद इस महामारी में उनके लिए कोई वैकल्पिक जीवन हो।
लेकिन इन मुश्किल दिनों ने सिखा दिया है कि चौंतीस साल पुरानी इस शिक्षा प्रणाली ने उनके लिए किसी वैकल्पिक कार्य संस्कृति की गुंजायश न शहरों में छोड़ी, न गांवों में। बेरोजगारी तो पहले ही इस देश में एक विकट समस्या थी। अब बेकारी के आंकड़े कुछ इस कदर बढ़े जो देश ने पिछले 45 बरस में भी न देखे थे। कुल जनसंख्या का बड़ा कर्मशील वर्ग तो बेकार हो ही गया। जो उखड़कर गांवों की ओर गये और फिर वहां कोई वैकल्पिक आधार न पाकर फिर शहरों की ओर आये। इन उखड़े हुए लोगों पर जो बीता सो बीता, परन्तु इनकी नवसन्तति एकांगी शिक्षा से दीक्षित न रह जाये, इसलिए अब देश की नयी पौध के बहुपक्षीय व्यक्तित्व के विकास के लिए एक नयी शिक्षण संस्कृति के विकास की घोषणा इस नई शिक्षा नीति में हुई है।
यह नीति शुरू से ही रोजगारपरक होगी। यह तीन वर्गों में न बांटकर पांच वर्गों में बांटेगी। कला संकाय और विज्ञान संकायों की घेराबंदी को तोड़कर इन्हें किसी शिक्षा से महरूम नहीं रखा जायेगा। शुरू से अपनी मिट्टी से जुड़िये। अपनी शिक्षा का शुरुआती परिचय अपनी मातृभाषा में लीजिए। फिर कला और विज्ञान विषयों की मिश्रित जानकारी लेकर अपनी शिक्षा को एकांगी न रखिये। इसके बाद जहां आपकी विशेषज्ञता हो, उसी रास्ते पर निकल जाइए। यह नई शिक्षण संस्कृति लोचशील रहेगी। जीवन की आवश्यकताओं और दबावों के अनुसार कभी भी इसे किसी डिप्लोमा अथवा मध्यवर्ती डिग्री तक प्राप्त करके छोड़ दीजिये। फिर जब आर्थिक परिस्थितियां राहत दें, इसे आगे चलकर पूर्ण कर लीजिये। जिंदगी जीने और शिक्षा प्राप्ति की ललक को साथ चलाने का एक नया और अनूठा प्रयास है यह नव शिक्षण संस्कृति।
कोरोना महामारी के इन कठिन दिनों में जहां सामाजिक अन्तर रखना एक बाध्यता बन गयी है, अब ऑनलाइन, इंटरनेट से शिक्षा देना और परीक्षा ले छात्रों का मूल्यांकन करना एक बाध्यता बन रही है। भारत के प्रधानमंत्री ने डिजिटल गांव का एक और सपना देश की युवा पीढ़ी को दिखाया है। देश के तीन लाख गांवों को डिजिटल कर देने का लक्ष्य अगले दो साल के लिए रख दिया है।
सामाजिक अन्तर रखकर इस नव शिक्षण संस्कृति के उदाहरण अतीत में झांकों तो मिल जाते हैं। महाभारत काल में गुरु द्रोण ने कौरवों और पांडवों को तो परंपरागत शिक्षा के साथ धनुर्विद्या में पारंगत किया था लेकिन एकलव्य को क्यों भूल रहे हैं? जिसने द्रोण की मूर्ति से ही वह शिक्षा हासिल कर ली।
इस समय तो देश के पांच से लेकर पैंतीस तक के आयु वर्ग के विद्यार्थियों में से बड़ी आबादी ऐसी है, जिन्हें इस बात की जानकारी ही नहीं कि इस इंटरनेट दुनिया को कैसे इस्तेमाल करना है? फिर यह एक खर्चीला माध्यम है। जिन छात्रों को मुफ्त शिक्षा, मिड डे मील मिलता है, वे भी सौ प्रतिशत तक स्कूली स्तर की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। इससे वे क्या करेंगे? फिर देश में इस ऑनलाइन एकलव्य शिक्षण पद्धति का विकास होगा तो कैसे?
शीर्ष अदालत ने चेताया है कि कोरोना के साथ जीना सीखना होगा। इसलिए शिक्षण संस्थाओं को मौजूदा शिक्षा व्यवस्था और अंतिम परीक्षाओं की अनिवार्यता के साथ तो जीना ही होगा। ऑनलाइन शिक्षण रहेगा लेकिन उसके सहयोगी के रूप में। यूं इस नव शिक्षण संस्कृति के विस्तृत होते क्षितिज की सार्थक परिकल्पना हो सकती है।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।