भूपेंद्र सिंह हुड्डा
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मुद्दे पर किसानों को फिर से आंदोलन के रास्ते पर देखना वास्तव में दुखद है। किसानों ने केंद्र सरकार द्वारा एमएसपी की कानूनी गारंटी न दिये जाने के खिलाफ राष्ट्रव्यापी ‘विश्वासघात सम्मेलन’ और 31 जुलाई को देशभर में ‘चक्का जाम’ का आह्वान किया है। किसानों के साथ यह रवैया पीड़ादायक है। सरकार के वादे के बाद ही आंदोलनकारी किसान 18 महीने के लम्बे आंदोलन को ख़त्म करने पर सहमत हुए थे, जिसमें सरकार ने एमएसपी को कानूनी गारंटी के लिए एक कमेटी बनाने का लिखित आश्वासन दिया था पर सरकार ने उसे पूरा नहीं किया।
यूं तो हर साल सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित करती है लेकिन सरकारी एजेंसियां केवल लगभग 6 प्रतिशत किसानों से धान और गेहूं तक ही खरीद सीमित रखती हैं। देश के करीब 94 फीसदी किसानों को एमएसपी का फायदा नहीं मिल पाता है। किसानों के हितों पर सरकार का रुख ऐसा हैै कि पहले 10 मिलियन टन से अधिक गेहूं का अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करवा दिया व फिर गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। निर्यात से किसानों को फायदा नहीं मिला बल्कि इसे चंद निर्यातकों ने हड़प लिया। गेहूं के निर्यात में हुई इस गड़बड़ी ने हमारे देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।
सरकार ने जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के गेहूं और चावल आवंटन के अनुपात को भी बदल दिया है। 10 राज्यों के गेहूं आवंटन में भारी कटौती की गई है। निर्यात के कारण केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक 2008 के स्तर से भी नीचे चला गया है, जो पिछले 15 वर्षों में सबसे कम है। पीडीएस के 80 करोड़ प्रत्यक्ष लाभार्थियों की ओर देखा जाए तो इस संकट के स्तर का अंदाजा लगता है। रबी सीजन 2021-22 के दौरान केंद्रीय पूल के लिए 43.34 मिलियन टन गेहूं की खरीद की गई थी। मौजूदा सीजन में 50 मिलियन टन खरीद के लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ 18.73 मिलियन टन ही खरीद हुई, जो पिछले सीजन की तुलना में 56.7 फीसदी कम है।
चंद निर्यातकों के लिए हितकारी गेहूं निर्यात नीति को देखना वास्तव में पीड़ादायक रहा, जिसके चलते स्थानीय अनाज मंडियों में गेहूं की कीमतें 2075 रुपये प्रति क्विंटल की एमएसपी से भी कम हो गईं। जबकि, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं की कीमतें 3500 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गई थीं। मौजूदा खरीफ सीजन में किसानों को मूंग और मक्का का एमएसपी नहीं मिल रहा। अन्नदाता के साथ ये रवैया जायज़ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि देश की खाद्य सुरक्षा मिशन की बुनियाद ही किसान हैं।
मेरा मानना है कि केंद्र सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी के वादे को पूरा करे और आज से शुरू हुए संसद के मानसून सत्र में विधेयक पेश करे। एमएसपी से कम दर पर कृषि उपज खरीदना कानूनन दंडनीय होना चाहिए। एमएसपी की गणना सी2 फार्मूले के आधार पर और डॉ़ एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों के अनुरूप होनी चाहिए। वहीं एमएसपी पर सरकार की ओर से कोई जवाबदेही न होना और भी ज्यादा परेशानी कारक है।
दरअसल, किसानों से संबंधित मुद्दों पर सरकार की ज़ुबान में एकरूपता नहीं है। किसानों की आय बढ़ाने वाली प्रमुख योजनाएं औंधे मुंह गिरी हैं। साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा भी जुमला साबित हो गया है। क्या अब किसानों के लिए तय सारे महान लक्ष्यों को अगले 25 वर्षों में पूरा किया जाएगा, जिसे सरकार ‘अमृत काल’ कह रही है। किसानों से जुड़े असल मुद्दों को ईमानदारी और पारदर्शिता से हल नहीं करने से ‘आबरा का डाबरा’ से ज्यादा और कुछ नहीं होगा।
किसानों की आमदनी दोगुनी करने पर बनी सरकारी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 2015-16 में किसान परिवार की न्यूनतम आय 8,059 रुपये प्रति माह थी। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए इसे वास्तविक रूप में दोगुना किया जाना था। ऐसे में 2022 तक हर किसान परिवार की आय कम से कम 21,146 रुपये प्रति माह होनी चाहिए थी। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के आंकड़ों के अनुसार 2018-19 में किसान परिवार की अनुमानित मासिक आय सिर्फ 10,218 रुपये प्रति माह ही थी। इसके उलट, पिछले कुछ वर्षों के दौरान डीजल, खाद, कीटनाशक जैसे कृषि इनपुट की लागत लगभग दोगुनी हो गई। यानी किसान की आमदनी नहीं बल्कि खर्चा दोगुना हो गया है।
नीति आयोग के एक सदस्य के हालिया बयानों को देखा जाए तो सरकार एमएसपी की कानूनी गारंटी देने के पक्ष में नहीं लगती है। सरकार को मौजूदा एमएसपी योजना का विस्तार करके उसे और मजबूत करना होगा, साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि एमएसपी व्यवस्था के तहत सभी 23 फसलों पर ज्यादा से ज्यादा किसानों को एमएसपी का फायदा मिले। किसानों को इसलिए एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग करनी पड़ रही है क्योंकि एमएसपी के प्रति सरकारों की प्रतिबद्धता का अभाव है। यही कारण है कि किसानों की मांग जायज है और उसे हर वर्ग का समर्थन हासिल है। 2004 में गेहूं का एमएसपी 580 रुपये प्रति क्विंटल था जो 2014 तक बढ़कर 1,310 रुपये पहुंच गया, ये सालाना 12.2 प्रतिशत औसत वृद्धि थी। जबकि भाजपा सरकार के आठ साल में गेहूं की एमएसपी में औसतन 5.5 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी हुई। वहीं यूपीए के 2004 से 2014 के कार्यकाल में धान के एमएसपी में 14 प्रतिशत की वृद्धि मौजूदा केंद्र सरकार के कार्यकाल में औसतन 6 प्रतिशत पर अटक गई।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘बाकी सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन कृषि नहीं’ । उनकी दूरदृष्टि, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ से मिली प्रेरणा, डॉ. रामधन सिंह, एमएस स्वामीनाथन, डॉ़ वर्गीज कुरियन जैसे कृषि वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत और हमारे किसानों व खेत मजदूरों के अथक परिश्रम ने भुखमरी और अनाज की कमी झेल रहे देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया।
मौजूदा कृषि संकट को हम भली-भांति समझते हैं। किसानों की आय बढ़ाने, गरीबी मिटाने और किसानों-खेत मजदूरों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए मानवीय और संवेदनशील दृष्टिकोण के साथ कृषि संकट को हल करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। कृषि केवल एक व्यवसाय या आर्थिक गतिविधि नहीं है बल्कि देश की बड़ी आबादी के लिए जीवन जीने की एक पारंपरिक पद्धति है। यह खेत और फसलों से कहीं अधिक है। यह किसान परिवार की विरासत भी है और उनका भविष्य भी है।
मेरा मानना है कि कृषि सुधार और नीतियां किसानों की सहमति से और किसान पर ही केंद्रित होनी चाहिए। कृषि उत्पाद खरीदने के लिए उपभोक्ता जितना भुगतान कर रहा है उसका कम से कम 50 प्रतिशत किसान को मिले, यह जरूरी है। इस मुद्दे को विस्तार से देखने के लिए इसके व्यापक अध्ययन की भी जरूरत है। किसानों को संकट में डालने वाले मुद्दों के समाधान के लिए देश को नीतियों पर व्यापक पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
लेखक हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री हैं।