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आत्मघाती नींद से जगाने हेतु मानसूनी चेतावनी

नि:संदेह, आपदा लाने वाले पैटर्न जलवायु परिवर्तन से जुड़े हैं जिसमें मानवीय गतिविधियां भी जिम्मेदार हैं। गलत नीतियों के चलते कंक्रीटीकरण, नदियों की राह पर अतिक्रमण व वन कटान जारी है। जिससे बाढ़, जनहानि व बुनियादी ढांचे को क्षति बढ़...
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नि:संदेह, आपदा लाने वाले पैटर्न जलवायु परिवर्तन से जुड़े हैं जिसमें मानवीय गतिविधियां भी जिम्मेदार हैं। गलत नीतियों के चलते कंक्रीटीकरण, नदियों की राह पर अतिक्रमण व वन कटान जारी है। जिससे बाढ़, जनहानि व बुनियादी ढांचे को क्षति बढ़ रही है। इस विनाश पर अंकुश लगाने को नीतियों में जलवायु परिवर्तन चिंताओं को जगह, इंफ्रास्ट्रक्चर के जलवायु ऑडिट व पर्यावरणीय प्रभाव आकलन व्यवस्था की समीक्षा जरूरी हैै।

दक्षिण-पश्चिम मानसून ने देश के कई हिस्सों में तबाही मचा रखी है। अब तक मानसूनी बारिश सामान्य से अधिक रही है और चरम मौसम संबंधी अनेक घटनाएं देखने को मिली हैं। पहले पहाड़ी सूबे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू और कश्मीर सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए तो अब पंजाब में भी भारी बाढ़ की स्थिति बिगड़ती जा रही है, साथ ही राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ इलाके भी प्रभावित हैं। दक्षिणी राज्यों के कई शहरी और ग्रामीण इलाकों में भी भारी बारिश दर्ज की गई। बादल फटने, बाढ़, भूमि धंसने और भूस्खलन से जान-माल का काफी नुकसान हुआ है। इसी तरह, निजी संपत्ति और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे को भी भारी क्षति हुई। भारी बारिश के कारण पुल ढह गए हैं, कुछ बांध टूट गए, वहीं नए बने कुछ राष्ट्रीय राजमार्ग भी बह गए और जलविद्युत परियोजनाओं को भारी नुकसान पहुंचने की सूचनाएं हैं। महत्वपूर्ण परिवहन संपर्क बाधित हुए हैं और फसलों की भारी तबाही की आशंका है।

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की भविष्यवाणी है कि यह सिलसिला अभी जारी रहेगा। सितंबर माह में भी देशभर में मासिक औसत वर्षा सामान्य से अधिक रहने की संभावना है। जिससे बाढ़, भूस्खलन, सड़क परिवहन में व्यवधान, जन स्वास्थ्य चुनौतियां और पारिस्थितिक क्षति जैसी मुश्किलें पैदा होने जा रही हैं। यह वैज्ञानिक रूप से स्थापित है कि वैश्विक मौसम बदलाव से भारतीय मानसून प्रभावित हुआ है। अध्ययन बताते हैं कि 1950 के दशक के बाद से अधिकांश थलीय क्षेत्रों में भारी वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है, और इसकी एक बड़ी वजह मानव-जनित जलवायु बदलाव भी है। अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पैनल (आईपीसीसी) द्वारा जारी आवधिक आकलन में इन निष्कर्षों का संश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।

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मौसम विज्ञान विशेषज्ञ मानसून की बढ़ी तीव्रता के पीछे हिंद महासागर के ऊपर वायुमंडलीय नमी के अधिक जमाव को कारक मान रहे हैं, जो आगे, समुद्र सतह के तापमान में बढ़ोतरी के कारण बने अधिक वाष्पीकरण और साथ ही भूमि-समुद्र तापीय विषमता में इजाफे की वजह से यह जमाव ओर सघन हो रहा है। जैसे-जैसे मानसून विशालकाय वर्षा बादल समुद्र से लेकर, दक्षिण-पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ता जाता है वायुमंडलीय नमी का बढ़ा स्तर और ज्यादा नमी वाला आवरण पैदा करता जाता है, जिससे वृष्टि स्तर में और वृद्धि होती है। तो, क्या जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए हम आसान दोष जलवायु परिवर्तन पर मढ़ते जाएं और पर्यावरण, शहरी नियोजन, विकास, जल संसाधन, कृषि आदि से संबंधित अपनी सार्वजनिक नीतियों को ‘पहले की भांति जारी’ रखें? बिलकुल नहीं।

पहला, जलवायु परिवर्तन अपने आप में - जैसा कि आईपीसीसी द्वारा परिभाषित किया गया है - मानवीय गतिविधियों से पैदा घटना है। मसलन, मानसून के प्रमुख संचालक अवयवों में से एक - गर्मियों में भूमि और समुद्र के बीच तापमान में अंतर- में बदलाव हो रहा है, जो मानवीय गतिविधियों से पैदा अत्यधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण है।

जहां जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमीय घटनाएं (मानसून में मूसलाधार बारिश और गर्मियों में प्रचंड गर्मी) बढ़ रही हैं वहीं गलत सार्वजनिक नीतियों मसलन, कंक्रीटीकरण, नदियों की राह पर अतिक्रमण, पहाड़ियों का विनाश, वन कटाई आदि के कारण उनके प्रभाव के रूप का बाढ़, जनहानि, बुनियादी ढांचे को क्षति आदि बढ़ रहे हैं। इसका समाधान जलवायु परिवर्तन और दोषपूर्ण विकास नीतियों पर एक साथ काम करने में है। सबसे पहले, हमें सार्वजनिक नीतियों को जलवायु परिवर्तन के अनुरूप ढालना होगा। दशकों से हम यह कहते रहे हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इस पर कार्रवाई होती बहुत कम दिखाई देती है। राष्ट्रीय और राज्यों की जलवायु परिवर्तन कार्य योजनाओं की प्रगति, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने तक ही सीमित होकर रह जाती है।

दरअसल, सभी सार्वजनिक नीतियों में जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं को मुख्यधारा बनाए जाने की। मसलन, पहाड़ों में नए जलविद्युत संयंत्र, राजमार्ग या सुरंग परियोजना का प्रस्ताव मंजूर करते वक्त अथवा निर्माण करते समय, हमें न केवल तात्कालिक पर्यावरणीय चिंताओं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न वर्तमान एवं भविष्य के जोखिमों का भी ध्यान रखना चाहिए। यही बात मैदानी इलाकों में विकास परियोजनाओं पर भी लागू होती है, जहां बिना सोचे-समझे कंक्रीटीकरण, झीलों और जलाशयों के विनाश के कारण शहरी बाढ़ एक नियमित घटना बन गई है।

दूसरा, हम पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) व्यवस्था की गहन समीक्षा करें। वर्षों से इसके अनिवार्य प्रावधानों को दरकिनार करने या इसे पूरी तरह से समाप्त करने के चतुर तरीके ईजाद किए गए हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण चार धाम राजमार्ग परियोजना है। संबंधित सरकारी एजेंसियों ने बृहद ईआईए नियमों पर अमल से बचने को 825 किमी लंबी परियोजना को 53 छोटे भागों में विभाजित कर दिया, जिससे प्रत्येक मार्ग की लंबाई 100 किलोमीटर से कम रह गई। इस तरह, वे पर्यावरणीय सुरक्षा प्रावधानों का पालन करने से बच निकले, क्योंकि ईआईए 100 किमी से अधिक लंबी सड़क परियोजनाओं हेतु अनिवार्य है।

एक बड़ी परियोजना के इस तरह टुकड़े कर,पर्यावरणीय नियमों को दरकिनार करने को पर्यावरणविदों ने उजागर किया और सुप्रीमकोर्ट द्वारा नियुक्त समिति के समक्ष उठाया था। कुछ मामलों में, ईआईए मंज़ूरी के बिना शुरू की गई परियोजनाओं को नियमित करने के लिए पर्यावरणीय मंज़ूरी पिछली तारीखों से प्रभावी दिखाकर प्रदान कर दी गई। सुप्रीमकोर्ट ने मई माह में इस प्रथा को अवैध करार देकर खत्म कर दिया।

विशालकाय विकास परियोजनाओं में निहित पारिस्थितिक जोखिमों की जानबूझकर अनदेखी और ईआईए शर्तों के उल्लंघन के विनाशकारी परिणाम, विशेष रूप से हिमालय में, अब साफ दिखाई देने लगे हैं। इसलिए, हमें न केवल ईआईए व्यवस्था पर पुनर्विचार करने और इसे अधिक कठोर बनाने की आवश्यकता है, बल्कि इसमें उन जलवायु परिवर्तन जोखिमों को भी शामिल करना होगा जो किसी परियोजना के जीवनचक्र के दौरान पैदा हो सकते हैं। साथ ही उन्हें कम से कम करने के तरीके भी। परियोजनाओं को इस तरह डिजाइन किया जाना चाहिए कि भविष्य की जलवायु परिस्थितियों का बेहतर ढंग से सामना कर पाएं जिससे संभावित हानि व व्यवधान न्यूनतम हो सके। अनुपालन की निगरानी हेतु एक स्वतंत्र व्यवस्था विकसित की जाए।

तीसरा, हमें सभी मौजूदा बुनियादी ढांचों— जलविद्युत परियोजनाएं, राष्ट्रीय राजमार्ग, सड़क एवं रेल पुल, हवाई अड्डों - का ‘जलवायु ऑडिट’ करने की जरूरत है - वित्तीय दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि यह जांच करने के लिए कि क्या वे जलवायु-परिवर्तन अनुरूप हैं। ईआईए प्रणाली के लागू होने से पहले बने बुनियादी ढांचे के लिए यह और भी जरूरी है। जिन परियोजनाओं को पर्यावरण संबंधी मंज़ूरी मिल चुकी है, उनका ऑडिट उनकी मंज़ूरी के समय निर्धारित शर्तों के अनुपालन को लेकर हो। ऑडिट उपरांत, महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे को जलवायु-परिवर्तन-रोधी बनाने को आवश्यक उपाय शुरू किए जाएं। बतौर पहला कदम, पर्यावरण मंत्रालय को एक मज़बूत जलवायु ऑडिट तंत्र और यथेष्ट मानक, प्रोटोकॉल और उपकरण विकसित करने चाहिए ताकि यह आकलन किया जा सके कि क्या मौजूदा बुनियादी ढांचा बदलती जलवायु का सामना कर सकता है या नहीं। तत्पश्चात, एक ठोस और समन्वित, बहु-क्षेत्रीय राष्ट्रीय प्रयास शुरू किया जाए।

लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।

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