शमीम शर्मा
एक सुप्रसिद्ध फोटोग्राफर ने अपनी दुकान के बाहर लगे साइनबोर्ड पर लिखवा रखा था :-
40 रुपये में – आप जैसे हैं, हुबहू वैसी ही फोटो खिंचवायें।
50 रुपये में – आप जैसा सोचते हैं, वैसी फोटो खिंचवायें।
60 रुपये में – आप जैसा लोगों को दिखना चाहते हैं, वैसी फोटो खिंचवायें।
कहते हैं कि बाद में उस फोटोग्राफर ने अपने संस्मरणों में लिखा कि जीवनभर उसने फोटो खींचने का काम किया पर किसी ने 40 रुपये वाली फोटो नहीं खिंचवायी। सबसे अधिक संख्या उन लोगों की रही जिन्होंने 60 रुपये वाली फोटो खिंचवायी।
बस जिंदगी भी इस फोटोग्राफर के संस्मरण जैसी है। जीवन की हकीकत यही है कि हम हमेशा दिखावे के लिये जीते हैं। हमने कभी 40 रुपये वाली यानी कि सच्ची-सीधी जिंदगी जी ही नहीं। यह बात भी माननी पड़ेगी कि सादगी में लोग किसी को चैन से जीने भी नहीं देते। मेरे ख्याल में सादगी का दौर कभी आया ही नहीं।
दिखावे की जिंदगी जीने में बहुत जोर लगता है जबकि सहज-सरल जीना बहुत ही अनायास है, जिसके लिये कोई प्रयास करना ही नहीं पड़ता। मेरी एक सहेली है जो बिना लिपस्टिक लगाये घर से बाहर ही नहीं निकलती। पर उसका यह भी कहना है कि किसी भी समारोह में सजधज कर जाने के बाद जब वह घर लौटती है और सारा मेकअप उतार कर मुंह धोती है तो परम सुख मिलता है। सच तो यह है कि जीने की तैयारी में ही हम जिंदगी गुजार देते हैं। चेहरे पर चेहरे और मुखौटों पर मुखौटे तान कर हम इतने बहुरूपिया हो गये हैं कि अपनी असलियत को हम भूल ही चुके हैं। परेशान वे भी कम नहीं होते जो उम्मीदों की बजाय जिद पर जीते हैं।
जिस दिन सादगी शृंगार हो जायेगी उस दिन आईने की हार हो जायेगी। पर आज तक की सच्चाई यह है कि बड़े तो बड़े, बच्चे भी आईने के सामने आड़े-तिरछे होकर स्वयं को पांच-सात बार निहार कर आत्ममुग्ध होते हैं। गुलजार ने कहा है—आईना देखकर तसल्ली हुई कि हमको इस घर में जानता है कोई। कहावत है कि कांच पर पारा चढ़ाओ तो आईना बनता है और किसी को आईना दिखा दो तो पारा चढ़ जाता है।
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एक बर की बात है अक नत्थू लाड़ लड़ाते होये रामप्यारी तैं बोल्या—मैं तेरे गैलकसूता प्यार करूं हूं। रामप्यारी भड़कती होयी सी बोल्ली—तो मैं कोनीं करूं के? मैं तो तेरे खात्तर पूरी दुनिया गैल भिड़ सकूं हूं। नत्थू बोल्या—पर फेर सारी हांण तैं मेरे गैल क्यूं सिरफोड़ी करै है? रामप्यारी का जवाब था—तू ए तो मेरी दुनिया है।