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तन में मन या मन में तन!

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ये मन भी न, पल में इतना वृहद कि समेट लेता है अपने में सारे तन को, और हवा हो जाता है जाने कहां-कहां। तन का जीव इसमें समाया उतराता उकताता जैसे हिचकोले सा खाता, भय और विस्मय से भरा, बेबस। मन उसे लेकर वहां घुस जाता है जहां सुई भी ना घुस पाये, बेपरवाह-सा पसर जाता है। बेचारा तन का जीव सिमटा सा अपने आकार को संकुचित करता, समायोजित करता रहता है बामुश्किल स्वयं को इसी के अनुरूप वहां, जहां ये पसर चुका होता है सबके बीच। लाख कोशिश करके भी ये समेटा नहीं जाता, जिद्दी बच्चे सा अड़ जाता है। अनेकानेक सवाल और तर्क करता है समझाने के हर प्रयास पर और अड़ा ही रहता है तब तक वहीं, जब तक भर ना जाये। फिर भरते ही उचटकर खिसक लेता वहां से तन की परवाह किए बगैर। इसमें निर्लिप्त बेचारा तन फिर से खिंचता भागता सा चला आ रहा होता है इसके साथ, कुछ लेकर तो कुछ खोकर अनमना सा अपने आप से असंतुष्ट और बेबस।

हां! निरा बेबस होता है ऐसा तन जो मन के अधीन हो। ये मन वृहद् से वृहद्तम रूप लिए सब कुछ अपने में समेटकर करता रहता है मनमानी। वहीं इसके विपरीत कभी ये पलभर में सिकुड़कर या सिमटकर अत्यंत सूक्ष्म रूप में छिपकर बैठ जाता है तन के भीतर ही कहीं। इसके बैठते भी तो फिर वही निरा व बेबस हो जाता है तन क्योंकि ये वृहद रूप में जितना प्रभावशाली है उतना ही सूक्ष्म रूप में भी। ऐसा लगता है जैसे इसके उस सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम बिंदु स्वरूप में सिमट रही हों सारे शरीर की समस्त नस नाड़ियां। अजीब संकुचन के साथ। जितना प्रयास करो ये उतने ही भाव खाता है। अति से भी अतिशय भावों से भरता जाता है। भय, विस्मय, शंका डर, क्रोध, प्रेम, ममता, मोह आदि की अतिशयता से लेकर लोभ, दुख, चिड़चिड़ाहट, वासना, ईर्ष्या, घृणा, अहंकार, जुनून आदि भावों की बहुलता से जीवन को दूभर कर देता है। हिम्मत करके एक बार छोड़ दें इसे इसके हाल पर तो ये अपने सारे दीर्घ लघु रूपों को छोड़ बैठ जाता है बराबर में साथी या समकक्ष सा बनकर। ताकि फिर से इस पर भरोसा करें, इसे मानें और ये पुनः पुनः रच सके अपनी माया। परन्तु इसे इसके हाल पर छोड़ना इतना भी आसान कहां।

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समझ ही कहां आता है कि कब ये तन के भीतर और बाहर अपना स्थापित्व जमा बैठा! ये तन में है या तन इसमें? इसे वश में करने के लिए तो शायद इसके ही अन्दर घुसना होगा। सच में बड़ा मायावी है ये मन। धन्य हैं वे जो साध पाते हैं इसे अपने आत्म चिंतन से, ध्यान साधना से, एकाग्रता बढ़ाकर सिद्ध करके निर्विकार और निर्विचार कर प्राप्त करते है आत्मोन्नति। सच में धन्य हैं वे ...।

साभार : एक नयी सोच डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

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