सपनाें के सौदागर, वादे झोली भर-भर
अब हर पार्टी अपना घोषणापत्र नहीं, ‘स्क्रीनप्ले’ लिखवाती है। जो वादा जितना सिनेमाई होगा, वह उतना ही वायरल होगा।
देश हमारा कृषि प्रधान नहीं रहा, अब यह चुनाव प्रधान हो गया है। चुनाव कहीं होने वाले हैं, कहीं तैयारी चल रही है, अगले साल हो जायेंगे।
अबकी बार चुनावी मंचों पर जो स्क्रिप्ट चल रही है, वह किसी चुनाव आयोग की नहीं, बल्कि बॉलीवुड के बड़े प्रोडक्शन हाउस की लगती है। हर पार्टी का घोषणापत्र अब ‘ड्रीम गर्ल’ और ‘रॉकी और रानी की चुनावी कहानी’ बन गया है। मंच पर नेता नहीं उतरते— ‘हीरो’ उतरते हैं, पीछे ‘क्लाइमेक्स’ म्यूजिक बजता है, और जनता की तालियों के बीच वे घोषणा करते हैं—‘इस बार हर दीदी बनेगी करोड़पति, हर भैया बनेगा लखपति, और हर बेरोजगार को सरकारी नौकरी मिलेगी— वह भी वर्क फ्रॉम होम!’
जनता की आंखों में चमक आ जाती है—वो चमक वैसी ही होती है, जैसी कभी कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन के ‘लॉक किया जाए?’ पर आती थी। फर्क बस इतना है कि यहां लॉक तो होता है, पर राशि कभी खुलती नहीं।
अब हर पार्टी अपना घोषणापत्र नहीं, ‘स्क्रीनप्ले’ लिखवाती है। जो वादा जितना सिनेमाई होगा, वह उतना ही वायरल होगा। एक पार्टी ने घोषणा की कि हर गांव में आईपीएल टीम बनेगी, दूसरी ने कहा हर शहर में फ़िल्म सिटी खुलेगी, और तीसरी ने वादा किया कि हर परिवार में एक सरकारी अफसर और एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर जरूर होगा।
नेता हैं, नेती हैं-जो जनता को बता रही हैं — ‘अब मैं हर महिला को ‘करोड़पति दीदी’ बनाऊंगी।’ पीछे बैनर में उनका पोस्टर— साड़ी में, बगल में ईवीएम मशीन, और नीचे लिखा—‘दीदी का ड्रीम, सबको सौ अऱब की फ्री स्कीम।’
जनता मंच के नीचे खड़ी है— कोई सवाल नहीं, बस ताली और मोबाइल कैमरे। क्योंकि अब वोट इमोशन से नहीं, रील से बनता है। गांव की मिट्टी में अब चुनावी पोस्टर नहीं, हैशटैग बोए जाते हैंै। हर घोषणा में अब ‘इकोनॉमिक्स’ कम और ‘एंटरटेनमेंट’ ज़्यादा है।
अब नेता वही कहता है, जो जनता सुनना चाहती है।
और जनता वही सुनती है, जो ‘रील’ में अच्छा लगे।
और जब जनता ने पूछा — ‘भाई, पैसा कहां से आएगा?’
नेता मुस्कराए—‘भाई, देश बड़ा है, जज्बात उससे भी बड़े हैं।’
जज्बात जनता के पास पहुंच जाते हैं, पैसा नेताजी रख लेते हैं।
