गुरबचन जगत
जहां तक मुझे याद है, नवीनतम खबरें सुनने-पढ़ने का काफी शौक रहा है। जूनियर स्कूल के दिनों में भी चाव से अखबारें पढ़ा करता था। हम पुणे (तब पूना) में रहते थे और मैं क्षेत्रीय अखबार ‘फ्री प्रेस जरनल’ पढ़ा करता था। उन दिनों ऑल इंडिया रेडियो से रात 9 बजे की खबरें सुनना नित्यकर्म था, यह ऐसा अनुष्ठान था, जिसे मेरे पिताजी शायद ही छोड़ते थे। मैलेविले डि-मैलो की आवाज में इंग्लिश की और हिंदी में देवकीनंदन पांडे के स्वर में खबरें सुनना सुखद था। उच्चारण बहुत उम्दा-सटीक था, खबरों की सामग्री ठोस-स्पष्ट हुआ करती थी। खबरों के दौरान विशेषज्ञ की राय रूपी व्यवधान नहीं होता था। ऑल इंडिया रेडियो के अलावा बीबीसी या वॉयस ऑफ अमेरिका को सुनने का विकल्प था।
बड़े लोगों की ज्वलंत मुद्दों पर होने वाली बातचीत हम बच्चों के कानों में भी पड़ती थी, अनुशासन रखते हुए हम अपनी आवाज धीमी रखते थे। विभिन्न विषयों पर चर्चाएं हमें दुनियाभर की सैर करवा सुखद अनुभूति देती थी। उस दौर में राजनीति, साहित्य, कला, खेल जगत इत्यादि विषयों पर चर्चाएं होती थीं। संपादकीय पन्नों को पढ़कर हमें बहुत कुछ जानने को मिला। लेखकों में पत्रकारिता के धुरंधर जैसे कि फ्रैंक मोरेज, चलापति राजू, सीआर ईरानी, गिरिलाल जैन, खुशवंत सिंह इत्यादि थे। समसामयिक घटनाओं का सटीक विश्लेषण वाले लेख विषय को गहराई से समझने-मनन करने को प्रेरित करते थे। आगे पढ़ने-जानने की उत्कंठा भी जगाते थे।
कालांतर टेलीविजन के दौर में स्वदेशी चैनल ‘दूरदर्शन’ आया, जो कमोबेश ऑल इंडिया रेडियो का दृश्य-श्रव्य रूपांतरण था। हालांकि, खबरें ज्यादातर एकतरफा होती। फलत: दूरदर्शन का एकछत्र राज कमजोर हुआ और निजी चैनल आए। बाद में विदेशी चैनल भी पहुंचे। आज राष्ट्रीय स्तर के हिंदी- इंग्लिश चैनलों के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं और अंतर्राष्ट्रीय चैनल भी हैं।
विडंबना यह है कि अपवाद स्वरूप कुछेक ऑनलाइन वेबसाइटों और टीवी चैनलों को छोड़कर ज्यादातर अतिरंजित खबरें प्रसारित कर रहे हैं। पहले मंत्र था—खबरें सही हों, आकलन आप जैसा चाहे करें। यह बात प्रिंट मीडिया और टीवी पर लागू थी। जबकि आज भिन्न चैनलों पर एक ही घटना के अलहदा रूपांतरण दिखते हैं और साथ ही अजीबोगरीब विश्लेषण। आमतौर पर पैनल विशेषज्ञों में ज्यादातर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि, सेवानिवृत्त नौकरशाह, पत्रकार और कथित विशेषज्ञ होते हैं। जानकार तो नाममात्र के होते हैं। एंकर शो का कमांडर-इन-चीफ बनकर बैठता है और चीखकर चर्चा की अगुवाई करता है और विपक्षी वक्ताओं पर हावी होकर उन्हें बोलने नहीं देता। चैनल का स्टूडियो रणभूमि में तब्दील हो जाता है। अलहदा विचार वाले विशेषज्ञ तक को भी धमकाकर चुप कराया जाता है। फलत: अनावश्यक शोर से वार्ता सार्थक नहीं रह जाती। एंकर का राजनीतिक रुझान और विशेषज्ञों का चयन वार्ता के निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। इन तमाशों में सुर, शब्दावली और सामग्री इतनी गलीज होती है कि एक सभ्य नागरिक हेतु यातना जैसा होती है। दर्शकों का विचारधारा विशेष का वर्ग कार्यक्रम से जुड़ा रहता है, बाकी के अन्य संजीदा चैनलों की तलाश में लग जाते हैं। लेकिन असल खबरिया चैनल हैं कहां? जिसे देखो तीक्ष्ण संवाद कर रहा होता है। ऐसे में बीबीसी, सीएनएन इत्यादि चैनल का विकल्प रह जाता है। लेकिन वे भारत के बारे में ज्यादा खबरें नहीं दिखाते।
आजकल सुशांत राजपूत की आत्महत्या प्राइम टाइम पर छाई हुई है। हालांकि, फिल्मों की ज्यादा जानकारी न रखते हुए भी इतना समझता हूं कि वह एक उम्दा अभिनेता थे और उनकी मृत्यु फिल्म उद्योग के लिए क्षति है। लेकिन यदि उनके परिजनों को मृत्यु के कारणों को लेकर कोई संशय था तो उन्हें पहले पुलिस से शिकायत करनी चाहिए थी ताकि जांच हो सके। जिक्र करना चाहूंगा कि मुंबई पुलिस आज भी भारत के सर्वोत्तम पुलिस बलों में एक गिनी जाती है और जांच की अर्जी दाखिल किए जाने से पहले ही उसकी ईमानदारी पर शक का कोई कारण नहीं था। क्यों बिहार सरकार इस मामले में इतना दखल दे रही है? और इसमें सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय का क्या काम था? आखिर क्यों टीवी चैनलों ने इसे चौबीसों घंटे दिखाए जाने वाला तमाशा बनाया? क्या मौजूदा मुश्किल समय में ऐसा मीडिया-ट्रायल चलाना सच में ऐसा मुद्दा है? या फिर दर्शकों के ध्यान को ‘पाइड पाइपर’ नामक कहानी के चूहों की भांति बरगलाकर गुफा में बंद करने को भरमाया जा रहा है, जिन्हें बीन वादक अपनी धुन से सम्मोहित कर हांक ले गया था? निजी घरानों के मीडिया चैनलों की राजनीतिक आकाओं के प्रति स्वामी-भक्ति दिखाने के खेल की जांच करने की जरूरत है।
अब मैं कोविड महामारी, भुला दिए गए आप्रवासी पलायन, लद्दाख क्षेत्र में चीन एवं पाकिस्तान से लगती वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखाओं पर दुरूह क्षेत्रों में बैठे जवानों और बिखरी अर्थव्यवस्था एवं इससे उपजी भयंकर बेरोजगारी पर बात करूंगा। आखिर खबरिया चैनलों के तुर्रमखां एंकरों ने पैदल पलायन को मजबूर हुए मजदूरों के साथ कितनी दूर तक चलना गवारा किया था? प्रवासी श्रमिक अब कहां-किस हालात में हैं? पैनल पर आने वाले कितने विशेषज्ञों ने स्वयं अस्पतालों का दौरा कर कोविड इलाज की हकीकत को जाना? बाहरी स्रोतों से अस्पतालों की जो डरावनी खबरें मिल रही हैं, क्या वह सही हैं? कुर्सी पर बैठकर पराक्रम दिखाने वाले एंकरों में कितनों ने मोर्चों पर सचमुच पहुंचकर खबरें की हैं कि सीमा पर जवान किन हालातों में जी और लड़ रहे हैं? कैसे वे बर्फीले मौसम में अपना बचाव करेंगे? देश की अर्थव्यवस्था में आज तक की बड़ी गिरावट और नौकरियों की छंटनी से जीवनयापन को हुआ नुकसान कितना गहरा है? क्या मुद्दे प्राइम टाइम पर चर्चा लायक नहीं हैं?
मेरे मीडिया के मित्रों, लद्दाख में संभावित लड़ाई, कोरोना से पैदा हुई चुनौतियां और गिरती अर्थव्यवस्था का मुकाबला हम स्टूडियो में बैठकर चिल्लाने से नहीं कर सकते, इससे पार पाने को तो मैदान में उतरना होगा। उसके लिए आपको एक संजीदा और जनता को सही खबर देने वाला प्रेरक चेहरा बनना होगा। राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को खबरों का मुख्य बिंदु बनाइए न कि सच को ढांपने के लिए बनाए गए सरकारी आंकड़ों और विज्ञप्तियों की आड़ लें। न ही बॉलीवुड की चटपटी कहानियों के शोर में इन्हें भुलाने का इंतजाम करें।
शुक्र है कि अभी भी प्रिंट मीडिया में अपवादस्वरूप कुछ सम्माननीय प्रकाशन बचे हुए हैं जो पत्रकारिता के दुर्ग को बचाए हुए हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का गैर-सरोकारी अंग बनकर रह गया है। इसका काम भ्रष्टाचार, मिथ्या सूचनाओं और फरेब को उजागर करने वाला प्रहरी बनना है। आज सोशल मीडिया को राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुष्प्रचार और वैमनस्य बढ़ाने का हथियार बनाया जा रहा है। विकसित देशों में भी इन्हें साधन बनाकर संकीर्ण लक्ष्य साधने की कोशिश होती है। अब यह जिम्मेवारी रिवायती प्रिंट और टीवी मीडिया के कंधों पर है कि वे ईमानदार, तटस्थ रिपोर्टिंग करने वाले मूल्यों को जिंदा रखें। इतिहास में दर्ज है कि अमेरिका में मीडिया ने पूर्व राष्ट्रपति निक्सन का कच्चा चिट्ठा जाहिर कर उन्हें घुटनों पर ला दिया था। इसकी बनिस्बत काश! हमें भारतीय मीडिया के पत्रकारों के बारे में यह राय न बनानी पड़ती कि धौंसपट्टी करने को उतारू और कॉर्पोरेट घरानों से आने वाले दबावों-संकेतों से वे कठपुतली जैसा व्यवहार करने लगते हैं। क्या रिवायती मीडिया मौके की नजाकत समझ जागेगा और हमें सच का निर्लेप चेहरा दिखाएगा? यह भविष्य ही बताएगा।
लेखक संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, मणिपुर के राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।