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बड़ी सोच से अक्षुण्ण रहेगी वैवाहिक गरिमा

अंतर्मन

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डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

आजकल समाज में बेटी का विवाह करना सामान्य मध्यम वर्ग के लिए ही बहुत बड़ी चिंता का कारण बनता जा रहा है, तब निम्न वर्ग के व्यक्ति की तो हालत ही खराब हो जाती है। बेटी के विवाह में सबसे बड़ी मुसीबत तो ‘दहेज़ का राक्षस’ ही बनता है, तो इन दिनों एक मुसीबत ‘दिखावा’ और बड़े-बड़े ‘वैडिंग हॉल्स’ में बारातियों से भी पहले घरातियों के लिए लगने वाले ‘स्टॉल्स’ बन गए हैं। यहां उतना कुछ खाया-पीया नहीं जाता, जितना बेकार करके ‘झूठन’ के रूप में फेंका जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि घर लौट कर सब ही इस दिखावे और फिजूलखर्ची की जमकर निंदा भी करते हैं।

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तब सभी के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा हुआ है कि क्या समाज ‘बेटी के विवाह की पवित्रता’ को बचाने के लिए आगे आएगा? क्या हम समाज में बढ़ते ‘दिखावे’ और ‘दहेज़’ के कुचक्र से निकलने का कोई रास्ता ढूंढ़ पाएंगे? मैं इन जैसे प्रश्नों से दो-चार हो ही रहा था कि मुझे एक बेहद प्रेरक घटना पढ़ने को मिली, जिसे मैं अपने विद्वान पाठकों से साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं।

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‘एक 15 साल के युवा भाई ने अपने पिता से कहा, ‘पापा! दीदी के होने वाले ससुर और सास कल आ रहे हैं, यह बात अभी जीजा जी ने मुझे फोन पर बताई है।’ असल में उसकी बड़ी बहन की सगाई कुछ दिन पहले ही एक अच्छे घर में तय हुई थी, उसी की बात चल रही थी।

युवक के पिता दीनदयाल जी तो पहले से ही उदास बैठे थे। धीरे से बोले, ‘हां बेटा! कल ही फोन आया था कि वो एक-दो दिन में दहेज की बात करने आ रहे हैं। बड़ी मुश्किल से यह एक अच्छा लड़का मिला है, कल को उनकी दहेज की मांग इतनी ज़्यादा हुई कि मैं उसे पूरी नहीं कर पाया तो?’ कहते-कहते उनकी आंखें भर आयीं।

घर के प्रत्येक सदस्य के मन और चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं। लड़की भी यह सब सुनकर उदास हो गयी।

अगले दिन समधी और समधिन आए, तो उनकी खूब आवभगत की गयी। कुछ देर बैठने के बाद लड़के के पिता ने लड़की के पिता दीनदयाल जी से कहा, ‘दीनदयाल जी! अब काम की बात हो जाए?’

दीनदयाल जी की धड़कन बढ़ गयी बोले, ‘हां हां... समधी जी। जो आप हुकुम करें?’

लड़के के पिताजी ने धीरे से अपनी कुर्सी दीनदयाल जी की ओर खिसकाई और उनके कान में बोले, ‘दीनदयाल जी! मुझे ‘दहेज’ के बारे बात करनी है!’

दीनदयाल जी हाथ जोड़ते हुए आंखों में पानी लिए हुए बोले, ‘बताइए समधी जी, जो आप को उचित लगे... मैं पूरी कोशिश करूंगा कि पूरा कर सकूं।’

समधी जी ने धीरे से दीनदयाल जी का हाथ अपने हाथों से दबाते हुए बस इतना ही कहा...

‘आप कन्यादान में कुछ भी दें या न भी दें। थोड़ा दें या ज़्यादा दें... मुझे सब स्वीकार है... पर किसी से भी ‘कर्ज’ लेकर आप एक रुपया भी दहेज मत देना... वो मुझे स्वीकार नहीं होगा दीनदयाल जी। क्योंकि जो बेटी अपने बाप को कर्ज में डुबो दे, वैसी ‘कर्ज वाली लक्ष्मी’ मुझे कदापि स्वीकार नहीं है। सच मानिए, मुझे तो बिना कर्ज वाली बहू ही चाहिए जो मेरे यहां आकर मेरी सम्पत्ति को कई गुना कर देगी।’

दीनदयाल जी हैरान हो गए और बड़े प्यार और सम्मान के साथ उनसे गले मिलकर बोले, ‘समधी जी! बिल्कुल ऐसा ही होगा!’

इस घटना को पढ़कर मेरे ‘अंतर्मन’ ने कहा कि क्या हम ‘कर्ज़ की लक्ष्मी’ न लेने और न ही किसी को देने का संकल्प लेकर ‘बेटी के विवाह की पवित्रता की रक्षा’ का सद्प्रयास नहीं कर सकते?

अवश्य कर सकते हैं मित्रो, क्योंकि यह ‘दिखावे और दहेज़’ का राक्षस पूरे समाज के लिए खतरा बनता जा रहा है, तो इससे मुक्ति का उपाय भी हम सभी को एक साथ मिलकर खोजना होगा।

‘जो संकट है सामने, मिलकर लड़िए आज।

राक्षस बली दहेज़ है, जागे तुरत समाज।’

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