आपको फिल्मों में अक्सर ही दिखाया जाने वाले वह दृश्य तो याद ही होगा जब आशिक अपनी माशूक के इंतजार में बैठा गुलाब की पंखुड़ियों को तोड़-तोड़कर फेंकता हुआ बड़बड़ाता रहता है-शी लव्ज मी, शी लव्ज मी नाॅट। बस समझ लीजिए कि पी के और कांग्रेस पार्टी का हाल भी कुछ-कुछ वैसा ही है-वह आएगा, वह नहीं आएगा या फिर यह भी हो सकता है कि वे मुझे लेंगे कि मुझे नहीं लेंगे। बेशक पी के के चाहनेवालों की कमी नहीं है। उन्हें मोदीजी ने चाहा तो नीतीशजी ने भी चाहा। बल्कि नीतीशजी ने तो इतना चाहा कि अपनी पार्टी में ही शामिल कर लिया था, लेकिन फिर निकाला भी वैसे ही जैसे दूध से मक्खी निकाली जाती है। हालांकि लोग कहते हैं कि पता नहीं नीतीशजी के गिलास में दूध बचा भी कितना है।
खैर, ममता उन्हें अपने साथ चाहती हैं तो स्टालिन भी उन्हें अपने साथ चाहते हैं। अगर जगन मोहन रेड्डी उन्हें चाहते हैं तो चंद्रशेखर राव भी उन्हें चाहते हैं। मतलब वे इस पार्टी से उस पार्टी में जानेवाले दलबदलुओं से काफी आगे हैं और कुछ-कुछ उनके मुकाबले की चीज हैं, जो लगभग सभी पार्टियों में घूम आते हैं। लेकिन न तो उन्हें कोई घाट-घाट का पानी पीनेवाला कहता है और न ही उन्हें कोई दलबदलू कहता है।
बल्कि कई बार तो लगता है कि वे सदर बाजार के उस दुकानदार की तरह हैं, जिसके यहां हर पार्टी के झंडे, टोपियां और चुनाव चिन्ह मिलते हैं। बस उस दुकानदार और पी के में फर्क यही होता है कि दुकानदार निर्विकार भाव से जिस पार्टी का सामान मांगो दे देगा, जबकि पी के एक अच्छे सेल्समैन की तरह किसी खास पार्टी के चुनावी सामान की बिक्री बढ़ा भी सकता है। भारतीय राजनीति में पी के का योगदान यह भी है कि उन्होंने यह स्थापित कर दिया कि विचारधारा नाम की कोई चीज नहीं होती। चुनाव जीतने के लिए विचारधारा की नहीं, रणनीति की जरूरत होती है। हालांकि, इसके लिए पूरी तरह से उन्हें ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि विचारधारा के नाम पर राजनीति करनेवालों ने भी विचारधारा की कुटाई करने में कोई कम कसर नहीं छोड़ी। फिर हमारे दल बदलने वाले तो हैं ही कि पता नहीं कब किस पार्टी में उनका सांस घुटने लगे और जिन्हें पता नहीं कब कौन सी विचारधारा उन्हें पसंद आ जाए।
हमारे दलबदलू नेताओं और उनमें बस फर्क यही है कि दलबदलू कांग्रेस से भाजपा की ओर जा रहे हैं जबकि पी के भाजपा से कांग्रेस की ओर आ रहे थे। लेकिन कांग्रेस की तरफ आने में उन्हें जितनी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, उतनी बाधाओं का सामना उन दलबदलुओं को तो बिल्कुल भी नहीं करना पड़ता जो कांग्रेस से भाजपा की ओर जाते हैं। अर्थात् वह रास्ता ज्यादा सरल है।