शमीम शर्मा
स्कूल में बिताए दिन एक तरफ और शेष जीवन एक तरफ। हर किसी को अपना स्कूल याद खूब आता है। जो कभी मेरिट में आया नहीं, किसी भी फील्ड में ईनाम में एक पेंसिल तक जीती नहीं, रोजाना जिसने दो-चार थप्पड़ खाये और महीने में प्रिंसिपल के रूम में आठ-दस बार डांट खाने वाले भी स्कूल को खूब याद करते हैं। दुनिया की सारी मिठाइयों का स्वाद एक तरफ और स्कूल में पन्द्रह अगस्त व छब्बीस जनवरी पर मिलने वाले दो लड्डुओं का स्वाद एक तरफ। इसके अलावा स्कूल टिफिन के परांठे और आम के अचार की फांक तो पिजा, बर्गर को बुरी तरह पछाड़ती नज़र आती है।
स्कूल टाइम पर पेट में जो दर्द होता है, उसका इलाज किसी वैद्य-हकीम के पास भी नहीं है। स्कूल के दिनों का आम बहाना तो यह हुआ करता कि होमवर्क तो कर लिया था पर कॉपी घर रह गई है। स्कूल के लिये सुबह उठना भी एक महाभारत है। हमारे वक्त के बच्चे ऐन टाइम पर उठकर बाथरूम में घुस जाया करते। अब वाले उठते ही मोबाइल में घुस जाते हैं।
दो-चार दिन पहले मेरे पोते को होमवर्क में वेरी गुड मिला। उसकी खुशी अमेरिका के राष्ट्रपति बनने से भी ज्यादा रोमांचकारी थी। मुझे अपना बचपन भी याद है कि मैडम से कॉपी चैक करवाते हुये जब कभी ‘गुड’ मिलता तो ऐसी खुशी हुआ करती मानो मैडम ने अपनी जायदाद में से कोई हिस्सा दे दिया हो। जब कभी किसी सहपाठी की कॉपी से देखकर होमवर्क किया करते और कोई अक्षर समझ न आने पर पूछते कि ये क्या लिखा है तो जवाब मिलता था कि तू भी ऐसे ही गोल-गोल डिजाइन-सा बना दे।
किसी महापुरुष ने कहा है कि दसवीं कक्षा की मोहब्बत और ग्यारहवीं कक्षा की मार्कशीट कभी काम नहीं आती। यह भी मानना पड़ेगा कि आठवीं-दसवीं कक्षाओं में बच्चों को प्यार की एबीसी भी नहीं पता होती पर इसी उम्र में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण में वे अपनी पढ़ाई और करिअर का दलिया निकाल लेते हैं। और आजकल मोबाइल भाई दलिया निकालने में खूब मदद कर रहा है।
वे लड़कियां भी किसी आतंकवादी से कम नहीं हुआ करतीं जो सर के क्लास में आते ही याद दिला दिया करतीं कि सर आज तो टेस्ट लेना था। आजकल कम नंबर आने पर बच्चे आत्महत्या करने लगे हैं और वह भी जमाना था जब बच्चे के कम नंबर देख कर अध्यापक कहा करते- जी तो मेरा करता है कि मर जाऊं।
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एक बर की बात है अक मास्टर नैं क्लास मैं बूज्झी— बताओ वो कुण सा परिंदा है जो उड़ नीं सकता। नत्थू तैड़ दे सी बोल्या— जी मरा होया परिंदा कती नीं उड़ सकता।