लक्ष्मीकांता चावला
जब से चुनावी भाषणों, आश्वासनों का क्रम प्रारंभ हुआ, तभी से नेताओं को यह कहते सुना गया कि भारत को भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्त करना है। सच्चाई तो यह है कि तीनों से मुक्त होने के स्थान पर तीनों ने ही भारत को ज्यादा ग्रस्त कर दिया है। पूरा देश भ्रष्टाचार में जकड़ा पड़ा है। यद्यपि नेता यही कहते हैं कि सरकार ने भ्रष्टाचार पर काबू कर लिया है।
भूख कितनी नियंत्रित हुई, इसका मुंह बोलता उदाहरण यह है कि लॉकडाउन के दिनों में सरकार यह कहती है कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन बांटा गया क्योंकि वे गरीब हैं। करोड़ों लोग भूखे सोते हैं, यह तो स्वयं सरकारें स्वीकार करती हैं। गरीबी मुक्त भारत करने का नारा भी बासी हो गया। वैसे तो नेताओं के भाषणों से कुछ खत्म नहीं होता क्योंकि उनके अपने जीवन के आदर्श आजादी की बढ़ती आयु के साथ समाप्त होते जा रहे हैं, पर आश्चर्य यह है कि आज तक किसी ने यह नारा नहीं दिया कि भारत की संतान को शोषण मुक्त भी करना है।
अफसोस यह है कि आज तक यह आंकड़े किसी सरकार ने, विश्वविद्यालय के विद्वानों ने और किसी भी मानवाधिकार आयोग ने नहीं दिए। जिस देश को युवा देश कहते हुए हमारे शासक थकते नहीं, जहां यह जानकारी दी जाती है कि भारत के 65 प्रतिशत नागरिक युवा हैं, वहां यह कभी नहीं बताया जाता कि हमारी इसी जवानी का ही नहीं, बुढ़ापे का, महिलाओं का, बच्चों का कितना शोषण होता है। जो दुर्भाग्य देश के करोड़ों लोगों का सरेआम दिन -रात दिखाई देता है, उसकी चिंता इन नेताओं को नहीं।
आज से लगभग बीस वर्ष पहले पंजाब सरकार ने शिक्षित युवाओं को नौकरी देने के नाम पर ठेका प्रथा शुरू की। सरकारी नौकरी पाने की चाह में लाखों लोग पंजाब में और पूरे देश में किसी भी प्रकार रोटी-रोजी का जुगाड़ करने के लिए इस ठेके के चक्कर में फंस गए। सरकारों ने स्वप्न दिखाया कि केवल तीन वर्ष बाद वे नियमित कर्मचारी हो जाएंगे, पर पूरा वेतन और पूरे लाभ आज तक नहीं मिल पाए। आज भी जिनको नियमित भर्ती किया जा रहा है, उनको पहले तीन वर्ष तक केवल दस-पंद्रह हजार अर्थात मूल वेतन पर रखा जा रहा है। कोई भी यह सोच सकता है कि यह अघोषित भ्रष्टाचार है। जिस सुरक्षा कर्मी को केवल दस हजार रुपया देकर सब प्रकार के सुरक्षा प्रबंधों के लिए लगाया जाएगा, उसकी यूनिफार्म के अंदर पेट है, उसका कोई परिवार है। ऐसे में वे ईमानदार रह जाते हैं, भ्रष्टाचार मुक्त रहते हैं तो सचमुच ही वो सत्यवादी हरिश्चंद्र होंगे।
वैसे यह बीमारी अब पूरे देश में हो गई। अगर कोई विश्वविद्यालय शोध के जरिये यह जानकारी ले कि कितने ऐसे युवक-युवतियां हर प्रांत में हैं जो पच्चीस वर्ष की आयु में ठेके पर नौकरी लगे, किन विपरीत परिस्थितियों में वे अपनी गृहस्थी और युवावस्था की सारी इच्छाएं किसी गहरे कोने में दफना कर अपना जीवन चला रहे हैं तो नई तस्वीर उभरेगी। अब तक तो वे प्रौढ़ावस्था में पहुंच गए होंगे।
अब एक नया नाम आ गया है-आउटसोर्सिंग। सरकारें काम ठेके पर दे देती हैं और ठेकेदार कर्मचारी भर्ती करता है। हमारे देश की युवा शक्ति इस समय बेकारी, बेरोजगारी, शोषण और कभी भी यह कच्ची नौकरी छिन जाने के भय से त्रस्त है। क्या कोई मानवाधिकार आयोग, सरकारी श्रम विभाग यह जानते हैं कि प्राइवेट संस्थाओं में किन शर्तों पर इन कर्मचारियों को काम करना पड़ता है? कुछ प्राइवेट मेडिकल संस्थानों में तो यह बताया गया कि केवल छह-सात हजार वेतन देकर उनसे जितना काम लिया जाता है, वह केवल बेकारी के डर से करने को विवश हैं। कुछ संस्थानों में, खासकर प्राइवेट मेडिकल संस्थानों में तो बारह घंटे तक कर्मचारियों को बैठने की भी आज्ञा नहीं होती। ऐसी स्थिति में महिलाओं की क्या हालत होती होगी, इसका भी ध्यान नहीं रखा जाता।
आज जब देश के युवक विदेश की ओर भागते हैं, रिश्वत देकर भी जाते हैं, जमीन-मकान गिरवी रखकर या बेचकर जाते हैं तो उनका एक ही तर्क होता है कि अपने देश के सिस्टम से दुखी होकर जा रहे हैं। यहां नौकरी मिलती नहीं, मिले तो पूरे पैसे नहीं। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय तक ने यह माना है कि समान कार्य का समान वेतन मिले। उसने यह निर्देश तो दिया, पर यह नहीं देखा कि समान वेतन क्यों नहीं मिलता। कभी किसी सरकार ने कोई ऐसा विभाग या कमीशन या संस्थान बनाया जो विदेश जाने के लिए पासपोर्ट दफ्तरों की लंबी लाइन में लगे देश के बच्चों से यह पूछे कि आखिर अपनी धरती से दूर जाने के पीछे क्या मजबूरी है। जब तक दलबदल रोकने के लिए भ्रष्टाचारियों को चुनाव लड़ने से वंचित करने के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं बनता तब तक दागी जनप्रतिनिधि बनते रहेंगे और जनता ठगी जाती रहेगी।