विश्वनाथ सचदेव
खबर यह नहीं है कि पेट्रोल और डीज़ल के भाव सौ रुपये प्रति लीटर से ऊपर चले गये हैं, खबर यह है कि ये भाव लगातार बढ़ रहे हैं और आम आदमी यह मानकर बैठ गया है कि ये भाव डेढ़ सौ तक जायेंगे ही। आये दिन खबरिया टी.वी. चैनल पेट्रोल पम्पों पर दुपहिये वालों, चारपहियों वालों से यह पूछ रहे हैं कि घर के बजट का क्या हाल है, और ऐसे हर सवाल के जवाब में यह सुनकर चुप हो जाते हैं कि ‘परेशानी तो हो रही है, पर क्या करें?’ ये दो शब्द ‘क्या करें’ देश की जनता की विवशता और असहायता के पर्यायवाची हैं। लगातार बढ़ती महंगाई से मध्य वर्ग सबसे ज़्यादा पिस रहा है, पर इसके बावजूद यही वह वर्ग है जो अपने आपको सबसे ज़्यादा असहाय मससूस कर रहा है।
आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले एक साल में जीडीपी अर्थात सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में मध्यवर्गीय परिवारों का कर्ज 35 से 37 प्रतिशत हो गया है। जीवनयापन के हर मद में पिछले दो सालों में, यानी महामारी के दौर में, कल्पनातीत बढ़ोतरी हुई है। यह सर्वविदित है कि महामारी के परिणामस्वरूप लागू किये गये लॉकडाउन के चलते करोड़ों लोगों के धंधे चौपट हो गये, फैक्टरियां बंद हो गयीं, कारखानों पर ताले लग गये, नौकरियां छिन गयीं, वेतन में कटौती हो गयी… अब कहा जा रहा है कि स्थिति सुधर रही है, और यह डर तलवार की तरह सिर पर लटक रहा है कि सुधरते-सुधरते बहुत देर न हो जाये!
सच पूछा जाये तो देर तो हो चुकी है, और स्थिति की भयावहता इस बात से और बढ़ गयी है कि स्थिति सुधारने की ज़िम्मेदारी जिन पर है, वे स्थिति की गंभीरता को न समझ रहे हैं, न समझना चाहते हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश के एक मंत्री ने बयान दिया था कि पेट्रोल और डीज़ल की बढ़ती कीमतों से देश के सिर्फ पांच प्रतिशत नागरिक प्रभावित हो रहे हैं, शेष 95 प्रतिशत के जीवन पर इस महंगाई का कोई असर नहीं पड़ रहा!
हाल ही में वैश्विक भूख सूचकांक भी जारी हुआ था। एक वैश्विक गैर सरकारी संगठन कुछ तय आधारों पर दुनिया भर के देशों में ‘भूख’ के स्तर का आकलन करता है। उम्मीद की जाती है कि संबंधित सरकारें इसके आधार पर अपनी रीति-नीति में परिवर्तन करेंगी। पिछले साल भूख के सूचकांक की सूची में हमारे भारत का स्थान 94वें था। इस साल 121 देशों की इस सूची में भारत फिसल कर 101वें स्थान पर पहुंच गया है। यानी साल भर की ‘प्रगति रिपोर्ट’ यह है कि देश में भूखे रहने वालों की संख्या और बढ़ गयी है। जब भी कोई वैश्विक संगठन ऐसा कोई आंकड़ा सामने रखता है, जिसमें पहले से कुछ बेहतर स्थिति का संकेत हो तो हमारे नीति-निर्माता, सरकारी पक्ष के नेता, उसे सिर पर उठा लेते हैं। पर, भूख के यह आंकड़े जब सामने आये तो हमारी सरकार ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि यह सर्वेक्षण अवैज्ञानिक आधार पर हुआ है, देश की अस्सी करोड़ आबादी को मुफ्त में खाद्यान्न देने वाली सरकार पर स्थिति की अनदेखी का आरोप कैसे लग सकता है? ग़लत है ये आंकड़े! इसके साथ ही यह भी जोड़ दिया गया है कि इसके पीछे भारत को बदनाम करने की अंतर्राष्ट्रीय चाल है!
लेकिन, क्या इससे कुपोषण से त्रस्त देश के बच्चों की भूख मिट जायेगी? अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न देना अच्छी बात है, पर सवाल यह भी उठता है कि ऐसी स्थिति ही क्यों आयी? ऐसे सवालों के उत्तर सही नीतियों की मांग करते हैं, उनके ईमानदार क्रियान्वयन की मांग करते हैं। आंकड़ों को झूठा कहने से बात नहीं बनेगी।
कोरोना ने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। पर अब, जबकि स्थितियां कुछ बेहतर लग रही हैं, यह सोचने की आवश्यकता है कि सुधरने की गति और दिशा क्या हो। लॉकडाउन के दौरान जब करोड़ों लोग शहरों से अपने गांवों की ओर लौट रहे थे, कई राज्य सरकारों ने घोषणाएं की थीं कि अब राज्य में ही उनके रोज़गार की व्यवस्था की जायेगी। शहरों की ओर लौटते बेरोज़गारों की कतारें बता रही हैं कि ऐसी कोई व्यवस्था हुई नहीं। कश्मीर में मूंगफली और गोलगप्पे बेच कर रोटी कमाने वाले बिहारी की हत्या इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि उसके अपने राज्य में रोज़गार की स्थिति इतनी कमाने लायक भी नहीं है।
आज देश के दो-तिहाई वर्ग को बेहतर ज़िंदगी देने के लिए ठोस और सार्थक योजनाओं की आवश्यकता है। सबसे ऊंची मूर्ति, सबसे ज़्यादा हवाई अड्डे, सबसे शानदार मॉल, सबसे आकर्षक पर्यटन-केंद्र, सबसे भव्य संसद भवन… यह सब भी चाहिए देश को। पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। हर जगह राजनीतिक दल मुफ्त बिजली-पानी आदि देने के वादे कर रहे हैं, लेकिन देश की पहली आवश्यकता भूख मिटाने की है, गरीबी कम करने की है। बच्चों को अच्छी शिक्षा चाहिए, युवाओं को रोज़गार चाहिए। आम नागरिक को बेहतर स्वास्थ्य-व्यवस्था चाहिए। नारे, दावे और वादे नहीं, समस्या को पहचान कर निदान की ईमानदार कोशिश करने वाला नेतृत्व चाहिए। काश! यह सब हो सके।