प्रकाश मनु
शैलेश मटियानी हिंदी के दिग्गज कहानीकार हैं, जिन्होंने प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, एक के बाद एक ऐसी कालजयी कहानियां हमें दीं, जिन्हें विश्व साहित्य में पांक्तेय कहा जा सकता है। ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘इब्बू मलंग’, ‘मिट्टी’, ‘प्यास’, ‘मैमूद’, ‘वृत्ति’, ‘अंहिसा’, ‘भविष्य’, ‘रहमतुल्ला’, ‘छाक’, ‘अर्धांगिनी’ जैसी दर्जनों असाधारण कहानियां मटियानी के यहां हैं, जो सिर्फ मटियानी जी की ही अद्वितीय और सिरमौर कहानियां नहीं हैं, बल्कि सच यह है कि हिंदी बड़े गर्व और गौरव के साथ उन्हें विश्व कथा-साहित्य के आगे रख सकती है।
मटियानी जी की कहानियां, एक अर्थ में, तमाम दिखावों, ऊपरी चमक-दमक और आभिजात्य के आडंबरों से परे, ठेठ हिंदुस्तानी कथा का उत्कर्ष हैं। उन्होंने जिन हालात में लिखना शुरू किया था और लेखक होने के लिए जिस तरह की अंतहीन तकलीफों से वे गुजरे, उन्हें शायद कहा ही नहीं जा सकता। फिर तरुणावस्था में मुंबई जाने पर जूठे बर्तन मांजने, भिखारियों की पांत में बैठकर भोजन पाने, छोटे-मोटे अपराधों पर पुलिस के डंडे खाने और कभी-कभी तो पेट की भूख शांत करने के लिए खुद को पुलिस के हाथों गिरफ्तार करवा देने जैसे अकल्पनीय, थरथरा देने वाले हालात और मजबूरियों का सामना करना पड़ा। फिर भी यह विश्वास उनके भीतर से कभी नहीं डिगा कि उन्हें लेखक होना है और जितने ज्यादा कष्ट वे उठाएंगे, उतना ही उनकी रचनाओं में आंतरिक ताप, ऊष्मा और पाठकों को भावमग्न कर देने वाला असर आएगा।
कोई आश्चर्य नहीं कि मटियानी जी लेखन को ‘कागज पर खेती करना’ कहते थे। जो जीवन उन्होंने जिया, उसने उन्हें किसी के आगे न झुकने वाला लेखकीय स्वाभिमान और खुद्दारी दी, साथ ही जीवन के अनुभवों की तपिश और आंच भी। जीवन भर नौकरी न करने के निश्चय के साथ मटियानी जी ने प्रेमचंद की तरह एक पूर्णकालिक लेखक बनने का सपना देखा, और तमाम कष्टों और चुनौतियों के बावजूद अंततः वैसा ही जीवन जीकर दिखा दिया। एक लेखक के रूप में उनका कद इतना बड़ा था कि वे निर्विवाद रूप से हिंदी कहानी के शलाका पुरुष के रूप में जाने और सराहे गए।
दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स हाउस में मटियानी जी से मेरी इतनी आत्मीय मुलाकातें हुईं कि लिखने बैठूं तो पूरी एक महागाथा बन जाएगी। याद पड़ता है, एक बार बहुत उदास मनःस्थिति में उन्होंने कहा था, ‘मनु, मेरी हालत तांगे में जुते उस घोड़े जैसी है, जिसकी आंखों के दोनों ओर पट्टी बांध दी गई है और वह बेहिसाब दौड़े जा रहा है। ऐसी हालत में मैं जिंदा कैसे हूं, यह मैं खुद भी नहीं जानता।
शायद ऐसी दारुण स्थितियों से निकलने का ही नतीजा था कि ‘जीवन की तलछट’ कहे जाने वाले कोढ़ियों, भिखारियों, जुआरियों, वेश्याओं, झल्ली उठाने और रिक्शा चलाने वालों—यानी दलित और निम्न वर्ग की ऐसी मार्मिक और बेधक कहानियां लिखने वाला मटियानी जैसा कथाकार हमारे यहां कोई दूसरा नहीं हुआ। मटियानी जी जिंदगी से इतने गहरे जुड़े हुए थे कि उन्हें किसी के अनुकरण की जरूरत नहीं थी। अपनी कहानियों का मुहावरा उन्होंने खुद ईजाद किया और तराशा था। यों वे ‘एक समूचे भारतीय कथाकार’ हैं, जिनकी कहानियों में ठेठ हिंदुस्तानियत का जुग्राफिया नजर आता है। संतोष की बात यह है कि एक लंबी कालावधि में लिखी गई शैलेश मटियानी जी की संपूर्ण कहानियां अब पांच जिल्दों में उपलब्ध हैं। उनके बेटे राकेश मटियानी को इसका श्रेय है।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि आज से कोई कई दशक पहले जब हिंदी में ‘दलित विमर्श’ जैसा कोई नारा नहीं था, मटियानी जी कितने ‘प्रतिबद्ध’ और पुरजोर ढंग से दलितों की समस्याओं पर कहानियां लिख रहे थे और वह भी बगैर किसी नारे या बड़बोलेपन के!
अपने लेखन और जीवन में कोई समझौता न करने वाले मटियानी जी ने अपनी खुद्दारी और स्वाभिमान के कारण अंतहीन तकलीफें झेलीं। पर आश्चर्य, उनकी कहानियों में मानव-आस्था के अछूते बिंब हैं, जो भीतर एक जगमगाहट पैदा करते हैं।