हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में सरकार भले ही प्रधानमंत्री चलाते हों, पर कहलाती वह राष्ट्रपति की ही सरकार है। इसीलिए, जब राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए अपना अभिभाषण देते हैं तो सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए वे यही कहते हैं कि ‘मेरी सरकार’ ने यह-यह किया— फिर भले ही वे सरकार के किसी कृत्य से सहमत हों या न हों। राष्ट्रपति के इस बार के अभिभाषण में भी यही गिनाया गया कि सरकार ने क्या-क्या किया है, और यह भाषण पढ़ भले ही राष्ट्रपति रहे हों, पर उसके हर शब्द पर सरकार की स्वीकृति होती है।
फिर संसद में दोनों सदनों में इस पर बहस होती है, जिसे राष्ट्रपति के अभिभाषण के लिए धन्यवाद प्रस्ताव के रूप में रखा जाता है। यह प्रस्ताव तो पारित होना ही होता है, पर विपक्ष को अवसर अवश्य मिल जाता है सरकार के कार्यों की आलोचना करने का। अवसर सरकारी पक्ष को भी मिलता है अपनी बात रखने का, विपक्ष की आलोचना का जवाब देने का। स्पष्ट है, एक गम्भीर बहस का अवसर होता है यह, पर अक्सर देखा गया है कि संसद में इस अवसर का समुचित उपयोग नहीं होता। निस्संदेह कुछ भाषण बहुत अच्छे होते हैं, पर ज़्यादातर भाषण आरोपों-प्रत्यारोपों की बलि चढ़ जाते हैं। बहरहाल, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद-प्रस्ताव पर हुई बहस में भी कुछ बातें सचमुच रेखांकित किये जाने लायक हैं। इनमें से एक कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का वक्तव्य भी है। राहुल बहुत अच्छे वक्ता नहीं माने जाते, पर ‘दो भारत’ वाला उनका यह भाषण निश्चित रूप से ध्यान आकर्षित करने वाला था। यह तथ्य अपने आप में भयावह है कि स्वतंत्रता के इस कथित ‘अमृत-काल’ में देश की अधिसंख्य आबादी गरीबी का जीवन जी रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश के लगभग साढ़े आठ करोड़ नागरिक घोर गरीबी में जीते हैं। 15 करोड़ और भारतीय गरीबी रेखा से नीचे की स्थिति में पहुंच जाएंगे। इसके बरक्स देश में अरबपतियों की संख्या में वृद्धि आर्थिक विषमता की बढ़ती खाई की भयावहता ही उजागर करती है। देश में शीर्ष के दस प्रतिशत लोगों के पास आज जितनी सम्पत्ति है उतनी देश की आधी आबादी की कुल सम्पत्ति भी नहीं है। यही हैं वे दो भारत, जिनके बीच की खाई को पाटना ज़रूरी है और यह काम नहीं हो रहा। इसका गम्भीरतापूर्वक अध्ययन होना चाहिए।
बहुत पुरानी बीमारी है यह आर्थिक विषमता। वर्ष 1963 में, यानी आज से आधी सदी पहले भी हमारी संसद में इस विषय को लेकर बहस हुई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सुरक्षा-व्यवस्था पर 25 हज़ार रुपये प्रतिदिन खर्च होने का सवाल उठाते हुए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘पंद्रह आना बनाम तीन आना’ की आय का सवाल उठाया था। सरकार की ओर से कहा गया था कि देश की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय पंद्रह आना है, तब डॉ. लोहिया ने सरकारी आंकड़े देते हुए बताया था कि देश का नागरिक तीन आना प्रतिदिन पर गुज़र-बसर करने के लिए बाध्य है। पर तब की सरकार के मुखिया ने इसे मजाक में उड़ाने की कोशिश नहीं की थी। दुर्भाग्य से आज हमारी संसद में शोर-शराबे में समय अधिक व्यय होता है। कभी-कभार ही कोई गम्भीर बहस होती दिखाई देती है।
प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर विपक्ष की आलोचना का उत्तर देते हुए कई बार जवाहरलाल नेहरू को उद्धृत किया है। देश के पहले प्रधानमंत्री ने संसदीय जनतंत्र की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए, ‘काम के प्रति निष्ठा, सहयोग-सहकार की आवश्यकता, स्वानुशासन और संयम बरतने की महत्ता’ की बात कही थी। नेहरू से राजनीतिक विरोध हो सकता है पर उनके इस कथन की उपयोगिता और उपयुक्तता के बारे में संदेह नहीं किया जाना चाहिए।
सरकार के पास बहुमत है, अत: धन्यवाद प्रस्ताव तो पारित होना ही होता है। पर निस्संदेह यह एक ऐसा अवसर होता है जब हमारे सांसद, सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर गम्भीर चिंतन-मनन कर सकते हैं। पर, दुर्भाग्य से, अक्सर ऐसा होता नहीं। अक्सर अनावश्यक आरोप-प्रत्यारोप बहस पर हावी हो जाते हैं। इस मौके पर जिस गम्भीरता की आवश्यकता होती है, अक्सर उसका अभाव दिखता-खलता है। उस दिन लोकसभा में धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के दौरान एक स्थिति तो ऐसी भी आयी जब कोरम का खतरा उत्पन्न हो गया था। यह चिंता की बात है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस को विपक्ष और सत्तारूढ़ पक्ष दोनों को गम्भीरता से लेना होगा। सत्तारूढ़ पक्ष को यह तो दिख गया कि ‘दो भारत’ की बात उठाने वाला प्रधानमंत्री के उत्तर को सुनने के लिए उपस्थित नहीं था।
संसद जनतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है। उसकी महत्ता और पवित्रता की रक्षा करना जनतंत्र के हर नागरिक का कर्तव्य है। सांसदों का दायित्व और ज़्यादा होता है। संसद में होने वाली एक बहस के दौरान राजा गोपालाचारी के वक्तव्य का उत्तर देते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था, ‘मेरे साथ बहुमत है’। इस पर राजा जी ने कहा, ‘पर तर्क मेरे साथ है’। बहुमत का आदर होना चाहिए, पर बहुमत के नाम पर तार्किकता को अनावश्यक मानना भी तो गलत है। मात्र बहुमत कुछ भी कहने-करने का अधिकार नहीं देता। इसलिए, सरकारी पक्ष को विपक्ष के प्रति सम्मान का भाव रखना चाहिए और विपक्ष को भी मर्यादा में रहना चाहिए।