चेतनादित्य आलोक
जबसे मेरा टीवी बीमार हुआ है, कुछ भी करने का मन नहीं करता, और बेमन से किया गया कोई भी काम संतुष्टि नहीं देता। इसलिए जीवन एकदम नीरस हो गया है। एकाकीपने के इस दौर में बुढ़ापे का एकमात्र सहारा टीवी ही तो है, जो सुबह से रात तक पूरा साथ निभाता है। खैर, दिन भर तो जैसे-तैसे इधर-उधर करके काट भी लेता हूं, लेकिन रातें काटे नहीं कटतीं। रात भर करवटें बदल-बदलकर, कभी टहलकर तो कभी कुछ लिखते-पढ़ते हुए किसी तरह बिताने का प्रयास करता रहता हूं। वैसे मैंने टीवी बनवाने की भी कोशिश की थी, लेकिन मैकेनिक ने कह दिया कि बहुत पुराना माॅडल होने के कारण उसके कल-पुर्जे अब मिलते ही नहीं… और इस कहर बरपाती महंगाई के दौर में नया टीवी लेने की मेरी औकात नहीं। इसलिए किसी तरह समय बिताने के अतिरिक्त मेरे पास दूसरा चारा भी नहीं है।
आजकल टीवी को देखते ही मन में पुरानी स्मृतियां उभरने लगती हैं- वो सुबह भजनों पर गुनगुनाना… दोपहर में देश-दुनिया का हाल-चाल … शाम को प्रकृति से जुड़े कार्यक्रम… और रात को गीत-संगीत का आनंद उठाना। वैसे सप्ताहांत में कभी-कभी सिनेमा देखना भी मुझे अच्छा लगता है। रात यों ही सोचते-सोचते मन पुराने दिनों की मधुर स्मृतियों से भर गया। मैं सोचने लगा कि सचमुच कितने अच्छे दिन थे वे, जब दूरदर्शन पर महाभारत के शुरू होते ही मोहल्ले के सारे बच्चे एकत्रित होते। उनमें सिख, बौद्ध, जैन, मुस्लिम और ईसाई बच्चे भी शामिल रहते थे… और सभी साइलेंस मेंटेन करते थे। मुझे याद है कि कंस के मरने पर सभी खुश हुए थे और अभिमन्यु के मरने पर दु:खी। आपस में भेदभाव का स्थान नहीं होता था। एक-दूसरे से खुलकर मिलते थे, जबकि आजकल हम मिलने के बाद खुलने लगते हैं। कल की ही बात है। एक मित्र ने मिलते ही बताया कि कैसे मंदिरों को तोड़कर मुगलों ने मस्जिदें बनवायी थीं, जिस पर दूसरे मित्र ने कड़ा प्रतिरोध जताया।
बहरहाल, मैं रात भर सोचता रहा कि उन दिनों हम खुशी रूपी खाद और सद्भाव रूपी पानी का छिड़काव करके रिश्ते रूपी वृक्षों को बड़ा करते थे, जबकि आजकल हम प्रतिशोध के खाद एवं लापरवाही के पानी से उनका पालन-पोषण करने लगे हैं। टीवी की डिबेटों में नित्य होने वाले महाभारत को देखकर बड़ा दुःख होता है। जरा सोचिए कि एक वो महाभारत था, जिसके लिए सभी एक छत के नीचे एकत्रित होने पर मजबूर होते थे… और एक आजकल का महाभारत है, जो लोगों को साथ आने ही नहीं देता। समझ में नहीं आता कि वे अच्छे दिन हमारे थे या टीवी धारावाहिक के अथवा टीवी के। वैसे दिन किसी के भी अच्छे हों, मुझे तो इसी बात का संतोष है कि कम-से-कम अच्छे तो थे।