दुनिया में कोविड महामारी से हुई तबाही के बाद वैज्ञानिकों ने प्रकृति में मौजूद कोरोना वायरस के रिश्तेदारों की जोरशोर से तलाश शुरू कर दी है। यदि हम अभी से नहीं चेते तो भविष्य में नये वायरस मनुष्य जाति के लिए नयी मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। मनुष्यों में प्रकट हो रहे कोविड जैसे संक्रामक रोग उन वायरसों द्वारा उत्पन्न किए जा रहे हैं, जिनकी उत्पत्ति जानवरों की दूसरी प्रजातियों से हुई है। इस तरह के रोग जूनोटिक कहलाते हैं। यदि इस तरह के उच्च जोखिम वाले वायरसों की पहले से पहचान हो जाए तो ऐसे रोगों पर शोध और उनकी निगरानी में मदद मिल सकती है।
फ्रांस के पास्टर इंस्टीट्यूट और लाओस विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने लाओस के चमगादड़ों में कुछ ऐसे कोरोना वायरस देखे हैं जो कोविड फैलाने वाले वायरस के नजदीकी रिश्तेदार लगते हैं। उन्होंने उत्तरी लाओस की गुफाओं में 645 चमगादड़ों को पकड़ा। इन चमगादड़ों की स्क्रीनिंग करने पर उन्होंने तीन वायरसों का पता लगाया। बनाल-52, बनाल-103 और बनाल-236 नामक इन वायरसों का 95 प्रतिशत जीनोम (डीएनए समूह) सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इनमें से एक वायरस, बनाल-52 सार्स-कोव-2 से 96.2 प्रतिशत मिलता है। इस तरह बनाल-52 अन्य किसी वायरस के मुकाबले सार्स-कोव-2 से ज्यादा मिलता-जुलता है।
अभी तक आरटीजी13 वायरस को सार्स-कोव-2 के सबसे नजदीक माना जाता था। इस वायरस की खोज 2013 में हॉर्सशू चमगादडों में हुई थी। इस वायरस के जीनोम और कोविड फैलाने वाले वायरस के जीनोम में 96.1 प्रतिशत समानता है। सबसे खास बात यह है कि नये खोजे गए वायरस जीनोम के रिसेप्टर बाइंडिंग डोमेन (आरबीडी) के मामले में अन्य वायरसों की तुलना में सार्स-कोव-2 से ज्यादा मिलते हैं। ध्यान रहे कि सार्स-कोव-2 वायरस आरबीडी की मदद से ही मानव कोशिकाओं में दाखिल होता है।
इस बीच, ब्रिटेन में ग्लासगो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने एक नये अध्ययन में बताया है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के उपयोग से यह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि जानवरों को संक्रमित करने वाले वायरस से मनुष्य के संक्रमित होने का खतरा कितना होगा। इस तरह का पूर्वानुमान लगाने वाले एआई मॉडल वायरस के जीनोम सीक्वेंस का उपयोग करते हैं। ध्यान रहे कि जीनोम में जीव की आनुवंशिक सूचनाओं का संपूर्ण सेट होता है। इसमें डीएनए और जीन होते हैं। एक जीनोम में वे सभी सूचनाएं होती हैं जो जीव के फंक्शन करने के लिए जरूरी होती हैं। जीनोम में डीएनए के संपूर्ण क्रम के निर्धारण को जीनोम सिक्वेंसिंग कहा जाता है।
जूनोटिक रोगों के उदय से पहले ही उनकी पहचान करना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि जानवरों के करीब 16.7 लाख वायरसों में से बहुत ही कम वायरस मनुष्यों को संक्रमित कर सकते हैं। एआई मॉडल विकसित करने के लिए शोधकर्ताओं ने पहले 36 परिवारों की 861 वायरस प्रजातियों का डेटा तैयार किया। इसके पश्चात उन्होंने एआई मॉडल विकसित किए। इन मॉडलों को वायरस के जीनोम के पैटर्न के आधार पर मानव संक्रमण की संभावनाओं के बारे में शिक्षित किया गया। शोधकर्ताओं ने विभिन्न प्रजातियों के वायरस जीनोम की जूनोटिक रोग उत्पन्न करने की क्षमता का अध्ययन करने के लिए एआई के सर्वोत्तम मॉडल का उपयोग किया। बहरहाल इन एआई मॉडलों की भी सीमाएं हैं। मनुष्य को संक्रमित कर सकने वाले वायरसों को पहचानने के लिए कंप्यूटर मॉडलों का प्रयोग सिर्फ एक प्रारंभिक कदम है।
दूसरी तरफ, कोविड के इलाज के लिए ज्यादा प्रभावी दवाओं की तलाश जारी है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि दक्षिण अमेरिका में पाए जाने वाले ऊनी ऊंट, लामा द्वारा उत्पन्न एक खास तरह की सूक्ष्म एंटीबॉडी कोविड के इलाज में कारगर हो सकती है। इसे मरीज नाक में स्प्रे के जरिए ले सकता है। ब्रिटेन के रोजालिंड फ्रैंकलिन इंस्टीट्यूट के विज्ञानियों के नेतृत्व में की गई शोध से पता चलता है कि लामाओं और ऊंटों द्वारा उत्पन्न नैनोबॉडीज कोरोना वायरस को निशाना बना सकती हैं। एंटीबॉडी की तुलना में नैनोबॉडी बहुत छोटी होती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि नैनोबॉडी के मॉलिक्यूल्स की छोटी लड़ी संक्रमित जानवरों में कोविड के लक्षणों को कम करने में सफल रही है। इन मॉलिक्यूल्स का प्रयोगशाला में बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है। ये नैनोबॉडीज सेल कल्चर में कोराेना वायरस के साथ मजबूती के साथ जुड़ कर उसे निष्प्रभावी कर देती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ये नैनोबॉडीज कोविड के मरीजों से निकाली जाने वाली एंटीबॉडीज की तुलना में सस्ती पड़ेगी और इनका प्रयोग करना भी आसान होगा। ध्यान रहे कि कोरोना महामारी के दौरान अत्यंत गंभीर मामलों में मानव एंटीबॉडीज का प्रयोग हो चुका है। अस्पताल में मरीज को ये एंटीबॉडीज देने के लिए सूई की आवश्यकता पड़ती है। इंग्लैंड के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग का मानना है कि नयी शोध में कोविड के निवारण और उपचार की उज्ज्वल संभावनाएं हैं। विभाग के अनुसार ये नैनोबॉडीज सार्स-कोव 2 वायरस को निष्प्रभावी करने के लिए अब तक आजमाए गए तरीकों में सबसे ज्यादा कारगर हैं।
नयी शोध के प्रमुख लेखक प्रो.रे ओवेंस का कहना है कि नैनोबॉडीज कई मायनो में मानव एंटीबॉडीज से बेहतर हैं। इनका उत्पादन कम खर्चीला है। इन्हें नेबुलाइजर या नाक के स्प्रे के जरिए सीधे श्वास मार्ग में प्रविष्ट कराया जा सकता है। इसके लिए इंजेक्शन की जरूरत नहीं पड़ेगी। मरीज घर पर ही यह स्प्रे ले सकता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह कि यह दवा सीधे श्वास नली में संक्रमित स्थल पर पहुंचाई जा सकती है। शोधकर्ताओं ने नैनोबॉडीज के उत्पादन के लिए फिफी नामक लामा ऊंटनी को चुना। उन्होंने उसके शरीर में कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन का एक हिस्सा प्रविष्ट किया। फिफी को ब्रिटेन के रीडिंग विश्वविद्यालय के एंटीबॉडी उत्पादन केंद्र में रखा गया है। स्पाइक प्रोटीन वायरस के बाहरी हिस्से में पाया जाता है। वायरस इसी प्रोटीन के माध्यम से मानव कोशिकाओं के साथ जुड़ जाता है। इंजेक्शन से फिफी बीमार नहीं पड़ी लेकिन उसके इम्यून सिस्टम ने सक्रिय होकर वायरस से मुकाबला करने के लिए एंटीबॉडीज उत्पन्न कर दी।
शोधकर्ताओं ने लामा के खून से एक नमूना निकाल कर चार नैनोबॉडीज को शुद्ध किया। इन नैनोबॉडीज को तीन की लड़ियों में मिलाया गया। इससे वायरस के साथ जुड़ने की उनकी क्षमता में वृद्धि हो गई। इसके पश्चात प्रयोगशाला में कोशिकाओं के अंदर इनका उत्पादन किया गया। शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि नैनोबॉडीज की लड़ियां कोरोना वायरस के मूल वेरियंट्स के अलावा अल्फा और बीटा वेरियंट्स को निष्प्रभावी करने में कामयाब रहीं। जब नैनोबॉडीज की एक लड़ी कोरोना वायरस से संक्रमित हैमस्टर चूहों को दी गई तो उनमें बीमारी के लक्षण कम होने लगे। प्रो. ओवेंस का कहना है कि उनकी टीम द्वारा विकसित उपचार विधि भविष्य में प्रकट होने वाले वायरसों से निपटने में भी उपयोगी हो सकती है क्योंकि ऐसी स्थितियों में तत्काल नये उपचार विकसित करने होंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।