कृष्ण प्रताप सिंह
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर/ नीचे, ऊपर, हर जगह सुघर/ कैसी उजियाली है पग-पग/ जगमग-जगमग-जगमग-जगमग!/ छज्जों में, छत में, आले में/ तुलसी के नन्हे थाले में/ यह कौन रहा है दृग को ठग?/ जगमग-जगमग-जगमग-जगमग!/ पर्वत में, नदियों, नहरों में/ प्यारी-प्यारी सी लहरों में/ तैरते दीप कैसे भग-भग!/ जगमग-जगमग-जगमग-जगमग!/ राजा के घर, कंगले के घर/ हैं वही दीप सुंदर सुंदर!/ दीवाली की श्री है पग-पग/ जगमग-जगमग-जगमग-जगमग!
जी हां, जब हम-आप ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, देश स्मृतिशेष सोहनलाल द्विवेदी द्वारा बनाये गये दीपावली के इस शब्दचित्र को एक बार फिर साकार करने में व्यस्त है। उसकी यह व्यस्तता न सिर्फ देशवासियों के घरों-आंगनों की रंगाई-पुताई व साफ-सफाई बल्कि बाजारों की बढ़ी हुई रौनक में भी महसूस की जाने लगी है। की भी क्यों न जाये, दीपावली को प्रकाश का पर्व जरूर कहा जाता है और निस्संदेह, वह उसका है भी। मगर उसे समग्रता से यानी धनतेरस से भैया दूज तक पर्वों के गुच्छे के रूप में देखें तो वह जितना प्रकाश का पर्व है, उतना ही हमारे अंतर्मन की उजास और उल्लास का भी है। साथ ही व्यापार-वाणिज्य, सुख-समृद्धि और शुभ-लाभ का भी।
इसीलिए देश की अर्थव्यवस्था हो या उसके किसी घर की, उसका फेस्टिव सीजन यानी त्योहारी मौसम दीपावली से ही शुरू होता है। दीपावली आई नहीं कि उसकी उम्मीदें हरी होने लग जाती हैं। इस बार वह इस त्योहारी मौसम से कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रही है क्योंकि इससे पहले कोरोना का भीषण संक्रमण झेल चुकी है और अब बेसब्री से खुशियों के विस्तार की सख्त जरूरत महसूस कर रही है।
हम खुशियों के प्रसार की उसकी कोशिशों को परवान चढ़ाने में मदद कर सकते हैं, अगर दीपावली की खरीदारियों से पहले उसमें अपनी भूमिका को ठीक से समझ लें। बेशक हमारे पुरखे इसे हमसे बेहतर समझते थे। इस बात को भी कि उजास, उल्लास, सुख और समृद्धि सबके सब फैलाने और बांटने से ही बढ़ते हैं, अन्यथा नये अनर्थ गढ़ने लग जाते हैं। इसीलिए उन्होंने हमेशा शुभ लाभ की ही कामना की। यानी उतने ही लाभ की, जितना शुभ हो। दीप से दीप जलाने और इस तरह उन्हें अगणित कर असंख्य घरों को रोशन करने की परम्परा भी डाली। साथ ही ऋषियों-मुनियों की सामूहिकता के रास्ते लोकमंगल की नसीहत को गांठ बांधकर रखा।
मनीषियों की इस सीख को भी कि दीये जलाते वक्त यह नहीं भूलना चाहिए कि उसमें जलने वाला तेल किनके श्रम से पैदा हुआ है। समझना चाहिए कि उसका प्रकाश उन श्रमजीवियों की ही संतान है। इसी तरह भोजन करते समय उन सबके कल्याण की कामना करनी चाहिए, जिनके उपजाये अन्न व फल और दुहे दूध से भूख शांत होती है। उनके हितैषी बनने का संकल्प लेते हुए प्रार्थना करनी चाहिए कि नदियां बहें और बादल बरसें। साथ ही सारे पौधे फूले-फलें और सभी पेड़ फल दें।
इतना ही नहीं, उन सबकी समृद्धि में अपनी समृद्धि देखनी चाहिए, जिनके बुने कपड़े पहनते हैं, जिनके बनाये घरों में रहते हैं और जिनकी औषधियों से अपने स्वास्थ्य का संवर्धन करते हैं। कवि ने यह कहकर मनीषियों की इस सीख में ही नयी कड़ी जोड़ी है कि जलाओ दीये तो रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।
सच पूछिये तो ऐसा करके ही हम ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की अपने पूर्वजों को अभीष्ट दिशा में बढ़ सकते हैं और अपने देश व समाज की सच्ची सेवा कर सकते हैं। इस दीपावली पर हमारे पास यह सेवा करने का एक अद्भुत मौका है। हम इतना भर करके इस मौके का लाभ उठा सकते हैं कि दीपावली की खरीदारी के लिए बाजार जायें तो उनकी उगाई और बनाई चीजें घर लायें और उनकी मार्फत खुशियां मनायें, जो हमारी भूख मिटाने, सिर छुपाने, तन ढकने और सेहतमंद रहने के जतन करते हैं। इससे न सिर्फ आपकी बल्कि उनकी दीपावली भी शुभ होगी। संतोष भी हासिल होगा कि जो पूरे साल खुद चिंतित रहकर भी आपका इतना ख्याल रखते हैं, आपने भी दीपावली पर उनका थोड़ा ख्याल रखा।
आपको याद होगा, कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण हम सारे संसार से कट गये थे और अनेक उपभोक्ता वस्तुओं की सप्लाई चेन पूरी तरह टूट गई थी, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकल के लिए वोकल यानी मुखर होने और उसे ग्लोबल यानी विश्वव्यापी बनाने का आह्वान किया था। अभी स्वदेश निर्मित कोरोना टीकों से सौ करोड़ देशवासियों के टीकाकरण के बाद देश को सम्बोधित करते हुए भी उन्होंने ‘मेड इन इंडिया’ को जनांदोलन बनाने और स्वदेश निर्मित, दूसरे शब्दों में कहें तो लोकल वस्तुएं खरीदने को अपनी आदत में शुमार करने को कहा था।
उन्होंने यह आह्वान किया तो बहुत से लोगों को गुलामी के दौर का स्वदेशी आन्दोलन याद आया। 1905 में जोर पकड़ने वाले उस आन्दोलन के पीछे का दृष्टिकोण यह था कि देश का उद्धार विदेशियों को दरकिनार करके भारतीयों द्वारा उत्पादन व निर्माण तथा भारतीयों द्वारा खरीद के रास्ते से ही सम्भव है। आजादी के बाद के वर्षों में यह दृष्टिकोण बदल नहीं गया होता और हमने दूसरी दिशा में यात्रा नहीं शुरू कर दी होती तो प्रधानमंत्री को हमें फिर यह बात याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है। कोरोना के दौरान जिस तरह लोकल उत्पादों की अहमियत हमारी समझ में आई और प्रधानमंत्री ने उनके लिए वोकल होने और लोकल उत्पादन व सप्लाई चेन को मजबूत बनाने पर जोर दिया, उसके मद्देनजर हम किसी ब्रांड के आकर्षण में न फंसकर स्वदेशी यानी स्थानीय स्तर पर उत्पादित हो रही वस्तुओं को खरीदना व इस्तेमाल करना शुरू कर दें तो न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी बल्कि उसकी आत्मनिर्भरता का मार्ग भी प्रशस्त होगा, जो किसी भी विपत्ति की घड़ी में हमारा अवलम्ब बनेगा। साथ ही देशवासियों के जीवनस्तर में सार्थक परिवर्तन भी देखने को मिलेगा। खासकर उनका जो हमारे लिए विविध वस्तुएं बना और उगाकर या नाना सुविधाएं जुटाकर हमारा जीवनयापन सुगम बनाते हैं।
उत्पादन, निर्माण और विपणन का यह सिलसिला चल निकला तो नौकरियों व रोजगारों की कमी को भी पूरा करेगा और अन्य देशों की कंपनियों पर निर्भरता घटायेगा और हम लोकल से ग्लोबल बनने का सपना देख पायेंगे। लेकिन यह सपना तभी पूरा होगा जब प्रधानमंत्री अपने आह्वान को अपने नीतिगत निर्णयों के बल से भी बली करें। जबानी जमा खर्च तक सीमित रहकर तो वह किसी मंजिल तक पहुंचने से रहा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।