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स्वतंत्रता आंदोलन के जीवंत दस्तावेज

आज़ादी का साहित्य
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प्रेम सिंह

उपनिवेशवादी वर्चस्व के खिलाफ हुआ 1857 का विद्रोह, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, एक बड़ी घटना थी। अंग्रेजों का डर कह लीजिए या देश-भक्ति और राज-भक्ति का द्वंद्व, 1857 का संग्राम लंबे समय तक शिष्ट-साहित्य के रचयिताओं की कल्पना से निर्वासित रहा। जबकि लोक-साहित्य में उसकी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज हुई। ‘नवजागरण के अग्रदूत’ भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1857 का केवल एक अर्द्धाली– ‘कठिन सिपाही द्रोह अनलजा जनबल नासी/ जिन भय सिर न हिलाई सकत कहुं भारतवासी’ में उल्लेख किया है।

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इसके विपरीत कई ब्रिटिश लेखकों ने 1859 से 1964 के बीच 1857 के ‘ग़दर’ पर आधारित 50 से अधिक उपन्यास-फिक्शनल अकाउंट्स लिखे। (शैलेंद्रधारी सिंह, नोवेल्स ऑन दि म्यूटनी, अर्नोल्ड-हेनमन इंडिया, दिल्ली, 1973) गौतम चक्रवर्ती ने अपने अध्ययन में ब्रिटेन में 1859 से 1947 के बीच लिखे गए 70 उपन्यासों को शामिल किया है। (दि इंडियन म्यूटनी एंड ब्रिटिश इमेजिनेशन, कैंब्रिज, दिल्ली, 2005) 73 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद ऋषभ चरण जैन ने 1857 के विद्रोह पर पहला हिंदी उपन्यास ‘ग़दर’ (1930) लिखा, जिसे ब्रिटिश सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया था। इसके पहले मिर्जा हादी रुस्वा के उर्दू उपन्यास ‘उमराव जान अदा’ (1899) पर 1857 के विद्रोह की छाया मिलती है। ‘ग़दर’ के बाद भी अंग्रेजी व अन्य भारतीय भाषाओं में 1857 के संग्राम पर केंद्रित उपन्यास गिनती के हैं।

भारत छोड़ो आंदोलन भारत की एक बड़ी घटना थी। उसने भारतीय लेखकों की कल्पना को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया। भारत छोड़ो आंदोलन पर आधारित ‘1942’ (1950) के लेखक कु. राजवेलु (तमिल), ‘घरडीह’ (1975) के लेखक नित्यानंद महापात्र (उड़िया), ‘मैला आंचल’ (1954) के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु आदि ने कारावास की सजा भी काटी। विभाजन-साहित्य के बाद साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना के रूप में भारत छोड़ो आंदोलन का चित्रण रहा है।

सोवियत रूस के दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल होने पर भारत के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने साम्राज्यवादी युद्ध को ‘जन-युद्ध’ घोषित करते हुए भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध और अंग्रेजों का साथ देने का फैसला किया। फलत: कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषा व कसौटी को लेकर भ्रम और द्वंद्व का शिकार हुए। सतीनाथ भादुड़ी के ‘जागरी’ (1945), चार खंडों में लिखित समरेश बसु के ‘जुग जुग जिए’ (1977), यशपाल के ‘देशद्रोही’ (1943), ‘गीता पार्टी कामरेड’ (1946) और अंतिम महाकाय उपन्यास ‘मेरी तेरी उसकी बात’ (1979) में इस टकराहट का विस्तृत और बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य के ‘मृत्युंजय’ (1970) में कुछ हद तक चित्रण मिलता है।

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत अवस्था के अंतिम महीनों में लोहिया ने अपना लंबा किंतु अधूरा निबंध ‘इकॉनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ (मार्क्सोत्तर अर्थशास्त्र) लिखा। लोहिया की जीवनीकार इंदुमति केलकर ने इस लेख के उद्देश्य के बारे में लोहिया को उद्धृत किया है—‘1942-43 की अवधि में ब्रिटिश सत्ता के विरोध में जो क्रांति आंदोलन चला उस समय समाजवादी जन या तो जेल में बंद थे या पुलिस पीछे पड़ी हुई थी। यह वह समय भी है जब कम्युनिस्टों ने अपने विदेशी मालिकों की हां में हां मिलाते हुए ‘लोक-युद्ध’ का ऐलान किया था। कई असंगतियों से ओतप्रोत मार्क्सवाद के प्रत्यक्ष अनुभवों और दर्शनों से मैं चकरा गया। तभी मैंने तय किया कि मार्क्सवाद के सत्यांश की तलाश करूंगा।

जाहिर है, कम्युनिस्टों को लोहिया की ये टिप्पणी और ‘इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ निबंध नागवार गुजरे होंगे। दूधनाथ सिंह के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ (2006) में कम्युनिस्ट प्रतिक्रिया की एक झलक देखने को मिलती है। भारत छोड़ो आंदोलन पर लिखे गए सभी उपन्यासों में सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट टकराहट प्रमुख थीम नहीं है। आरके नारायण का ‘वेटिंग फॉर दि महात्मा’ (1955) इस थीम की मार्मिक अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण उपन्यास है। भारत छोड़ो आंदोलन का समय 1943 के भीषण बंगाल अकाल के लिए भी जाना जाता है। भबानी भट्टाचार्य के उपन्यास ‘सो मेनी हंगर्स’ (1947) में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जान-बूझकर पैदा किए गए अकाल से उपजी भूख और आजादी की भूख को सन्निधान में रखकर औपन्यासिक संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है।

भारतीय उपन्यासों में भारत छोड़ो आंदोलन का चित्रण दर्शाता है कि आंदोलन भारत की जातीय स्मृति का हिस्सा है; और इस नाते उसमें रचनात्मक अंतर्वस्तु की प्रचुर संभावनाएं निहित हैं। सताकादि होता का उपन्यास ‘मुक्ति युद्ध’ (2021), खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘आई शैल नॉट हियर दि नाइंटिगल’ (1968) का हिंदी अनुवाद ‘बोलेगी ना बुलबुल अब’ (2014) इसका संकेत कहे जा सकते हैं। ये दोनों उपन्यास भारत छोड़ो आंदोलन पर आधारित हैं।

लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं।

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