ज़िंदादिल विद्यार्थी ही निकलें विश्वविद्यालयों से
कुछ दिन पहले जब मैंने दिल्ली की साउथ एशियन यूनिवर्सिटी (एसएयू) के चार शिक्षकों के निलंबन की खबर पढ़ी, मुझे झटका तो लगा पर अनावश्यक हैरानी भी नहीं हुई। खैर, ये सब प्रोफेसर, जितना मैं जानता हूं, अपने-अपने विषय में महारत रखते हैं। लेकिन वे तथाकथित ‘विशुद्ध मूल्य-निर्लेप’ व्यावसायिक अध्यापक बनने की बजाय अंतरात्मायुक्त असली शिक्षक बनें, वह जो अपने विद्यार्थियों के साथ खड़ा हो और घुल-मिलकर रहे। कोई आश्चर्य नहीं कि छात्र अपनी मासिक छात्रवृत्ति घटाए जाने का विरोध कर रहे थे और कुछ ‘वैधानिक समितियों’ में अपने प्रतिनिधियों को शामिल करने की मांग भी थी। निलंबित अध्यापकों ने विश्वविद्यालय प्रशासन से छात्रों से वार्ता करने और इस आंदोलन को महज कानून-व्यवस्था समस्या ठहराकर पुलिस के हाथों निपटाने की बजाय मसले का हल सहज तरीके से निकालने का आह्वान किया था।
एक शिक्षक अस्पताल में भर्ती उस छात्र का हाल जानने पहुंचे, जो आंदोलन के दौरान गंभीर रूप से बीमार पड़ा। एक अच्छे समाज में, इन गुणों और नीयत के लिए उक्त शिक्षकों की बल्कि प्रशंसा होती। पर, हम अलग वक्त में जी रहे हैं जिसने हर चीज़ को उलटकर रख दिया है : नैतिकता को अनैतिकता में, संवेदनशीलता को व्यावसायिकता में और छात्रवृत्ति को बेरपरवाही में। इसलिए, जैसा कि मैं सोचता हूं, उनका निलंबन होना ही था क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन से उनकी ऐसी ‘उद्दंडता’ आखिर कैसे सहन होती!
खैर, यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस किस्म के अनुशासनात्मक उपायों से विश्वविद्यालय प्रशासन शिक्षक समुदाय को दो संदेश देना चाहता है- (अ) बतौर अध्यापक, आपको अपनी सीमाओं का भान होना चाहिए, अपनी मोटी तनख्वाह लो, चुप रहो और कक्षा में ‘राजनीति मत लाओ’, वर्ना दंडात्मक कार्रवाई के लिए तैयार रहो। (ब) हमारे निगरानी तंत्र को हल्के में मत लो, वह निरंतर आप लोगों पर नज़र रखता है, आपका हर काम और हरकत उसे पता रहती है और जिन ‘मार्क्सवादी अध्ययन परिधि’ जैसे ‘कट्टर मंचों’ से आप जुड़े हैं, उसका भी ब्योरा हमारे पास है। वास्तव में, इन जुड़वां संदेशों से डर बैठाने का मनोवैज्ञानिक दबाव आगे जोर पकड़ेगा और अधिकांश शिक्षक ‘बचकर रहो’ वाला रवैया अपनाएंगे या कूटनीति से काम लेंगे या फिर अपनी खामोशी से प्रशासन को और ज्यादा निरंकुश बनने को उकसाएंगे।
जब मैंने 1990 के दशक में अध्यापन का पेशा चुना था, तो मैं विश्वविद्यालय रूपी संस्था के उच्च आदर्शों से प्रेरित था। एक विश्वविद्यालय, जैसा कि मैं सोचता हूं, विद्यार्थियों और अध्यापकों का एक जीवंत और जिंदादिल समुदाय होना चाहिए, जहां दोनों साथ-साथ चलें; ‘अध्यापन-शास्त्र’ के मुताबिक सीखें और भूल सुधार करें; जहां अर्थपूर्ण अनुसंधान होता हो, जहां पर संस्कृति, राजनीति पर निरंतर बहस और संवाद चलता रहे, और एक न्यायपूर्ण एवं मानवीय दुनिया बनाने के लिए नाना प्रकार के विरोध करने के तौर-तरीकों पर विचार हो। शिक्षक मुक्त विचारों और आज़ादी भरे माहौल में फल-फूल सकें। मैं जानता हूं मेरे इस आदर्श का मजाक उड़ाया जाएगा और इन दिनों विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ता बने बैठे ‘तकनीकी-प्रशासक’ इसको बकवास ठहराएंगे। कारण यह कि नव-उदारवाद का औजारी तर्क विश्वविद्यालयों को राजनीतिहीन बनाना चाहता है, बल्कि वे इन्हें एक ऐसे ब्रांड में तब्दील करना चाहते हैं, जो बाजार चालित ‘उत्पादकता एवं दक्षता’ वाले मंत्र से चले, छात्र एक ‘उपभोक्ता’ तो अध्यापक महज ‘सेवा-प्रदाता’ हो। इन परिस्थितियों में, अध्यापन-शास्त्र की उस भावना, जिसकी परिकल्पना पाओलो फ्रेरे और बेल हुक्स ने की थी, को बनाए रखना उत्तरोत्तर मुश्किल होता जाएगा। इसकी बजाय, उनके लिए एक अध्यापक या प्रोफेसर को ‘मूल्य-निर्लेप’ होना चाहिए। राजनीति उनके लिए भटकाव है, वे केवल शोधपत्र प्रकाशित करें, अपने दिमाग में बस ‘प्रशस्ति पत्र सूची’ और इसके ‘प्रभाव अवयव’ का गणित पाले रखें और विश्वविद्यालय की ‘रैंकिंग’ बढ़ाएं! वहीं विद्यार्थियों को केवल अपने ‘उपयोगिता उद्देश्यों’ के बारे में सोचना चाहिए।
शायद, एसएयू भी इसी तर्क पर चल रहा है। कोई हैरानी नहीं कि जिन छात्रों ने आवाज़ उठाई थी उन्हें ‘शरारती तत्व’ की तरह लिया जा रहा है और चार शिक्षकों का निलंबन संकेत है कि यदि आप ‘गड़बड़ी फैलाने’ वाले विद्यार्थियों के साथ नज़र आए, तो मुश्किल में पड़ना तय है। एक प्रकार से, शिक्षकों का निलंबन अलहदा करके नहीं देखा जा सकता।
इससे आगे, जैसा कि भारत एक प्रकार से निर्वाचित-अधिनायकवाद की ओर अग्रसर है, हमें ‘बुद्धिजीवी-घृणा’ वायरस से पैदा हुआ नए किस्म का संकट देखने को मिल रहा है। आप न तो आलोचनात्मक हो सकते हैं। न ही प्रशासनिक व्यवस्था से सवाल पूछ सकते हैं। विकास, राष्ट्रवाद और धर्म को लेकर जो घुट्टी बलात् पिलाई जाए, स्वीकार करें। आश्चर्य नहीं कि असहमति का हल्का-सा संकेत मिलने पर उसे आपराधिक माना जा रहा है! भारत में सब जगह विश्वविद्यालय प्रशासन जरूरत से ज्यादा सतर्क हो रहे हैं, किसी किस्म की वह गतिविधि, चाहे यह ‘अध्यापन-शास्त्र सम्मत’ क्यों न हो, कोई सांस्कृतिक या राजनीतिक गतिविधि, जो सत्तारूढ़ निजाम से सवाल करे या आलोचनात्मक विचारों को प्रोत्साहित करने वाली हो या फिर एकदम नयी जीवन-शैली हो, की इजाज़त नहीं है।
मुझे लगता था कि एसएयू– जो कि दक्षेस राष्ट्रों की संयुक्त पहल है– गुणात्मक रूप से अलग किस्म की होगी। वास्तव में, मैं वहां कई अवसरों पर गया हूं, वहां बांग्लादेश, नेपाल, अफगानिस्तान और भारत के युवा विद्यार्थियों से हुआ संवाद बहुत संतोषप्रद रहा। खूब पढ़े और युवा अध्यापकों की उपस्थिति देखकर हर्ष हुआ। क्या एसएयू अपनी सार्वभौमिकता खोता जा रहा है, जो सरकार से मिले संकेतों पर किसी अन्य भारतीय विश्वविद्यालयों की भांति अमल करे। क्या वहां केवल सुविधाभोगी और गैर-राजनीतिक एवं व्यवसाय केंद्रित अध्यापक होने चाहिए या फिर परम राष्ट्रभक्त?
निलंबित अध्यापकों के प्रति मेरी दिली सहानुभूति है। आगे चिंता यह है कि मोबाइल फोनधारी और सिर्फ अपनी धुन में अग्रसर भारतीय मध्य-वर्ग कोई जोखिम उठाने से झिझक रहा है और अपनी संकुचित चिंताओं में जीने को तरजीह दे रहा है– मेरी नौकरी, मेरा करिअर, मेरी सुरक्षा, मेरा परिवार, मेरी कार, मेरा अपार्टमेंट, मेरी किस्तें– ऐसे में गुंजाइश कम है कि निलंबित चार पीड़ितों को शेष शिक्षक बिरादरी से ठोस और टिकाऊ भावनात्मक एवं राजनीतिक सहायता मिल पाए। अपनी एकांगी लड़ाई में वे नुकसान भुगतेंगे- आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक। हालांकि, मुझे यकीन है कि जीवन में आया यह मोड़ उन्हें अधिक दृढ़-निश्चयी करेगा, अपने तर्क पर अड़े रहने की मजबूती देगा और निराशा भरे इस समय से उबरने वाला योद्धा बनने में मददगार होगा।
लेखक समाजशास्त्री हैं।