Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

जैसे नैहर से हो विदाई

ब्लॉग चर्चा

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

प्रतिभा कटियार

इन दिनों आंखें नम रहती हैं। सबसे इनकी नमी छुपाती हूं। गर्दन घुमाती हूं। बातें बदलती हूं कि कोई सिसकी कलाई थाम लेती है। फिर तन्हाई चुराती हूं थोड़ी सी। जाने कैसी उदासी है... जाने कैसा मौसम मन का। इन दिनों ऐसे ही सुखों से घिरी हूं कि आंखें डबडब करती रहती हैं। मुझे प्यार की आदत नहीं पड़ी है। सुख की आदत नहीं पड़ी शायद। जब भी अपनेपन, सम्मान, स्नेह की बारिशें मुझे भिगोती हैं मैं उदास हो जाती हूं। कहीं छुप जाना चाहती हूं। मेरी आंखों में जो गिने चुने सपने, जीवन में जो गिनी चुनी ख्वाहिशें थीं उनमें एक थी विनोद कुमार शुक्ल से मिलने की ख्वाहिश। इस बार यात्रा की बाबत वहां से लिखूंगी।

Advertisement

उस अंतिम दृश्य से जो आंखों में बसा हुआ है, फ्रीज हो गया है -रायपुर में विनोद जी के घर से विदा होने का वक्त। उनका वो जाली के पीछे खड़े होकर स्नेहिल आंखों से हमें देखना और कहना ठीक से जाना, फिर आना। सुधा जी के गले लगना, शाश्वत का कहना मैं चलता हूं छोड़ने। जैसे नैहर से विदा होती है बिटिया कुछ ऐसी विदाई थी। लौटते समय हम इतने खामोश थे कि हमारी ख़ामोशी के सुर में हवा का खामोश सुर भी शामिल हो गया था।

Advertisement

जब रायपुर जाने की योजना बनी तब हर तरफ से एक ही बात सुनने को मिली, कैसी पागल लड़की है, जब सारी दुनिया गर्मी से राहत पाने को पहाड़ों की तरफ भाग रही है ये पहाड़ छोड़कर रायपुर जा रही। … मैंने ज़िन्दगी से जो सीखा या जाना वो यह कि सवाल पूछकर हमें तयशुदा जवाब मिल जाते हैं लेकिन सवाल न पूछकर, संवाद कर हमें उन सवालों के पार जानने का अवसर मिलता है। इसलिए मैं सवाल करने से बचती हूं, बात करने को उत्सुक होती हूं। वो यादें हैं अभी भी। उनके साथ हुई बातचीत में जिक्र आया मानव कौल का। रिल्के और मारीना का। डॉ. वरयाम सिंह जी का, नरेश सक्सेना जी का, नामवर सिंह जी का। यह बातचीत बहुत आत्मीय हो चली थी।

मुझे शिवानी जी से हुई मुलाकात याद आई जब बमुश्किल उनसे मिलने का थोड़ा सा वक्त मिला था क्योंकि वो लम्बे समय से बीमार चल रही थीं लेकिन जब उनसे मुलाकात हुई तो घंटों बात हुई। सोचती हूं तो रोएं खड़े हो जाते हैं, ऐसा क्या है मुझमें आखिर, कितना लाड़ मिला मुझे सबका। शहरयार, निदा फाजली, नीरज, गुलज़ार, जगजीत सिंह... कितने नाम... कितना स्नेह। ये सब लोग मेरे लिए लोग नहीं स्नेह का दरिया हैं। शायद इसी स्नेह ने मुझे संवारा। मुझमें जो कुछ अच्छा है (अगर है तो) उसमें इन सबका योगदान है। इस पूरी मुलाकात में सुधा जी का जिक्र बेहद जरूरी है कि उनकी प्रेमिल हथेलियों की गर्माहट साथ लिए आई हूं, शाश्वत की सादगी और सरलता की छवि कभी नहीं बिसरेगी मन से।

साभार : प्रतिभा कटियार डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम

Advertisement
×