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नियति के प्रवाह संग बहने से ही जीवन उत्सव

अंतर्मन

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इस सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी चेतन या जड़ है, वह सब परमात्मा से ओत-प्रोत है। इसलिए मनुष्य को त्याग की भावना से उनका उपयोग और उपभोग करना चाहिए।

भारतीय जीवन दर्शन की परंपरा में जीवन की नश्वरता के यथार्थ को गंभीरता के साथ स्वीकार किया गया है। हमें बताया गया है कि यदि जन्म और मृत्यु पर जब हमारा नियंत्रण नहीं है तो इसके बीच घटने वाले घटनाक्रम पर दंभ कैसा? संत कबीर भी देह की क्षण भंगुरता को कुछ इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं—‘पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात/ देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात॥

अर्थात‍् मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले की तरह है जो पल भर में बनता और नष्ट हो जाता है। यह देह भी उसी तरह क्षणभंगुर है। एक दिन वैसे ही विलीन हो जाएगी, जैसे सुबह होते ही आकाश के तारे छिप जाते हैं। इस दोहे के माध्यम से कबीर यह संदेश देते हैं कि मनुष्य को अपने धन-दौलत और दूसरे भौतिक सुखों पर कभी अहंकार नहीं करना चाहिए। जब शरीर ही अपना नहीं है और एक दिन नष्ट हो जाना है तो सांसारिक वस्तुओं और उपलब्धियों पर गर्व करना मूर्खता है।

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जीवन के अनुभवों से तपा हुआ निष्कर्ष है कि ‘इंसान बहुत पैसा कमा व नाम कमा ले’ ये सब बाहरी चीजें हैं। जो चीज बाहर से आती है वो छीनी जा सकती हैं। फिर उसका क्या गुमान? ये सोचकर सरलता आती है कि जो पाया है वो यहीं रह जाना है। विडंबना यही है कि इस शाश्वत को जानते हुए भी मनुष्य सदियों से अज्ञान की गलियों में भटक रहा है। ‘नश्वरता’ का बोध भारतीय चिंतन की गहन धारा में विद्यमान है। इसी चिंतन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को इस प्रकार समझाया—‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥’

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अर्थात‍् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रो को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर को ग्रहण करती है।

यह श्लोक अस्तित्व की सबसे बड़ी सच्चाई है। जब इस शरीर को ही एक दिन पुराने वस्त्र की भांति त्यागना है, तो फिर इस वस्त्र पर लगे चमकीले सितारों-धन, कीर्ति, पद प्रतिष्ठा का क्या अहंकार करना। बाहरी उपलब्धियां तो क्षणभंगुर हैं जो शरीर रूपी वस्त्र के छूटने के साथ ही समाप्त हो जाती हैं। अगर नश्वरता का यह बोध हो जाए तो फिर अहंकार पिघल कर सहजता और सरलता में बदल जाता है। इस मायावी जगत में मनुष्य का सबसे बड़ा भ्रम ‘मेरे’ की भावना है। ‘मेरा घर’, ‘मेरी गाड़ी’, ‘मेरा पद’—इस ‘मेरा-तेरा’ के भ्रम में फंसकर मनुष्य जीवनपर्यंत परेशान रहता है। ‘ईशावास्योपनिषद्’ (शुक्ल यजुर्वेद) का पहला ही मंत्र इस ‘मेरे’ के भ्रम को तोड़ता है—

‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत‍्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम‍्॥’

इस श्लोक में बताया गया है कि इस सम्पूर्ण जगत में जो कुछ भी चेतन या जड़ है, वह सब परमात्मा से ओत-प्रोत है। इसलिए मनुष्य को त्याग की भावना से उनका उपयोग और उपभोग करना चाहिए। किसी के धन की लालसा नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह वास्तव में किसी का नहीं। इस जगत में न तो कुछ अपना है और न ही स्थाई। यह मंत्र हमे ‘स्वामी’ होने के दंभ से मुक्त करता है और ‘संरक्षक’ होने की विनम्रता सिखाता है। सच्चाई यही है कि हम इस दुनिया में किसी वस्तु के मालिक नहीं, बस केवल संरक्षक हैं। यहां हमें कुछ समय के लिए कुछ चीजों का उपयोग करने की जिम्मेदारी दी गई है, अगर एक बार यह दृष्टि विकसित हो गई तो व्यक्ति संग्रह की प्रवृत्ति को छोड़कर त्याग करना सीख जाता है। फलस्वरूप उसके व्यवहार में अहंकार के स्थान पर विनम्रता, कृतज्ञता, सहजता और सरलता आ जाती है।

सहज और सरल जीवन जीने के लिए महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन में दो महत्वपूर्ण सूत्र दिए हैं—एक अष्टांग योग में यम के अंतर्गत आने वाला ‘अपरिग्रह’ है और दूसरा नियम के अंतर्गत ‘संतोष’। अपरिग्रह का अर्थ है—आवश्यकता से अधिक धन संग्रह न करना। अपरिग्रह हमे सिखाता है कि हम वस्तुओं के प्रति आसक्ति न रखें। यह एक गहन आंतरिक भाव है जो ‘मेरे’ के भ्रम पर सीधी चोट करता है। संतोष से व्यक्ति वर्तमान में जो है, जैसा भी है उसमे संतुष्ट रहता है। पतंजलि कहते हैं—‘संतोषादनुत्तमः सुखलाभ।’ अर्थात‍् संतोष से परमसुख की प्राप्ति होती है।

अब चाहे गीता का निष्काम कर्म हो, उपनिषदों का त्याग भाव या पतंजलि का संतोष और अपरिग्रह। कुल मिलाकर देखें तो ये सभी सूत्र हमें एक ही दिशा में ले जाते हैं—‘जीवन को अधिक सहजता से लेना।’ यह गहन धार्मिक समझ अंग्रेजी की इस उक्ति में सिमट जाती है—‘टेक लाइफ ईजी ऐज़ इट कम्स’ अर्थात‍् जीवन को सहज भाव से जीना चाहिए। यानी वह जैसा भी है उसे उसी सहजता से स्वीकार कर लेना चाहिए। सहज भाव संतोष और स्वीकृति का शिखर होता है। इस भाव में न तो मन में कोई गांठ होती, न किसी से कोई शिकायत। बस जो भी हो रहा है उसके प्रति सहज साक्षी भाव होता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हम इस संसार के विराट नाटक के एक पात्र मात्र हैं, इसलिए नियति के प्रवाह के साथ बहना सीखें। जब हम जीवन को सहज भाव से लेने लगते हैं तो हर क्षण एक उत्सव होता है। फिर अंतर्मन सहजता, सरलता से भर उठता है।

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