जीवन का मूल्य बाहरी उपलब्धियों, धन-दौलत व पद प्रतिष्ठा आदि में कभी नहीं रहा है, ये सेवा के लिए जीवन के सहज अवलम्बन हो सकते हैं, जीवन उद्देश्य नहीं।
मनुष्य जीवन कितना बेशकीमती है, इसका सामान्यतः अहसास नहीं हो पाता, क्योंकि यदि अहसास होता तो यह बहुमूल्य उपहार यूं ही व्यर्थ नष्ट नहीं होता। दुर्व्यसन से लेकर नशा एवं आत्मघाती कृत्यों के साथ जीवन लीला को अपने हाथों से नष्ट करते समाचार नित्य सुर्खियों में होते हैं। इसके साथ भ्रष्टाचार से लेकर आतंक और आपराधिक गतिविधियों के समाचारों के साथ देवत्व एवं ईश्वरत्व की संभावनाओं से युक्त मनुष्य जीवन को पतन-पराभव के गर्त में गिरते देखा जा सकता है। बिना सार्थकता की अनुभूति के जीवन की ऐसी दुर्गति को एक त्रासद दुर्भाग्य ही माना जाएगा।
जबकि मनुष्य जीवन में सुख-शांति व सृजन के अभूतपूर्व रोमांच की अनंत संभावनाएं हैं। हर इंसान इनकी कल्पना भी करता है, नाना रूपों में पाने की चेष्टा करता है, लेकिन जीवन की सही समझ के अभाव में वह दिशा भटक जाता है और ये संभावनाएं अधूरी ही रह जाती हैं। जिस संतुष्टि, स्वतंत्रता व आनंद की कल्पना मनुष्य बाहरी सम्पदा, मोह-ममता और सत्ता सुख में करता है, वे भी अंततः मृगमारिचिका बनकर पहुंच से दूर हो जाती हैं और जीवन के अंतिम पलों में हाथ कुछ नहीं लगता। बिना किसी सार्थक निष्कर्ष के मानव जीवन के इस अवसान को एक दुर्घटना ही कहा जाएगा।
भारतीय परंपरा में मनुष्य जीवन को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ उपहार कहा गया है और इसे दुर्लभ माना गया है। देवता भी मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के लिए तरसते हैं, क्योंकि इसी में वे संभावनाएं मौजूद हैं, जो आत्मतत्व को जाग्रत करते हुए सकल मानवीय सीमाओं एवं दुख को तिरोहित कर सके और जीव से शिव, नर से नारायण की यात्रा सम्पन्न करते हुए अंततः परमात्मा के प्रतिरूप आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर सके। भारतीय परंपरा में जीवन का मूल्य बाहरी उपलब्धियों, धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा आदि में कभी नहीं रहा है, ये सेवा के लिए जीवन के सहज अवलंबन हो सकते हैं, जीवन उद्देश्य नहीं। क्योंकि यदि इनके रहते भी व्यक्ति अशांत, असंतुष्ट, परेशान और जीवन के आनंद से वंचित है, तो यह घाटे का सौदा माना जाएगा। आश्चर्य नहीं कि बुद्ध भगवान से लेकर महावीर, नानक, कबीर और महर्षि रमण जैसे ऋषितुल्य शिखर पुरुष शांति, आनंद व धन्यता की खोज में किसी बाहरी सुख, सुविधा व सत्ता के मोहताज नहीं रहे, बल्कि इन सबका त्याग करते हुए जीवन के परमलाभ को प्राप्त हुए और आज भी प्रेरणा के प्रकाशपुंज बनकर जीवन जीने का कालजयी संदेश दे रहे हैं।
इन सबका एक ही संदेश रहा कि जीवन की असली संपदा इंसान के अंदर कस्तुरी मृग की तरह छिपी पड़ी है। भ्रम की मृगमारिचिका के कारण वह इसे बाहर ढूंढ़ता फिर रहा है। वासना, तृष्णा और अहंकार के नागपाश में बंधकर वह जीवन की सुख-संतुष्टि की तलाश बाहर खोजने के लिए प्रेरित हो रहा है, लेकिन उसका हर प्रयास चूक जाता है और अंततः जब समय आता है तो काफी देर हो चुकी होती है। यदि समय रहते इसकी समझ और अंतर्दृष्टि विकसित की होती, तो हाथ में कुछ सार्थक लगता, जिसकी वह चिरकाल से प्रतीक्षा कर रहा था।
लकड़हारे की कहानी प्रख्यात है कि उसे राजा द्वारा उसके उपकार के लिए उपहार के रूप में एक चंदन का जंगल भेंट में मिलता है। राजा को आशा थी कि अब उसकी गरीबी दूर हो जाएगी और वह एक खुशहाल जीवन जीएगा। लकड़हारा इस वन से पेड़ काटकर, इसका कोयला बनाता और पास के शहर में जाकर बेच आता था। यह सिलसिला कई माह और वर्षों तक चलता रहा, और वह अपनी झोपड़ी में इससे मिलने वाली धनराशि से गुजर-बसर करता रहा।
जब एक दिन राजा जंगल में शिकार करते हुए वहां से गुजरता है, तो आश्चर्यचकित होता है कि लकड़हारा उसी झोपड़ी में रह रहा है, जबकि उसे उम्मीद थी कि वह अब तक सम्पन्न हो गया होगा। अब वहां कुछ पेड़ बचे थे। राजा ने पूरा हाल-चाल पूछा तो माथा ठोककर रह गया और लकड़हारे को समझाया कि यह चंदन का पेड़ है, जिसका एक पेड़ भी इसकी दरिद्रता को दूर करने के लिए पर्याप्त था। लकड़हारा अपनी मूर्खता पर पछताता है और बचे वृक्षों का सदुपयोग करते हुए शेष जीवन को सम्पन्नता एवं धन्यता के साथ गुजारता है।
यही कहानी हर इंसान की है, जिसे ईश्वर ने वे सारी क्षमताएं, विभूतियां बीज रूप में प्रदान की हैं —एक स्वस्थ-सबल काया, कम्प्यूटर से भी तेज चलने वाला मस्तिष्क, वायु से भी तीव्र मन, किसी भी समस्या को भेदने में सक्षम बुद्धि, प्रेरणा के अजस्र स्रोत भावनाएं, अस्तित्व के हर रहस्य को भेदने में सक्षम अंतरप्रज्ञा, किसी भी कल्पना को मूर्त करने में सक्षम इच्छा शक्ति। और साथ में समय के रूप में सबको चौबीस घंटे, जिनका सदुपयोग करते हुए वह अपनी मनचाही सृष्टि का सृजन कर सकता है।
देर इन क्षमताओं के प्रति जागने भर की है, नित्य अपने आंतरिक मन में झांकने की है, आत्मनिरीक्षण करते हुए इसमें बाधक आंतरिक एवं बाह्य तत्वों को पहचान कर दूर करने भर की है। नित्य स्वाध्याय, सत्संग एवं आत्मचिंतन-मनन के प्रकाश में प्राप्त अंतर्दृष्टि के आधार पर वह इसे सहजता से कर सकता है और जीवन शैली में आवश्यक परिवर्तन करते हुए, व्यक्तित्व में अभीष्ट पात्रता के विकास के साथ जीवन को नए सिरे से परिभाषित कर सकता है और इस दुर्लभ मानव जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है।
लेखक संचार संकायाध्यक्ष, देव संस्कृति विवि हैं।

