प्रधानमंत्री मोदी जब पहली बार संसद भवन में आये थे तो सबसे पहले उन्होंने दो जगह सिर झुकाया था- पहले संसद भवन की सीढ़ियों पर, जिसे उन्होंने ‘जनतंत्र का मंदिर’ कहा था और फिर संसद में रखी देश के संविधान की प्रति पर। तब उन्होंने संविधान को जनतंत्र के ‘पवित्र ग्रंथ’ की संज्ञा दी थी।
यह सही है कि हमारा संविधान उस अर्थ में ‘पवित्र ग्रंथ’ नहीं है जैसे कुरान, बाइबल या गुरु ग्रंथ साहब हैं। पवित्र ग्रंथ को ईश्वर की वाणी माना जाता है और इसीलिए उसमें कुछ जोड़ने-घटाने का अधिकार मनुष्य को नहीं है। पर अपने संविधान में हम आवश्यकता के अनुसार जोड़ते-घटाते रहे हैं। सौ से अधिक बार संशोधन हो चुके हैं हमारे संविधान में। हां, यह ज़रूर है कि संविधान में वर्णित नागरिक के मौलिक अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, और ऐसा भी कोई बदलाव नहीं हो सकता जिससे मूल-अधिकार प्रभावित हों। जहां तक संविधान में संशोधन का सवाल है, यह अपेक्षा अवश्य की गयी है कि हमारी विधायिका इस संदर्भ में विवेकशील निर्णय लेगी। विवेक विधायिका, और नागरिकों की भी, सबसे बड़ी कसौटी है। संविधान की बात हम जब भी करें, उसे विवेक के तराजू पर तोला जाना चाहिए।
आज फिर संविधान की बात हो रही है। संविधान की रक्षा की बात की जा रही है, संविधान के शासन की दुहाई दी जा रही है। विश्व हिंदू परिषद और बाकी कई हिंदू संगठनों ने राजधानी दिल्ली और कुछ अन्य स्थानों पर ‘शांति-मार्च’ आयोजित करके संविधान के शासन की मांग की है। उनका कहना है कि हमारा देश सांविधानिक व्यवस्था में विश्वास करता है। देश में देश का ही कानून चलेगा, शरीयत या किसी और व्यवस्था के अनुसार देश को चलाने की कोशिशों को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जायेगा। राजधानी दिल्ली में इस ‘शांति-मार्च’ के आयोजकों ने इसे ‘संकल्प यात्रा’ का भी नाम दिया है और कहा है कि हम यानी इस आंदोलन में भाग लेने वाले इस आशय का संकल्प लेते हैं कि संविधान के शासन को नीचा दिखाने की कोशिशों को सफल नहीं होने देंगे।
इस संकल्प की आवश्यकता पिछले एक अर्से से देश में धर्म की रक्षा और आहत भावनाओं के नाम पर चल रही गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में अनुभव की जा रही है। ताज़ा संदर्भ उदयपुर और अमरावती में हुई नृशंस हत्याओं का है। इसके साथ ही हिंदू देवी-देवताओं के अपमान की बात भी है। ऐसी हत्याओं और धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ की कोशिशों का समर्थन किसी भी दृष्टि से नहीं किया जा सकता। दोषियों को दंड मिलना ही चाहिए। फिर भले ही वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों।
हमारा धर्म-निरपेक्ष संविधान देश में सभी धर्मों को समान रूप से देखने का अधिकार और अवसर देता है। किसी की भी धार्मिक भावनाओं को आहत करने को हमारा संविधान दंडनीय अपराध मानता है। ‘सर धड़ से अलग’ और देवी-देवताओं को अपमानित करने वाले नारों के लिए हमारी न्याय-व्यवस्था में कोई जगह नहीं है। यही बात उनपर भी लागू होती है जो हिंदू राष्ट्र के नाम पर गैर हिंदुओं, विशेषकर मुसलमानों के विरुद्ध गरजते रहते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में कटुता की जिस आंधी को चलाने की कोशिश हो रही है, देश का विवेकशील तबका उसे सफल नहीं होने देगा। इस तबके में हर मज़हब के, हर जाति के, हर वर्ग के लोग शामिल हैं। यह देश सबका है। यहां धर्म के नाम पर किसी को कोई विशेषाधिकार नहीं मिला हुआ है, और न ही ऐसा कोई अधिकार किसी को दिया जा सकता है।
जब हम संविधान की रक्षा या संविधान के शासन की बात करते हैं तो यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि हमारा संविधान किन जीवन-मूल्यों को रेखांकित करता है। हमारे प्रधानमंत्री ने जिस संविधान के समक्ष सर झुका कर उसे ‘पवित्र ग्रंथ’ की संज्ञा दी थी, वह संविधान हर नागरिक की समानता की बात करता है, हर व्यक्ति को अपने विश्वासों के अनुसार जीने का अधिकार देता है। हर नागरिक के साथ यहां पूरा न्याय होगा, और देश के सारे नागरिक एक-दूसरे के साथ भाई-चारे की डोर से बंधे हुए हैं। ऐसे में, ‘सर तन से जुदा’ या ‘हिंदुस्तान हिंदुओं का’ जैसी बातें संविधान का विरोध करना ही कहलायेगा और ऐसा ही अपराध वे भी कर रहे हैं जो किसी धर्म-विशेष के लोगों का बहिष्कार करने की बात कह रहे हैं। यह देश न हिंदू का है, न मुसलमान का। न सिख का, न ईसाई का…. यह देश सबका है। कुछ भी और होने से पहले हम सब भारतीय हैं। और इस नाते इस देश का हम पर और हमारा इस देश पर समान अधिकार है। देश पर अधिकार समान है तो देश के प्रति कर्त्तव्य भी समान ही हैं। समान अधिकार और समान कर्तव्य की इस बात को भुलाये जाने का मतलब देश के संविधान को नकारना है। हमें यह नहीं भूलना है कि स्वयं को संविधान की मर्यादाओं से जोड़कर हमने एक आदर्श जीवन-पद्धति का वरण किया है।
जब हम संविधान के शासन की बात करते हैं तो इसका सीधा-सा मतलब यह है कि हम उन सारी व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हैं, जो हमने संविधान के अंतर्गत स्वयं अपने लिए निर्धारित की हैं। संविधान की इन व्यवस्थाओं का हर कीमत पर सम्मान होना चाहिए।
भारत माता की जय का नारा किसी धर्म-विशेष से जुड़े नागरिकों का ही नहीं है। और न ही यह नारा लगा कर कोई अपने आप को ‘अधिक भारतीय’ होने का दावेदार मान सकता है। जब हम जय हिंद करते हैं तो हम हर भारतीय की जय का संकल्प लेते हैं। और इस जय का मलतब है हर भारतीय को, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो, देश में सिर ऊंचा उठाकर जीने की आज़ादी है, अधिकार है। हर भारतीय को इस अहसास के साथ जीने का अधिकार है कि उसे देश के संविधान का पूरा संरक्षण प्राप्त है। धर्म या जाति के नाम पर उसके साथ किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होगा। किसी एक व्यक्ति या एक समूह के अपराध को किसी पूरे समाज का अपराध नहीं माना जायेगा। आहत भावनाओं के नाम पर ‘सर धड़ से अलग’ कहने वाले भी अपराधी हैं और हर अल्पसंख्यक की देश के प्रति निष्ठा पर संदेह करने वाले भी। आज हिंदुओं या मुसलमानों को जगाने की नहीं, हर भारतीय को जगाने की आवश्यकता है, देश के संविधान के प्रति निष्ठावान रहने की आवश्यकता है। संकल्प यह करना होगा कि मैं देश के संविधान में विश्वास करता हूं, मैं देश के हर नागरिक को एक भारतीय के रूप में स्वीकार करूंगा। यही है संविधान का शासन। यही है तिरंगे को हाथ में लेकर जय हिंद कहने का मतलब। और यही मतलब होता है किसी प्रधानमंत्री का देश के संविधान के सामने सर झुकाने का। हमारे संविधान का मतलब है,असहनशीलता का बहिष्कार, धर्म-निरपेक्षता का स्वीकार। यही हमारा संकल्प होना चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।