अनूप भटनागर
तबलीगी जमात के समागम से लेकर अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु तक की घटनाओं से जुड़ी खबरों को चटपटा और सनसनीखेज बनाने की कवायद ने आपराधिक मामलों में मीडिया की लक्ष्मण रेखा पर सवाल खड़े किये हैं। तमाम न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद देश के चौथे स्तंभ के एक वर्ग द्वारा ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघने की वजह से महत्वपूर्ण और चर्चित आपराधिक मामलों की जांच के दौरान मीडिया के एक वर्ग द्वारा अपनी समानांतर जांच के आधार पर पेश की जा रही खबरों को मीडिया ट्रायल का नाम दिया जा रहा है।
इसमे कोई दो राय नहीं है कि कई बार नामचीन व्यक्तियों या किसी प्रमुख संस्था से जुड़े किसी आपराधिक मामले की जांच के दौरान मीडिया जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखाता है। साथ ही किसी मुद्दे पर हो रहे आन्दोलनों से संबंधित किसी घटना की जांच की खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है जो ऐसी घटनाओं की जांच को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
देश की सर्वोच्च अदालत इस बारे में बार-बार मीडिया को आगाह करने के बावजूद उसकी स्वतंत्रता पर किसी भी प्रकार का अंकुश लगाने से अभी तक गुरेज करती रही है। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि भविष्य में न्यायालय से ही कुछ दिशा-निर्देश आ जायेंगे।
शीर्ष अदालत ने तबलीगी जमात की गतिविधियों के बारे में मीडिया के एक वर्ग द्वारा प्रकाशित-प्रसारित खबरों को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान संकेत दिया है कि वह भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट मिलने के बाद उचित निर्देश जारी करेगी। दरअसल, सबसे पहले पाठकों या श्रोताओं तक खबरें पहुंचाने की होड़ में संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की लक्ष्मण रेखा लांघ जाने का पता ही नहीं चलता। जब ऐसे मामलों में थानों में प्राथमिकियां दर्ज होती हैं तब अहसास होता है कि ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघी गयी है। कोरोना वायरस महामारी के दौरान दिल्ली के निजामुद्दीन के मरकज में तबलीगी जमात की गतिविधियों और इसमें शामिल तबलीगियों के देश के दूसरे हिस्से में जाने की घटना के बारे में खबरें कुछ ऐसा ही संकेत देती हैं।
भारतीय प्रेस परिषद ने न्यायालय को सूचित किया है कि सांप्रदायिक कटुता फैलाने से संबंधित खबरों को लेकर उसे करीब 50 शिकायतें मिली हैं जबकि न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन ने भी इस तरह की शिकायतें मिलना स्वीकार किया है। शीर्ष अदालत को मिली शिकायतों पर अब भारतीय प्रेस परिषद और एनबीए की रिपोर्ट का इंतजार है।
तबलीगी जमात की गतिविधियों काे लेकर मीडिया के एक वर्ग पर सांप्रदायिक कटुता पैदा करने वाली खबरों के प्रसारण-प्रकाशन का मामला पहले से ही उच्चतम न्यायालय में लंबित है। ‘फर्जी खबरों’ को रोकने और ऐसा करने वालों के खिलाफ ढुलमुल रवैये पर चिंता व्यक्त करते हुए शीर्ष अदालत ने हाल ही में कहा था कि सरकारें अदालत के निर्देश मिलने तक सक्रियता ही नहीं दिखाती हैं।
अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की 14 जून को मुंबई में मौत और इसके बाद पटना तथा मुंबई पुलिस के बीच जांच को लेकर खींचतान तथा नौ जून को एक अन्य युवती की आत्महत्या को परस्पर जोड़कर नयी तस्वीर पेश करने की मीडिया के एक वर्ग की कवायद पर सवाल उठ रहे हैं। दिशा सालियान नाम की इस युवती के माता-पिता ने मीडिया से अनुरोध किया है कि वह अपुष्ट और अफवाहजनक खबरों से उनके जीवन और प्रतिष्ठा को प्रभावित नहीं करे। लेकिन खोजी पत्रकारिता के नाम पर ‘सूत्रों से मिली एक्सक्लूसिव जानकारी’ के आधार पर सनसनीखेज खबरें पेश की जा रही हैं।
यही वजह है कि सितंबर 2014 में उच्चतम न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान पुलिस और जांच एजेंसियों को भी आड़े हाथ लिया था। चूंकि न्यायालय का मानना है कि मीडिया ट्रायल का मुद्दा किसी आपराधिक मामले की निष्पक्ष जांच और मुकदमे की सुनवाई से ही नहीं बल्कि आरोपियों को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार से भी जुड़ा हुआ है।े मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते समय संबंधित घटना से प्रभावित पक्ष या आरोपी या व्यक्ति के अधिकारों और उसकी गरिमा का भी ध्यान रखना चाहिए। दूसरों की प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करने की वजह से चिंतित उच्चतम न्यायालय दिशा-निर्देश जारी कर सकता है।
इससे पहले कि मीडिया के एक वर्ग द्वारा ‘फेक और अपुष्ट तथ्यों’ के आधार पर प्रसारित-प्रकाशित खबरों के माध्यम से चर्चित मामलों के मीडिया ट्रायल पर न्यायपालिका कड़ा रुख अपनाये, मीडिया के हितों की रक्षा के लिए बनी संस्थाओं को हस्तक्षेप करके सकारात्मक पहल करनी चाहिए।