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लाहौर केस की स्वतंत्रता आंदोलन में निर्णायक भूमिका

शहीद सुखदेव जयंती

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लाहौर केस भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक मुकदमा था, जिसमें सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए फांसी दी गई। यह केस भारतीय युवाओं में देशभक्ति की भावना जगाने वाला सिद्ध हुआ। शहीद सुखदेव का जीवन देश के लिए संघर्ष और बलिदान की मिसाल है।

प्रो. बृज भूषण गोयल

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लाहौर षड्यंत्र केस, ‘क्राउन बनाम सुखदेव एवं अन्य’, भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐतिहासिक मुकदमा था। इसमें लुधियाना के नौघरा मोहल्ले में 15 मई, 1907 को जन्मे सुखदेव थापर, भगत सिंह, राजगुरु सहित 22 युवाओं को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों का आरोपी बनाया गया। वर्ष 1920 के दशक में शुरू हुई इन घटनाओं ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। अंततः इस क्रांतिकारी त्रिमूर्ति को 23 मार्च, 1931 को फांसी दे दी गई। यह केस आजादी आंदोलन का निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ।

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शहीद सुखदेव का जीवन बचपन से ही संघर्षों से भरा रहा। उनके पिता राम लाल थापर का देहांत हो गया जब वे केवल 3 वर्ष के थे। उनका पालन-पोषण उनके ताया अचिंतराम थापर ने लायलपुर (अब पाकिस्तान) में किया, जो स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक थे। उनकी गिरफ्तारी ने बालक सुखदेव के मन में ब्रिटिश शासन के प्रति रोष पैदा किया। सुखदेव और भगत सिंह के परिवारों में घनिष्ठ संबंध थे। दोनों ने स्कूली शिक्षा के बाद लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया, जहां उन्हें समाजसेवा और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिली और उन्होंने क्रांतिकारी राह चुनी। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सुखदेव और भगत सिंह को बौद्धिक स्वतंत्रता, विचार अभिव्यक्ति और क्रांतिकारियों की गतिविधियों पर चर्चा का अवसर मिला। वे गंभीर अध्ययन करते थे। लाहौर शिक्षा और क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था। मार्च 1926 में भगत सिंह और सुखदेव ने ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की। इसके जरिये पंजाब के युवाओं को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने को प्रेरित किया।

लाहौर के क्रांतिकारी युवाओं ने उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और पंजाब के साथियों से मिलकर 8-9 सितंबर 1928 को दिल्ली में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के गठन की घोषणा की। चंद्रशेखर आज़ाद को संगठन कमांडर नियुक्त किया गया, जबकि संगठनात्मक क्षमता देखते हुए सुखदेव को पंजाब प्रभारी बनाया। संगठन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह था। सहारनपुर, आगरा व लाहौर में बम निर्माण कार्य शुरू किया।

लाहौर में 30 अक्तूबर, 1928 को सुखदेव के नेतृत्व में नौजवान भारत सभा और अन्य राजनीतिक संगठनों ने लाला लाजपत राय के साथ मिलकर साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन किया। पुलिस अधीक्षक जेम्स ए. स्कॉट के आदेश पर निर्दय लाठीचार्ज हुआ, जिसमें लाला जी गंभीर घायल हो गए। उन्होंने घायल अवस्था में सभा में कहा, ‘मेरी छाती पर लगी एक-एक चोट अंग्रेजी शासन के कफ़न में कील साबित होगी।’ लाला जी की कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई। इस क्रूरता से व्यथित होकर सुखदेव सहित एच.एस.आर.ए. के क्रांतिकारियों ने स्कॉट से बदला लेने का निर्णय लिया। सुखदेव और उनके साथियों ने जेम्स ए. स्कॉट की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू की। सुखदेव द्वारा बनाई गई योजना के तहत भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद और जयगोपाल को स्कॉट की हत्या का कार्य सौंपा। 17 दिसंबर 1928 को कार्रवाई की गई, लेकिन गलती से स्कॉट की जगह ए.एस.पी. जे.पी. सांडर्स को गोली मार दी। सभी क्रांतिकारी पहचान बदलकर कलकत्ता रवाना हो गए। कलकत्ता में सुखदेव ने बम निर्माण तकनीक सीखी और पुनः दिल्ली में गतिविधियां बढ़ाने लगे।

1929 में ब्रिटिश सरकार ने दिल्ली विधानसभा में पब्लिक सेफ्टी बिल समेत दो बिल प्रस्तुत किए, जिनका उद्देश्य क्रांतिकारी गतिविधियों को दबाना था जिनके विरोध में एच.एस.आर.ए. ने 8 अप्रैल 1929 को विधानसभा में बम फोड़ने की योजना बनाई। यह कार्य सुखदेव ने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को सौंपा। बम और पर्चे फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाए और अपनी गिरफ्तारी दी। कुछ समय बाद सुखदेव भी गिरफ्तार कर लिए गए। लाहौर में क्रांतिकारी गतिविधियों के पीछे सुखदेव थापर को मुख्य योजनाकार मानते हुए अप्रैल 1929 में एसएसपी हैमिलटन हार्डिंग ने स्पेशल जज की अदालत में एफआईआर दर्ज करवाई जिसमें सुखदेव को प्रथम आरोपी बनाया गया और केस ‘ब्रिटिश ताज बनाम सुखदेव तथा अन्य’ के नाम से दर्ज किया, जिसे लाहौर षड्यंत्र केस के नाम से जाना गया। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त सहित अन्य क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल लाया गया, जहां उन्होंने अमानवीय व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल की। वहीं युद्धबंदियों जैसे सम्मानपूर्ण बर्ताव की मांग की। उन्होंने अदालत में भी आक्रोश जताया।

लाहौर षड्यंत्र केस की सुनवाई 11 जुलाई 1929 को प्रारंभ हो गई थी, लेकिन लगातार टलती कार्यवाहियों के चलते फैसला नहीं हो पाया। तब वायसराय इरविन ने 1 मई, 1930 को लाहौर षड्यंत्र केस अध्यादेश जारी किया। इसके तहत तीन जजों का विशेष ट्रिब्यूनल गठित किया गया। इसका उद्देश्य शीघ्र निर्णय देकर मृत्युदंड यकीनी बनाना था। ट्रिब्यूनल ने 7 अक्तूबर, 1930 को फैसला सुनाया जिसमें सुखदेव थापर को भगत सिंह के साथ मुख्य ‘षड्यंत्रकारी’ बताया गया, जिसने राजगुरु को निशानेबाज़ के रूप में शामिल कर सांडर्स की हत्या की योजना को अंजाम दिया।

शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी देने की योजना थी, लेकिन संभावित जनाक्रोश को देखते हुए यह सज़ा गुप्त रूप से एक दिन पहले, 23 मार्च की सायंकाल को ही दे दी गई। तीनों क्रांतिकारी सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु एक-दूसरे से गले मिले और ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारों के बीच फांसी के फंदे को चूमते हुए शहीद हो गए।

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