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न्याय की भाषा में बदलाव की दस्तक

हिंदी में शपथ
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अपने शपथ ग्रहण में मातृभाषा का प्रयोग कर न्यायमूर्ति गवई ने देश के करोड़ों हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रेमियों को एक नई उम्मीद से भर दिया है। लोगों को आशा है कि उनके नेतृत्व में न्यायपालिका में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को उचित सम्मान और स्थान प्राप्त होगा।

उमेश चतुर्वेदी

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बीते 14 मई को राष्ट्रपति भवन में हिंदी के प्रयोग ने एक नया इतिहास रच दिया। देश के 52वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई का शपथ ग्रहण समारोह ऐतिहासिक बन गया। उन्होंने हिंदी में शपथ लेकर एक नई परंपरा की शुरुआत की। अब तक सभी मुख्य न्यायाधीश अंग्रेज़ी में ही शपथ लेते रहे हैं।

देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यों के राज्यपाल और मुख्यमंत्री जैसी प्रमुख हस्तियां पहले से ही हिंदी में शपथ लेती रही हैं, लेकिन न्यायपालिका का सर्वोच्च पद अब तक इससे अछूता था। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले न्यायमूर्ति गवई ने हिंदी में शपथ लेकर उस परंपरा को तोड़ा और न्यायपालिका में अब तक उपेक्षित रही हिंदी को सम्मान दिया।

उनके इस निर्णय का विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा स्वागत किया जा रहा है। अपने शपथ ग्रहण में मातृभाषा का प्रयोग कर न्यायमूर्ति गवई ने देश के करोड़ों हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रेमियों को एक नई उम्मीद से भर दिया है। लोगों को आशा है कि उनके नेतृत्व में न्यायपालिका में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को उचित सम्मान और स्थान प्राप्त होगा।

यह विडंबना ही है कि छह वर्ष पूर्व संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अदालतों में हिंदी में सुनवाई की अनुमति दी जा चुकी है, जबकि भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका आज भी अंग्रेज़ी तक ही सीमित है। न्यायमूर्ति गवई से अपेक्षाएं इसलिए भी हैं क्योंकि उनके पद में महत्वपूर्ण अधिकार निहित हैं। मुख्य न्यायाधीश की सहमति के बिना किसी भी उच्च न्यायालय में कार्यवाही की भाषा स्थानीय नहीं बन सकती। संविधान के अनुच्छेद 348(1)(ए) के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट और सभी हाईकोर्ट की कार्यवाही अंग्रेज़ी में ही की जाएगी। हालांकि, इसी अनुच्छेद के भाग (2) में यह प्रावधान भी है कि यदि कोई राज्य अपनी राजभाषा में न्यायिक कार्य करना चाहता है, तो राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त कर संबंधित हाईकोर्ट की कार्यवाही में हिंदी या राज्य की अन्य आधिकारिक भाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है। राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 7 में भी इसी तरह का प्रावधान किया गया है। इसके तहत राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से, उच्च न्यायालय के निर्णय या आदेशों के लिए अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी या राज्य की अन्य राजभाषा के प्रयोग को अनुमति दे सकता है। दुर्भाग्यवश, इन संवैधानिक और विधिक प्रावधानों के बावजूद, आज तक इनका उपयोग बहुत सीमित रहा है।

संविधान के प्रावधानों के तहत हिंदी को 26 जनवरी, 1965 से राजभाषा के तौर पर पूरे देश में कामकाज करने की अनुमति मिलनी थी। लेकिन इसके खिलाफ तीखे विरोध के साथ तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति मैदान में कूद पड़ी थी। हालांकि, जब उसे अहसास हुआ कि गणतंत्र दिवस पर ऐसा करना उचित नहीं होगा तो एक दिन पहले यानी 25 जनवरी को उसने ऐसा किया। राजभाषा को लेकर होते रहे ऐसे विवादों की वजह से राजभाषा नीति पर विचार के लिए मंत्रिमंडल समिति का गठन किया गया। जिसने 21 मई, 1965 की अपनी बैठक में यह तय किया कि हाईकोर्ट में अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा के प्रयोग से संबंधित प्रस्ताव पर देश के मुख्य न्यायाधीश की सहमति प्राप्त की जानी चाहिए। भारतीय भाषा प्रेमियों की नजर में यह प्रावधान भारतीय भाषाओं की न्याय की भाषा बनने की राह में सबसे बड़ी बाधा है।

सांविधानिक प्रावधान के अंतर्गत हिंदी में कामकाज की अनुमति सबसे पहले राजस्थान को हासिल हुई, जिसे हिंदी में कार्यवाही की अनुमति 1950 में मिली। इलाहाबाद हाईकोर्ट में हिंदी कार्यवाही की अनुमति 1969 में मिली, जबकि मध्य प्रदेश को 1971 और बिहार को 1972 में मिली। कई राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने समय-समय पर अपनी भाषाओं में अपने हाईकोर्ट में कार्यवाही चलाने की अनुमति मांगी, लेकिन उन्हें नाकामी ही मिली।

यद्यपि तमाम सांविधानिक प्रावधानों और उनकी बाधा के बावजूद भारतीय भाषा प्रेमियों का उत्साह कम नहीं हुआ। वे भारतीय भाषाओं को न्यायपालिका की भाषा बनाने की मांग करते रहे हैं। इसका असर उच्च न्यायपालिका पर भी पड़ा है। बेशक न्यायिक कार्यवाही भारतीय भाषाओं में नहीं हो रही है, लेकिन फैसलों और न्यायिक कार्यवाही तक आम लोगों की सहज पहुंच बनाने की दिशा न्यायलय आगे बढ़े हैं। इसके तहत कार्यवाही और निर्णयों का अंग्रेजी से क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति अभय एस ओका की अध्यक्षता में एआई सहायता प्राप्त कानूनी अनुवाद सलाहकार समिति का गठन किया है। इसके जरिए अब तक 16 भाषाओं में हजारों फैसलों आदि का अनुवाद किया जा रहा है। ओका समिति की तरह सभी हाईकोर्टों ने भी अपने यहां अनुवाद के लिए समितियां बनाई हैं। कानून और न्याय मंत्रालय के अधीन बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता में ‘भारतीय भाषा समिति’ का भी गठन किया है। यह समिति कानूनी सामग्री का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद करने के उद्देश्य से सभी भारतीय भाषाओं के लिए एक समान शब्दावली विकसित कर रही है।

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