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कमाल हो गया, व्हाट एन आइडिया सर जी

तिरछी नज़र
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कोयल के घोसले में कौवे के अंडे रखने वाला पुराना आइडिया आज भी राजनीति में प्रचलित है—किसी अन्य दल का नारा हो, मुद्दा हो या नेता हो, बस सही समय पर उठाया और अपना कर लिया।

आइडिया, आइडिया है—किसी को भी, कहीं भी, किसी भी रूप में आ सकता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किसे, किस अवस्था में और किस मन:स्थिति में सूझता है। आम धारणा है कि आइडिया सबसे ज्यादा सुबह-सुबह तब आता है जब लोग नित्य-क्रिया में होते हैं। शौच-सोच के इस संगम को कई लोग इतना उर्वरा मानते हैं कि कुछ बड़े नेताओं की महत्वपूर्ण योजनाओं का ‘मूल स्रोत’ भी यही बताया जाता है।

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आइडिया जाति, धर्म, लिंग, अमीरी-गरीबी कुछ नहीं देखता। लोकतंत्र की तरह उसके सामने सब समान हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग आइडिया को आते ही पकड़ लेते हैं, उसे सांस लेने का मौका देते हैं और जमीन पर उतार देते हैं। वहीं कुछ के आइडिया कागज पर उतरने से पहले ही दम तोड़ देते हैं—और फिर वही लोग दावा करने लगते हैं कि ‘हमारा आइडिया तो समय से आगे था, जनता समझ न पाई।’

आइडिया अपने आप में एक पूरा संसार है। आर्थिक आइडिया अलग होते हैं, सामाजिक अलग, राजनीतिक अलग। कुछ आइडिया अमीरी में पलते हैं, कुछ गरीबी में जन्म लेते हैं। किसी के लिए आइडिया धर्मनिरपेक्ष होता है, किसी के लिए सांप्रदायिक। किसी के लिए समाजवाद का आइडिया बड़ा है, किसी के लिए पूंजीवाद का। व्याख्याकारों ने तो आइडिया को कला भी कहा और विज्ञान भी—और यह निर्णय आज तक नहीं हुआ कि वह क्या है।

कुछ लोग आइडिया के आते ही इसे अमल में लाने में लग जाते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग आइडिया को चुरा लेने में माहिर होते हैं। आज तक आइडिया चोरी के मामले में न कोई एफआईआर दर्ज हुई, न कोई गिरफ्तारी। कई बार चुराया हुआ आइडिया असली आइडिया से बेहतर चल पड़ता है। कोयल के घोंसले में कौवे के अंडे रखने वाला पुराना आइडिया आज भी राजनीति में प्रचलित है—किसी अन्य दल का नारा हो, मुद्दा हो या नेता हो, बस सही समय पर उठाया और अपना कर लिया।

अब चुनाव जीतने के आइडिया तकनीकी हो गए हैं। किसी को लगता है कि बड़े एलईडी स्क्रीन ही जनता का भरोसा दिला देंगे। कोई ड्रोन से फूल गिराने का आइडिया लेकर मैदान में उतर जाता है। कोई अपने भाषण की पिच इतनी ऊंची कर देता है कि माइक भी सोच में पड़ जाता है कि यह राजनीति है या टेस्ट मैच की कॉमेंट्री। जनता भी इन आइडिया के खेल की आदी हो चुकी है—कौन सा आइडिया वोट के लिए है, कौन सा कैमरे के लिए, और कौन सा सिर्फ चर्चा में बने रहने के लिए—वह सब पहचान लेती है। मन की बात सुनाने का आइडिया भी है और जनता के मन की बात का सर्वे कराने का आइडिया भी।

सच कहें तो आइडिया का कोई अंत नहीं है। समय बदलता है, राजनीति बदलती है, और आइडिया भी उसी के साथ कदम मिलाते हुए बदलते जाते हैं। कभी क्लिक हो जाएं तो ‘व्हाट एन आइडिया सर जी!’ और अगर न चलें तो ‘नो उल्लू बनाविंग।’

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