मौजूदा दौर में उद्योग की दिशा परिवर्तन का वक्त
ग्लोबल साउथ में आकार और प्रतिभा के मामले में कोई भी राष्ट्र नेतृत्व करने के लिए हमसे बेहतर स्थिति में नहीं है। मौजूदा वैश्विक स्थितियों का फायदा उठाकर नेतृत्वकारी भूमिका के लिए उद्योग के लिए देश के खुद के 4.0...
ग्लोबल साउथ में आकार और प्रतिभा के मामले में कोई भी राष्ट्र नेतृत्व करने के लिए हमसे बेहतर स्थिति में नहीं है। मौजूदा वैश्विक स्थितियों का फायदा उठाकर नेतृत्वकारी भूमिका के लिए उद्योग के लिए देश के खुद के 4.0 यानी अन्वेषण, समावेश, निवेश, नवाचार वाले दिशा सूचक होने चाहिये। वहीं आत्मनिर्भरता जरूरी है। मूलभूत जरूरतोंं के लिए पराश्रित देश विश्व में स्वायत्तता का दावा नहीं कर सकता।
दुनिया के बारे में अब पहले से कोई अनुमान नहीं लगा सकते हैं। यूूरोप और पश्चिम एशिया में युद्ध खिंचते ही जा रहे। आपूर्ति शृंखला को हथियार बनाया जा रहा है – कंप्यूटर चिप्स से लेकर एपीआई और ऊर्जा तक। समझौतों से ज़्यादा तेज़ी से टैरिफ की दीवारें खिंच रही हैं। डब्ल्यूटीओ निष्प्रभावी सा है; हमारे पड़ोसियों खाड़ी देश, पाकिस्तान, चीन इनसे जुड़े हमारे जोखिम बढ़ रहे हैं। इस मामले में भारत अकेला नहीं। अमेरिका अपने उद्योगों का संरक्षण टैरिफ और अब एच-1बी से कर रहा है। यूरोप आयात पर कार्बन-टैक्स लगा रहा है, अफ्रीकी मुल्क दूसरों पर निर्भरता से व आसियान देश सप्लाई चेन की कमज़ोरी से जूझ रहे हैं। हर भूभाग अपना बाजार दूसरों के माल से बचा रहा है। केवल वे देश जो अपनी आंतरिक लोच बना लेंगे, दूसरों को स्थिरता दे सकेंगे।
आत्मनिर्भरता बतौर दिशासूचक : भारत के लिए अब केवल अस्तित्व काफी नहीं। आत्मनिर्भरता महज नारा न होकर एक मिशन है: मूल जरूरतों के लिए पराश्रित देश इस विभाजित विश्व में स्वायत्तता का दावा नहीं कर सकता। इसीलिए वित्त मंत्री का उद्योग जगत को आह्वान खास तात्कालिकता रखता है: निवेश करें और दिशा बदलें। विश्व स्तर पर उद्योग 4.0 स्मार्ट कारखाने, ऑटोमेशन और डिजिटल एकीकरण का लघु प्रारूप है। भारत के लिए इसका अर्थ कुछ गहरा चाहिए। उद्योग 4.0 हमारा अपना दिशासूचक है - अन्वेषण, समावेशन, निवेश, नवाचार। कक्षाओं में जिज्ञासु सवाल पूछने वाले बच्चे सृजनकार बनते हैं न कि नकल करने वाले। समावेशन बृहद प्रतिभाओं का द्वार खोलता है। निवेश को मुनाफे के बीज के रूप में लेना चाहिए, न कि खर्च के लिए नकदी के तौर पर। रॉयल्टी के भुगतान के बजाय अपना नवाचार अपना स्वामित्व बनाएं। यह पश्चिम का उद्योग 4.0 न होकर भारतीय संस्करण है, विवेक और स्केल पर आधारित, जिसका उद्देश्य दक्षता व बैसाखी रहित समावेशिता बनाना है।
दुष्चक्र तोड़ना : मार्जिन मामूली होता है क्योंकि स्केल छोटा होता है, और स्केल इसलिए छोटा है कि क्रयशक्ति कम है। इसका हल है अधिक मार्जिन वाला वैश्विक बाज़ार, तुलनात्मक लाभ और अनुसंधान एवं विकास में पुनर्निवेश करने में। हमारा बहुचर्चित आईटी उद्योग अन्य मिसाल है: एक उच्च लाभकारी बिजनेस जो ट्रांसलेशनल एआई मॉडल बनाने की बजाय नकद मुनाफे को तरजीह देता रहा है। परिणाम : सेवा क्षेत्र में अग्रणी, किंतु वैश्विक उत्पादों में नहीं।
आईना : अक्सर, हम मात्रा को कीमत समझ बैठते हैं। हम स्केल का जश्न मनाते हैं, न कि ठोस हकीकत का। भारत कारें असेंबल करता है, तथापि एक भी स्वदेशी 300-350 एचपी इंजन व्यावसायिक रूप से उपलब्ध नहीं। रेलवे आज भी विदेशी डिज़ाइंड डीजल इंजनों पर निर्भर है। रक्षा उत्पादन क्षेत्र बिजली संयंत्र विहीन है। रणनीति उधार ट्रांसमिशन चेन और हॉर्सपावर पर नहीं चल सकती।
स्टैनफोर्ड अध्ययन में भारत को एआई जीवंतता में चौथा स्थान मिला है, गिट हब में इंजीनियरों की बाढ़ सी है, विमर्श सक्रिय है, कौशल प्रचुर है। लेकिन पेटेंट, निवेश, बुनियादी ढांचा और आधारभूत मॉडलों में हम पिछड़े हैं। एआई में योगदान तो करते हैं, लेकिन मालिक नहीं। प्लेटफ़ॉर्म बिना जीवंतता दूजों पर निर्भरता है। हॉर्सपावर उधार की, कंप्यूटर चिप्स आयातित, एपीआई में विदेशी निर्भरता, दूरसंचार तंत्र पट्टे पर, बैटरियां खरीदी गयी-इंजीनियरों का देश अभी भी रॉयल्टी चालित है। विकल्प स्पष्ट है: अपने खुद के उत्पादों के बिना आईटी सेवा आधारित आर्थिकी बने रहें या उधार के पुर्जों पर चलने वाला इंजीनियरिंग बेस या फिर अन्वेषण, नवाचार और स्वामित्व की दिशा में बदलाव।
सफलता अपरिहार्य : यह केवल असफलता के बारे नहीं, जब कभी अन्वेषण, निवेश और संकल्प एक साथ आए हैं, तो भारत ने परिणाम दिए हैं। इसरो ने वैश्विक लागत के एक अंश जितने खर्च में मंगल और चंद्रमा पर अंतरिक्ष यान पहुंचा दिए। आधार, यूपीआई, कोविन बड़े पैमाने का डिजिटल समावेशन दर्शाते हैं। एपीआई पर निर्भरता के बावजूद, फार्मा कंपनियों ने भारत को दुनिया का विश्वसनीय जेनेरिक दवा सप्लायर बनाया दिया। फिनटेक, लॉजिस्टिक्स, एसएएएस में यूनिकॉर्न कंपनियों ने उद्यमशीलता की ललक साबित की। 6G का मिशन, हालांकि अभी नया है, और क्वांटम कम्प्यूटिंग पर काम जारी हैं।
ये सफलताएं साबित करती हैं : जब-जब नीति, लाभ और शेयरधारक के मूल्य एक साथ आए, तब-तब भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया। बदलाव की जरूरत केवल तकनीकी क्षेत्र को लेकर नहीं है, बल्कि मानसिक स्तर पर भी है। निर्भरता रणनीति नहीं रह सकती; नवाचार आवश्यक है।
दिशा बदलने का मौका : उद्योग मूकदर्शक बना नहीं रह सकता। उसे महज एक यात्री की बजाय सहयात्री होना पड़ेगा। सरकारी मदद जोखिम कम कर सकती है, लेकिन जोखिम केवल उद्योग ही उठा सकता है। शेयरधारक खुद को महज तिमाही लाभ पाने वाला नहीं बल्कि 25 साल यात्रा भागीदार समझें। मुनाफ़े का हर रुपया कोई अंत न होकर वरन वैश्विक मौजूदगी का पासपोर्ट है। अगर कंपनियों का लक्ष्य सिर्फ खुद कायम रहने का है, तब देश का तुलनात्मक लाभ, स्केल, प्रतिभा और भूगोल कोई मायने नहीं रखता। वे नेतृत्व करने, सरकार संग सह-निवेश करने व विदेश में झंडा बुलंद करने का लक्ष्य रखें।
देश की दिशा तय करने की ज़िम्मेदारी उन पर है। आह्वान टैरिफ़ के पीछे छिपने का न होकर, आत्मविश्वास के साथ वैश्विक बाज़ारों में उतरने का होना चाहिए। अगर उद्योग इस रास्ते पर चलेंगे, तो वे अकेले नहीं होंगे, बल्कि उनके साथ नीति, पूंजी और लोग होंगे। साथ मिलकर, यह चौकड़ी आत्मनिर्भरता का सच्चा इंजन बनाती है। उद्योग को नीति पर चलने के लिए नहीं बुलाया जा रहा; उसे इतिहास रचने और वह ज्वार लाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है जो सभी नावों को एक साथ ऊपर उठाए।
वैश्विक व्यवहार से सीख: एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल जोखिम भरे शोध में अरबों डॉलर झोंक देते हैं; कुछेक में मिली सफलता उनकी प्रमुखता सुनिश्चित कर देती है। अमेज़ॉन लॉजिस्टिक्स और क्लाउड में पुनर्निवेश कर रहा है। हुआवे और बीवाईडी दूरसंचार और मोबिलिटी में पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करने में लगे हैं। इस्राइल रक्षा आरएंडडी को स्टार्टअप में बदल रहा है। हर जगह, मुनाफ़े को बीज रूप में लिया जाता है, न कि जेब में डालने वाले लाभांश के रूप में।
फायदे का द्वार खोलना : जहां नीति, शेयरधारक और पूंजी एक साथ आएं। यही वह जगह है जिसमें भारत की असली बढ़त निहित है : नीति और पूंजी मिलकर वैश्विक खिलाड़ी बनाएं, न कि महज घरेलू अस्तित्व। यदि दोनों पक्ष इस समझौते पर पहुंचते हैं, तब भारत का लाभ विडंबनापूर्ण न बनकर; सहकार; मिसाल योग्य बन मुनाफे, लोच और पहुंच में परिवर्तित हो जाएगा। तिमाही परिणामों के साथ-साथ एक वार्षिक ‘विवेक आह्वान’ भी हो, जो समावेशिता और उत्तरदायित्व मापे।
जोखिम में कमी लाने वाली नीति लाजिमी : इसके लिए जरूरी हैःन केवल पूंजीगत व्यय को, बल्कि दीर्घकालिक अनुसंधान एवं विकास को भी पुरस्कृत करना। संप्रभु नवाचार निधियों के जरिए सह-निवेश बनाना। नियमों का सरलीकरण ताकि स्टार्टअप विकसित हों, न कि अनुपालन करने में ही डूब जाएं। बौद्धिक संपदा संरक्षण की त्वरित गारंटी हो। कार्बन टैरिफ सम्मत भारतीय निर्यात तैयार करना। पेंशन और बीमा निधियों का निवेश नवाचारकों को पूंजी देने में लगाना। मानदंड निर्धारित करना; उच्च मानक कंपनियां बनाना, अनुपालन प्रोत्साहन; अच्छा प्रदर्शन करने वाली कंपनियों को वैश्विक खिलाड़ी बनाना।
आह्वान का बिगुल : यह सभी के लिए है - नीति, शिक्षा, वैज्ञानिक, नवउद्यमी और अनुभवी लोग,यूनिफॉर्म टूसीड-यूनिकॉर्न में परिवर्तित होने वाले। यहां आत्मनिर्भरता का अर्थ अलग-थलग के बजाय सृजन है: ज्ञान का वह भंडार जो गैर-दखलअंदाज, आमंत्रित करता, साझेदारी एवं देखभाल बनाने वाला है।
भारत का उद्योग तब-तब हमेशा उभरा है जब-जब दुनिया को संदेह हुआ है, वर्ष 2000 में,आईटी बूम में,डिजिटल सार्वजनिक वस्तुओं में। आज, असमंजस भीतर है : क्या हम असेम्बलिंग और पुनर्लेबलिंग करने भर से संतुष्ट हैं या डिज़ाइन करेंगे और स्वामित्व बनाएंगे? इसका उत्तर केवल नीति से नहीं आ सकता, बल्कि उन बोर्डरूमों से आएगा जो आरामतलबी की बजाय नागरिक साहस चुनेंगे। (अपवादों को छोड़कर)।
भौगोलिक दृष्टि से लाभान्वित, हिंद महासागर में हमारी स्थिति वैश्विक समुद्री जीवनरेखा में काफी अहम है; जनसंख्या का विशाल भाग युवा और आबादी बहुत विशाल होना, सभ्यतागत विविधता की एकता से बंधे होने से एक मजबूत शक्ति। सफलताएं और असफलताएं, दोनों के प्रमाण के साथ अब समय आ गया है कि हम अपनी दिशा बदलें। हमारे आकार और प्रतिभा वाला कोई अन्य देश नहीं है जो विश्व के इस दक्षिणी भाग का नेतृत्व करने में हम से बेहतर स्थिति में हो। उद्योग जगत के लिए अनूठा अवसर केवल 2047 तक ले जाने वाले राजमार्ग पर चलने में नहीं है, बल्कि इसकी नींव रखने, अपने विस्तार का परीक्षण करने और दुनिया के लिए अपने टोल गेट खोलने का है।
लेखक पश्चिमी सैन्य कमान के पूर्व कमांडर व पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक सदस्य हैं।