देश के बाहरी दुश्मन यानी पाकिस्तान पर सिक्योरिटी एजेंसियों की टोही नज़र हर वक्त रहती है। लेकिन अंदर पनपते गुस्से की वजहों पर भी गहराई से विचार करना जरूरी है। मसलन, कुछ अल्पसंख्यक युवा आतंकी कृत्यों की साज़िशें क्यों रच रहे और लाल किले के बाहर आत्मघाती क्यों बने। जबकि रोष जाहिर करने के लोकतांत्रिक ढंग भी हैं।
ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है, यह कथन किसी और का नहीं बल्कि एक हफ़्ते पहले दिल्ली में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का है, जब वे पाकिस्तान से लगते उत्तरी अरब सागर के अलावा पश्चिमी मोर्चे पर तीनों सेनाओं के ‘त्रिशूल’ नामक समन्वित अभ्यास में प्रदर्शित ‘क्रियान्वयन के उच्च स्तर’ की प्रशंसा कर रहे थे। राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि इंटेलिजेंस एजेंसियां जल्द ही लाल किले पर हुए आत्मघाती हमले की तह तक पहुंच जाएंगी, जिसमें 14 लोग मारे गए थे - तब से लेकर छह लोगों की गिरफ़्तारी हुई है।
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, हो सकता है सीरिया और तुर्की जैसी जगहों से काम करने वाले इस्लामिक स्टेट की छद्म ताकत भारत के अंदरूनी आतंकवादियों को आतंक-प्रशिक्षण मॉड्यूल से जोड़ रही है। यह भी माना जाता है कि छह आतंकी आरोपियों में से एक, डॉ. शाहीन शाहिद, पाकिस्तान में अपने मुख्यालय वाले जैश-ए-मोहम्मद आतंकी गुट की भारत में उसके महिला विंग की मुखिया हैं।
जरा इस बारे में सोचिए। ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है, जिसका मतलब है कि बाहरी दुश्मन यानी पाकिस्तान, भारत की सिक्योरिटी एजेंसियों की टोही नज़र में हर वक्त बना रहता है। लेकिन अंदर पनपते कट्टरपन का क्या? किस वजह से युवक-युवतियां, जिनमें से कई बहुत पढ़े-लिखे हैं, इतने गुस्से में हैं कि वे आत्मघाती बनने और देश में तबाही फैलाने को तैयार हो रहे हैं, खासकर तब जब अर्थव्यवस्था ठीक-ठाक रफ़्तार से बढ़ रही है?
आइये, पहले अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ देखते हैं। भारत के दुश्मन, पाकिस्तान पर पश्चिम के ताकतवर देश न केवल मेहरबान हो रहे हैं बल्कि ट्रंप ने तो असीम मुनीर को ‘मेरा पसंदीदा फील्ड मार्शल’ तक बता डाला, इसी दौरान वे इस बात पर ज़ोर देते आए हैं कि न सिर्फ उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में समझौता करवाया बल्कि प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें फ़ोन करके बताया कि ‘हम पाकिस्तान के साथ जंग नहीं करने जा रहे हैं’– पाकिस्तान बांग्लादेश के साथ अपने रिश्ते भी बहाल कर रहा है, वे संबंध जो 1971 के बाद से लगभग नदारद रहे।
अब हम सब जानते हैं कि शेख हसीना और उनकी अवामी लीग जब तक सत्ता में थी, आईएसआई को बांग्लादेश से बाहर रखा– यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। इसीलिए भारत ने इतने सालों तक अपनी ओर से ज्यादा चौकसी नहीं रखी, तब भी जब बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने देश को सिक्योरिटी ज़ोन में बदल डाला, छात्रों के लोकतांत्रिक विरोध की ताकत का गलत अंदाज़ा लगाया और विपक्षी पार्टियों को पूरी तरह कुचले रखा था - लेकिन यह एक अलग कहानी है, जिस पर बात किसी और वक्त। सच तो यह है कि आज, आईएसआई की न केवल बांग्लादेश में वापसी हो चुकी है, बल्कि वह वहां अपनी मौजूदगी का खुलकर प्रदर्शन भी कर रही है और उच्चतम नेतृत्व तक उसकी सीधी पहुंच है। इतना ही नहीं, इस महीने की शुरुआत में, 54 साल में पहली बार, किसी पाकिस्तानी जंगी जहाज़ ने चटगांव बंदरगाह पर लंगर डाला।
इसका मतलब है कि भारत को अपने पश्चिमी और पूर्वी, दोनों पार्श्वों पर, चौकन्ना रहना होगा। मानो देश के लिए बाहर से बनने वाली यह चुनौती भारत के लिए काफ़ी नहीं थी, सवाल यह कि भारतीय युवा अंदर से भी क्यों कट्टरपंथी बन रहे हैं, यह हमारे लिए और भी ज़्यादा चिंता की वजह है। शायद एक लघु प्रश्नोतरी कुछ जवाब दे पाए। उदाहरणार्थ, मुज़म्मिल शकील गनई, अदील अहमद राठर, शाहीन सईद, इरफ़ान अहमद वागे, आमिर राशिद अली और जसीर बिलाल वानी के बीच एक समान क्या है, इन सभी पर लाल किला विस्फोट कांड में राज्य में बड़ी अव्यवस्था की साज़िश रचने का आरोप है?
दूसरा, उमर खालिद, शरजील इमाम, मीरान हैदर, गुलफ़िशा फ़ातिमा, शिफ़ा उर-रहमान, मोहम्मद सलीम खान के बीच क्या एक समान है, इन सभी पर 2019 के दिल्ली दंगों के ज़रिये सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र रचने का आरोप है?
तीसरा, मोहम्मद अखलाक, मज़लूम अंसारी, इम्तियाज़ खान, पहलू खान, अलीमुद्दीन अंसारी, रकबर खान, कासिम, मोहम्मद ज़हीरुद्दीन, लुकमान अंसारी और अफान अब्दुल अंसारी के बीच एक जैसा क्या था,इन सब को इस अफवाह पर पीट-पीटकर मार डाला गया कि वे गोमांस ले जा रहे थे?
इन सबका छोटा-सा जवाब यह है कि ये सब मुसलमान हैं। ज़रा सोचिए। लाल किले पर हुए विस्फोट में शामिल लोग, वे आरोपी जिन्हें पुलिस ने दिल्ली दंगों के मामले में यूएपीए के तहत पकड़कर जेल में डाल रखा है और साथ ही वे जिन को गोरक्षकों ने गोमांस ले जाने की अफवाह पर पीट-पीट कर मार डाला – मुसलमानों के इन एकदम अलग-अलग समूहों के बीच एक उभयनिष्ठ बिंदु है, उनका धर्म।
मुज़म्मिल शकील पेशे से एक डॉक्टर हैं, इरफ़ान अहमद एक मुफ़्ती हैं, उमर खालिद ने जेएनयू से एमफिल किया है, गुलफ़िशा फ़ातिमा ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की है और अखलाक और बाकी लोग उत्तर प्रदेश, झारखंड और राजस्थान के ट्रक चालक थे। ये महिला-पुरुष भारत के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक तबकों से हैं – जिनके बीच जमीन-आसमान का अंतर है। दिक्कत यह है कि हम इन सबको एक ही जैसे मान रहे हैं।
शकील और इरफान, और उमर उन-नबी जोकि लाल किले के बाहर हुए बम विस्फोट का आत्मघाती बॉम्बर था, इस जैसों को वाकई सबसे कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए – उन्होंने देश को अंदर से कमज़ोर करने की कोशिश की। लेकिन उमर खालिद, शरजील, गुलफिशा और दूसरे अन्य, जो आज भी बिना जमानत के, पांच साल से जेल में बंद हैं – उनके केस की सुनवाई आखिरकार इन दिनों सुप्रीम कोर्ट में हो रही है – उन्होंने शुरू से ही अपनी बेगुनाही की दुहाई दी है। जहां तक अखलाक और उसके साथियों की बात है, उन्हें कभी मौका ही नहीं मिला, मौत पहले ही उन्हें लील चुकी है।
अब ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार दस साल पहले दादरी में हुई अखलाक कत्ल कांड के सभी आरोपियों के खिलाफ केस वापस लेने जा रही है। कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों, किन हालात में, और क्या यह हो सकता है। अगर ऐसा है, तो यह साफ नहीं कि इससे कानून के शासन पर क्या असर पड़ेगा।
लेकिन असली सवाल पर वापस आते हैं। भारतीय मुसलमान आतंकी घटनाओं की साजिश क्यों रच रहे हैं और लाल किले के बाहर खुद को क्यों उड़ा रहे हैं? उमर उन-नबी ने खुद को क्यों उड़ा लिया – जैसा कभी एलटीटीई के आतंकवादी किया करते थे या अफ़गानिस्तान-पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में जिहादी करते हैं – इन लोगों ने एक लोकतांत्रिक देश में निहित विरोध करने के सुरक्षित ढंग को अपनाकर, अपना गुस्सा क्यों नहीं निकाला? वह असामान्य समस्या क्या है जिसका सामना भारतीय मुसलमान कर रहे हैं, वह जिसे भारतीय हिंदू या भारतीय सिख या ईसाई या दूसरे धर्मों के लोग समझ नहीं पा रहे हैं?
इस लेख का मकसद यह समझने की कोशिश करना है कि भारत इस समय अपने वजूद की किस बड़ी मुश्किल घड़ी से गुज़र रहा है – बाहरी दुश्मन से खतरा, देश की अनिश्चितता भरी और उतार-चढ़ाव के हालात वाली विदेश नीति, जब गहरे दोस्त कम व खत्म हो रहे हैं, और देश के भीतर भी असुरक्षा।
लेकिन इसे कोई कैसे समझे?
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

