भरत झुनझुनवाला
वर्ष 1989 में तियानमेन चौक के नरसंहार के बाद पश्चिमी विद्वानों का स्पष्ट मानना था कि चीन की पार्टीवादी व्यवस्था और पूंजीवाद में मेल नहीं बैठ सकेगा और अंततः चीन को लोकतंत्र अपनाना ही पड़ेगा। उनका मानना था कि व्यक्ति की व्यापार करने की स्वतंत्रता के साथ सोचने एवं राजनीतिक स्वतंत्रता को अलग नहीं किया जा सकता। ये साथ-साथ चलते हैं। इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आधार पर ही पूंजीवाद बढ़ता है। राजनीतिक एवं वाणिज्यिक स्वतंत्रताओं के बीच में भेद करना संभव नहीं होगा। ऐसा संभव नहीं कि लोगों को व्यापार करने की स्वतंत्रता दी जाए लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता न दी जाए। जैसे कम्युनिस्ट रूस एवं कम्युनिस्ट चीन में राजनीतिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध होने के साथ-साथ व्यापारिक गतिविधियां कमजोर पड़ गयी थीं और कम्युनिज्म ध्वस्त हो गया था। पूर्व का यह आकलन आज पूरी तरह असफल हुआ दिखता है। चीन ने राजनीतिक प्रतिबंध के साथ-साथ व्यापारिक स्वतंत्रता का मेल बना लिया है। इसी क्रम में आज हांगकांग में चीन विश्व समुदाय की परवाह किये बगैर तानाशाही थोप रहा है।
कई अध्ययन बताते हैं कि चीन के लोग लोकतांत्रिक देशों की तुलना में ज्यादा प्रसन्न एवं संतुष्ट हैं। एडेलमैन ट्रस्ट द्वारा 2020 में प्रकाशित किये गए अध्ययन में लोगों से पूछा गया कि उनका अपनी सरकार पर कितना विश्वास है? सामने आया कि अमेरिका के 39 प्रतिशत लोगों को, भारत के 81 प्रतिशत लोगों को और इनके सामने चीन के 90 प्रतिशत लोगों को अपनी सरकार पर विश्वास है। दूसरा प्रश्न पूछा गया कि विश्व की चाल में पीछे छूट जाने का कितना भय है? सामने आया कि भारत के 73 प्रतिशत लोगों को, अमेरिका के 55 प्रतिशत लोगों को और चीन के 59 प्रतिशत लोगों को विश्व की चाल में पीछे छूट जाने का भय था। इन दोनों आंकड़ों से स्पष्ट है कि चीन की जनता को भारत और अमेरिका की तुलना में अपनी सरकार पर ज्यादा विश्वास है। देश को नयी सदी की जरूरतों के अनुसार चलाने में अमेरिका और चीन दोनों ही हमसे आगे हैं। अतः हमें यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि चीन में कोई आंतरिक विघटन की संभावना है। ध्यान देना चाहिए कि यह रपट 2020 में प्रकाशित हुई है। इसलिए भाजपा के कार्यकाल की यह स्थिति है।
दूसरे अध्ययन में यह बात निकली कि चीन के लोगों को अपनी सरकार पर विश्वास में सुधार हो रहा है। हारवर्ड सेंटर फार डेमोक्रेटिक गवर्नेंस के एक अध्ययन में 2011 एवं 2016 के सर्वेक्षणों का ब्योरा दिया गया है। चीन के लोगों से पूछा गया कि उनकी दृष्टि में उनकी नौकरशाही कितनी दयावान है? 2011 में 61 प्रतिशत लोगों ने अपनी नौकरशाही को दयावान माना तो 2016 में 74 प्रतिशत लोगों ने ऐसा माना। दूसरा सवाल पूछा गया कि नौकरशाही को आम आदमी से कितना सरोकार है? 2011 में 44 प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया तो 2016 में 52 प्रतिशत लोगों ने। तीसरा सवाल पूछा गया कि नौकरशाही द्वारा अमीर लोगों के हित को ही अधिक साधा जाता है क्या? 2011 में 45 प्रतिशत लोगों ने तो 2016 में केवल 40 प्रतिशत लोगों ने ऐसा माना। चौथा सवाल पूछा गया कि नौकरशाही द्वारा गैरकानूनी घूस अथवा वसूली की जाती है या नहीं? 2011 में 32 प्रतिशत लोगों ने वसूली की जाती है कहा तो 2016 में केवल 23 प्रतिशत ने। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि चीन की जनता का अपनी सरकार पर विश्वास में सुधार हो रहा है। लोकतंत्र के अभाव में जनता आक्रोश से उबल नहीं रही है। अतः भारत और अमेरिका की तुलना में चीन के लोग अपनी सरकार से ज्यादा प्रसन्न भी हैं और इसमें उत्तरोत्तर सुधार भी हो रहा है।
चीन की इस स्थिति का रहस्य उनकी नौकरशाही है। न्यूयार्क टाइम्स के एक लेख में बताया गया है कि चीन में नौकरशाहों की अंक के अनुसार पदोन्नति की जाती है। पूर्व में यह देखा जाता था कि किसी नौकरशाह ने अपने क्षेत्र में आर्थिक विकास को कितना बढ़ाया? अब शी जिनपिंग ने इन अंकों में सामाजिक समरसता, पर्यावरण की रक्षा, जनता की सेवा और जन प्रसन्नता के अंक जोड़ दिए हैं। इन सब अंकों के आधार पर ही किसी नौकरशाह की पदोन्नति की जाती है। इस व्यवस्था का प्रभाव है कि चीन की नौकरशाही मूल रूप से जनता के प्रति सौहार्द रखती है और वसूली कम करती है। यही कारण दिखता है कि चीन की जनता पार्टीवादी व्यवस्था में प्रसन्न है और आर्थिक विकास भी हो रहा है। उसे अपने लोकतांत्रिक एवं राजनीतिक अधिकारों की जरूरत ही नहीं है क्योंकि लोकतान्त्रिक अधिकारों की जरूरत तब विशेषतः पड़ती है जब सरकार शोषक एवं आततायी हो जाए। जब सरकार मूल रूप से जनसेवा कर रही हो तो लोगों के लिए लोकतांत्रिक अधिकार की मांग गौण हो जाती है। भारत में लोकतांत्रिक अधिकारों के बावजूद हम आर्थिक विकास में पीछे हैं और हमारी जनता भी असंतुष्ट नजर आती है।
मूल बात है कि सरकार एवं नौकरशाही जनसेवा करे। लोकतंत्र में व्यवस्था है कि यदि कोई सरकार एवं उसकी नौकरशाही जनसेवा नहीं करती है तो 4, 5 या 6 वर्षों बाद बदल दिया जाता है। लेकिन इसमें पेच यह है कि नयी सरकार भी उसी नौकरशाही के आधार पर उसी प्रकार का अलोकप्रिय व्यवहार करती है जैसा कि अपने देश में देखा जाता है। यही कारण है कि एडेलमैन ट्रस्ट के आंकड़ों के अनुसार भारत के लोग अपनी सरकार पर चीन की तुलना में कम विश्वास रखते हैं।
इसका यह अर्थ नहीं कि अपने देश में एकाधिकार लागू होने से सब ठीक हो जायेगा। यदि लोकतंत्र को छोड़कर एकाधिकार की सरकार लागू की जाए तो दो परिस्थितियां बनती हैं। यदि एकाधिकारी सरकार जनसेवा करती है तो यह हर प्रकार से सही बैठता है जैसा कि चीन में देखा जाता है। लेकिन यदि एकाधिकारी सरकार जनविरोधी हो जाती है तब लोकतंत्र लाभप्रद और जरूरी दिखता है जैसा कि युगांडा के ईदी अमीन, फिलिपींस के मार्कोस आदि एकाधिकारी सरकारों के समय देखा गया है। अतः लोकतंत्र की जरूरत इसलिए है कि नौकरशाही को जनहितकारी दिशा में मोड़ा जा सके। लेकिन लोकतंत्र गहरे जनविरोधी आचरण को रोकने मात्र में सफल है। नौकरशाही के जनविरोधी चरित्र को जनसेवा में बदलने में लोकतंत्र असफल है, जैसा कि भारत में देखा जाता है। इसलिए हमें हांगकांग आदि में लोकतंत्र को लेकर चीन की भर्त्सना करने के स्थान पर अपनी नौकरशाही के जनविरोधी चरित्र और चीन की नौकरशाही के जनहितकारी चरित्र पर चर्चा करनी चाहिए। यह सोचकर नहीं चलना चाहिए कि चीन में लोकतंत्र के अभाव में वह देश पिछड़ जाएगा।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।