राहुल गांधी के लिए घरेलू चुनौतियों पर ध्यान देना जरूरी
कांग्रेस नेता राहुल गांधी विदेश यात्राओं के दौरान अकसर सत्तारूढ़ पार्टी की आलोचना करते रहे हैं जिस पर देश में सवाल उठते हैं। ऐसी बयानबाजी उन्होंने हाल ही में कोलंबिया से की। जबकि देश की सबसे महत्वपूर्ण विपक्षी पार्टी की बेहतरी के लिए जरूरी है कि वे प्रतिदिन संसद के अंदर और बाहर अपनी दलीलों को धारदार बनाने के लिए तैयार रहें।
कोलंबिया के एनविगाडो से अपलोड की गई हालिया तसवीर में, राहुल गांधी ने अपनी पहचान का मार्का बनी सफ़ेद टी-शर्ट की जगह नेवी ब्लू शर्ट़, पफ़र जैकेट और खाकी कार्गो पैंट पहन रखी है; पृष्ठभूमि में बजाज ऑटो निर्मित पल्सर बाइक है। एक्स पर डाली इस फोटो के साथ संलग्न कमेंट है—‘कोलंबिया में बजाज, हीरो और टीवीएस को इतना अच्छा प्रदर्शन करते देख गर्व हो रहा है। यह दर्शाता है कि भारतीय कंपनियां दोस्तवाद से नहीं बल्कि नवाचार से जीत सकती हैं।’
लेकिन कांग्रेस पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेता को ज़रूर पता होना चाहिए कि बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज के पिता राहुल बजाज- उदारीकरण से पहले युग में, लाइसेंस राज के दिनों में, जब भयानक लालफीताशाही से निबटने में सही लोगों तक पहुंच रखना ज़रूरी था- वे संरक्षणवाद के अग्रणी पैरोकार थे और उन्होंने आर्थिक सुधार के विचार के ख़िलाफ़ तगड़ी लड़ाई लड़ी थी। बड़े पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों का गुट,बॉम्बे क्लब, सीनियर बजाज जिसके एक सक्रिय सदस्य थे, उसका जोर अपने कामकाज में आमूल-चूल सुधार की बजाय सामाजिक-राजनीतिक संबंधों पर ज्यादा था, गलाकाट महत्वाकांक्षा में उलझने की बजाय भाईचारा निभाने का बीते वक्त का सुलभ रास्ता, तथापि था तो दोस्तवाद ही।
राहुल की सोशल मीडिया टिप्पणी गौरतलब है कि वे कोलंबिया और ब्राज़ील सहित चार दक्षिण अमेरिकी देशों में से पहले देश की यात्रा पर हैं - हालांकि कांग्रेस पार्टी ने यह नहीं बताया कि शेष दो मुल्क कौन से हैं। बीते गुरुवार को उन्होंने एनविगाडो स्थित ईआईए विश्वविद्यालय का दौरा किया, जहां उन्होंने भाजपा द्वारा ‘भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर व्यापक हमले’ के बारे में बात की।
इस टिप्पणी पर खूब आलोचना हुई कि कांग्रेस नेता विदेशी जमीं से सत्तारूढ़ पार्टी पर बार-बार हमला क्यों करते हैं, जिससे आगे ये प्रश्न उठते हैं: क्या घरेलू राजनीति की आलोचना देश के भीतर तक ही सीमित रहनी चाहिए? क्या आंतरिक राजनीतिक लड़ाई को विदेशी धरती तक ले जाकर राहुल पूरी तरह गलत कर रहे हैं? और तीसरा, कुछ हद तक असंबंधित प्रश्न, यह कि राहुल गांधी दक्षिण अमेरिका गए क्यों –ठीक वैसे ही जब कुछ महीने पहले मलेशिया, अप्रैल में बोस्टन, और साल की शुरुआत में दो बार वियतनाम भी गए?
यह लेख 2014 के बाद से राहुल की कथित 247 विदेश यात्राओं के बारे में नहीं है, जैसा कि भाजपा हमें यकीन दिलवाना चाहती है, जोकि सच नहीं है - निश्चित रूप से, कांग्रेस नेता को अपने विचार फैलाने, नई जगहों की यात्रा करने और नए लोगों को प्रभावित करने का हक है। हालांकि, अब समय आ गया है कि उस समस्या का सामाना करने का जो पिछले कुछ वर्षों से भारत के लोकतंत्र के दिल में कुलबुला रहा है - यानि सत्तारूढ़ भाजपा और भारत की सबसे महत्वपूर्ण विपक्षी पार्टी के बीच बढ़ती दरार। यह तनाव इस तथ्य से और बढ़ गया है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से, पिछले एक दशक में कांग्रेस चुनाव-दर-चुनाव हारती गई है। लेकिन क्योंकि यह अभी भी देश की सबसे महत्वपूर्ण विपक्षी पार्टी बनी हुई है –भले ही कुछ सूबों में भाजपा की बजाय कुछ अन्य दल सत्तारूढ़ हैं, चाहे यह डीएमके, टीएमसी, ‘आप’ या फिर वाम मोर्चा हो, लेकिन वे गिनती में नहीं हैं– और कांग्रेस पर ही भाजपा के अनवरत और भयानक प्रहारों का निशाना रही है। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू जैसे राजनेता, जिन्होंने देश को एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के पथ पर अग्रसर किया, निशाने पर हैं।
पार्टी के सबसे ताकतवर व्यक्ति होने के नाते राहुल गांधी तो और भी आसान शिकार हैं, लेकिन उन्हें वह करना मंजूर नहीं कि नेता को कीलों वाली कुर्सी पर बैठना या कांटों का ताज पहनना पड़ता है। वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाई दे रहे हैं, जो पद से जुड़ी ज़िम्मेवारी निभाए बिना सत्ता चाहता है। एक ऐसा व्यक्ति जिसका दिल सोने का है, जिसके निजी जीवन की त्रासदियां देवता तक को रुला दें—लेकिन वह जो अपने से बेहतर व्यक्ति के पक्ष में हटने से इनकार करता है (भगवान न करे), क्योंकि उन्हें लगता है कि बतौर नेता प्रतिपक्ष या इस पद के बिना भी, केंद्र वही हैं। कि अगर यह केंद्र नहीं टिकेगा, तो सब बिखर जाएगा। और यही आज भारतीय लोकतंत्र के मूल की एक दरार है : राहुल गांधी वह लोकतांत्रिक व्यक्ति हैं जो नरेंद्र मोदी को सत्ता में बनाए रखने की राह तैयार करते हैं। बाकी काम भाजपा कर लेती है।
हो सकता है, यह वाकई एक कठोर निष्कर्ष हो। लेकिन सच्चाई यह है कि वह देश, जो हर दिन बदल रहा है, उसे राहुल की आलोचनाओं के अलावा अन्य विचारों की दरकार है, खासकर जब वह विदेश में हों। साल 2022 में लंदन में उन्होंने कहा था कि भारत की आवाज़ कुचली जा रही है; मार्च 2023 में कैम्ब्रिज में उन्होंने कहा कि भाजपा भारतीय लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला कर रही है; यूरोप और अमेरिका को हस्तक्षेप करना चाहिए और मोदी एवं भाजपा की वास्तविकता को उजागर करना चाहिए ; सितंबर 2024 में वाशिंगटन डीसी में उन्होंने कहा कि कांग्रेस आरक्षण खत्म करने के बारे तभी सोचेगी जब भारत में माहौल अधिक निष्पक्ष हो; इस साल अप्रैल में बोस्टन में कहा कि चुनाव आयोग (ईसी) समझौता कर चुका है।
सवाल यह है कि जब मोदी और भाजपा के खिलाफ लड़ाई यहां है, तो यह कलह दूसरे देश में क्यों ले जाई जाए? राहुल को पता होना चाहिए कि अमेरिकी पत्रकार, खासकर विंसेंट शीन, जिन्होंने अपने लेखों से हमारे लिए कई ऐतिहासिक दस्तावेज छोड़े, भारत यह देखने आए थे कि महात्मा गांधी ने शक्तिशाली ब्रिटिश राज के खिलाफ अहिंसा के हथियार, सत्याग्रह, को कैसे धार दी।
इसलिए यदि राहुल स्वदेश में लड़ाई पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो ज़्यादा कारगर रहता है। जैसा कि पिछले माह उन्होंने कर्नाटक के निर्वाचन क्षेत्र अलंद से 6,000 से ज़्यादा वोट अनियमित रूप से गायब किए जाने का मामला उठाया - इस जांच ने सब को चौंकाया। पिछले कुछ महीनों में, कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के अलावा जागरूक नागरिक समाज अपने यत्नों से बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय से चुनाव आयोग को फटकार लगवाने में कामयाब रहे। चुनाव आयोग को मजबूरन सुझाव मानने पड़े।
सार यह है कि राहुल गांधी के लिए समय कम होता जा रहा है। अगर वे चाहते हैं कि एकजुट विपक्ष भाजपा को उसके ही खेल में हरा दे, तो उन्हें अंशकालिक राजनेता बनना बंद करना होगा। हर हफ्ते भारत में बने रहना होगा और तगड़ी लड़ाई लड़नी होगी।
अगर राहुल मानते हैं कि वे किसी भी तरह से खास हैं, आनुवंशिकी और राजनीति से, पार्टी और देश का नेतृत्व करने को बने हैं, तो उन्हें संसद में और उसके बाहर अपनी दलीलों की धार तेज़ करने को रोज तैयारी करनी होगी। वे भाजपा की खासियत बन चुकी महत्वाकांक्षा से और अपनी पार्टी की गलतियों से सीखें। मसलन, बीतेे साल हरियाणा विधानसभा चुनाव में, वे स्थानीय कांग्रेस क्षत्रपों की आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन न करने की जिद के आगे झुक गए, हालांकि खुद वे गठजोड़ के पक्ष में थे; लेकिन तब विदेश में थे, और अपनी इच्छा पर अमल नहीं कर सके। बाकी इतिहास है। कांग्रेस अभी भी उबर नहीं पाई है।
हमने अभी-अभी दशहरा मनाया। दिवाली आने को है, वहीं बिहार की लड़ाई भी। ऐसे वक्त दक्षिण अमेरिका जाना ही क्यों?
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।