है बड़ी आफत, चाहत को न मिली राहत
हुज़ूर आप बेवजह परेशान हो रहे हैं; पुतिन को भी तो नहीं मिला और न ही शी जिनपिंग को मिला है। फिर अभी तो आपका कार्यकाल शुरू ही हुआ है— मिल जाएगा। थोड़ा धीरज रखें, हुज़ूर।
यूं तो इस आशय का किसी फिल्म का डायलॉग ही है कि अगर आप किसी को दिल की गहराई से चाहो तो पूरी कायनात उस चाहत को पूरा करने में लग जाती है। लेकिन ट्रंप चचा की चाहत पूरा करने में पूरी कायनात तो क्या, नोबेल कमेटी ही नहीं लगी। जबकि ट्रंप चचा ने नोबेल पुरस्कार को दिल की गहराइयों से चाहा था। इस नोबेल के लिए ही तो उन्होंने बावन बार यह दावा किया था कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम उन्होंने ही करवाया था। शहबाज़ शरीफ तथा असीम मुनीर से गवाही भी दिलवाई।
इस नोबेल के लिए ही तो उन्होंने गाज़ा का शांति समझौता करवाया। बल्कि अब तो वह यह भी नहीं कहते कि गाज़ा मेरे हवाले कर दो, मैं इसे दुनिया का सबसे सुंदर शहर बना दूंगा। इस नोबेल के लिए ही तो उन्होंने ज़ेलेंस्की को व्हाइट हाउस बुलाकर धमकाया था कि रूस के साथ युद्ध जल्दी खत्म करो। इस नोबेल के लिए ही तो वे पुतिन से भिड़े हुए हैं, वरना एक जमाने में तो उन पर पुतिन से मदद लेने के आरोप लगते थे। लेकिन फिर भी नोबेल नहीं मिला। अगर नोबेल युद्ध रुकवाने की बजाय टैरिफ लगाने पर मिलता तो शायद ट्रंप चचा को आसानी रहती।
खैर, नोबेल पुरस्कार किसी बेरोज़गार युवक की नौकरी की चाहत तो नहीं है कि कभी पूरी ही नहीं होगी। नोबेल पुरस्कार कोई अंतर्जातीय प्रेम तो नहीं है कि मिलन संभव ही नहीं होगा। नोबेल पुरस्कार कोई भारतीय युवकों की विदेश जाने की इच्छा तो नहीं है कि उसके लिए डंकी बनना तक मंजूर है। ट्रंप चचा को तो नोबेल पाना राष्ट्रपति का चुनाव जीतने से भी आसान लगा था। जब इतने अमेरिकी राष्ट्रपतियों को नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, और यहां तक कि बराक ओबामा को भी मिल चुका है, तो ट्रंप चचा को क्यों नहीं मिला? कहीं ट्रंप चचा ने नोबेल कमेटी को धमकाया तो नहीं था कि बिना हीला‑हवाला किए, ‘नोबेल मेरे हवाले कर दो, नहीं तो टैरिफ लगा दूंगा’? विदेश मंत्री रूबियो उन्हें सांत्वना दे रहे हैं कि हुज़ूर आप बेवजह परेशान हो रहे हैं; पुतिन को भी तो नहीं मिला और न ही शी जिनपिंग को मिला है। फिर अभी तो आपका कार्यकाल शुरू ही हुआ है— मिल जाएगा। थोड़ा धीरज रखें, हुज़ूर।
अच्छा यह बताओ कि आखिर यह पुरस्कार मिला किसे है। अरे अपनी ही बच्ची है हुज़ूर, वो वेनेज़ुएला वाली मारिया मचाडो। हां‑हां, याद आया, वेनेज़ुएला पर तो हम हमला करने वाले हैं न। जी, हुज़ूर — रूबियो ने कहा— और वह हमारा स्वागत करने के लिए तैयार बैठी है। लो, अभी मैं आपकी उनसे बात कराता हूं और उन्होंने मचाडो को फोन लगा दिया। उधर से आई—‘हैलो चचा, पुरस्कार आपको मिला या मुझे— क्या फर्क है? आप की ही बच्ची हूं। आशीर्वाद दीजिए।’