कट्टों के दौर में छटपटाते रहे मुद्दे
हर तरफ कट्टा था, गानों में कट्टा था, भाषणों में कट्टा था और अंत तक आते-आते तो अखबारों का स्टिंग ऑपरेशन भी कट्टे को लेकर ही हुआ। जनता के मुद्दे छटपटाते रहे। पर कट्टों के सामने उनको भला कौन पूछता?
बॉलीवुड के गाने तो साहब एक जमाने से प्रेमियों का साथ निभाते ही आए हैं। अब हर कोई तो मीर, गालिब नहीं पढ़ा होता न। इसलिए बॉलीवुड के गानों ने उनके प्रेम, उनकी तड़प, उनके गम और उनके विरह को अभिव्यक्त करने में उनकी मदद की। शुरुआती छेड़छाड़ से लेकर, प्रेम पत्र लिखने और फिर बिछुड़ने के गम तक सबको उन्होंने अभिव्यक्ति दी। लेकिन अब प्यार-मोहब्बत का जमाना तो है नहीं न साहब। प्रेमी अब या तो पार्कों में कूटे जाते हैं या रेस्तराओं से खदेड़े जाते हैं। एक जमाने में प्रेमीजन दीवाने कहलाए जाते थे। अब रोमियो स्क्वैड उन्हें दीवाना नहीं, बदमाश मानती है। अब लव नहीं, लव जिहाद होता है। हो सकता है इसीलिए बॉलीवुड के गानों में भी इश्क कमीना हो लिया है। शायद इसीलिए अतीतजीवी प्रेमानुरागी, यूट्यूब पर पुराने फिल्मी गाने सुना करते हैं।
खैर, बॉलीवुड के यह गाने प्रेमीजनों के तो चाहे कितने ही काम आए हों, लेकिन नेताओं के कभी काम नहीं आए। न उन्हें कभी किसी ने अपने भाषणों में उद्धृत किया, न ही किसी ने उनके जरिए राजनीतिक स्थिति समझायी। अमरसिंह जैसे कुछ अपवाद बालीवुड के गानों का जरूर इस्तेमाल करते थे, लेकिन उन्हें कभी किसी ने सीरियसली लिया ही नहीं। वे बेचारे दलाली में ही खर्च हो गए बताए।
बहरहाल, भोजपुरी गाने इस मामले में बॉलीवुड के गानों से बहुत आगे निकल गए हैं। वैसे ही जैसे भोजपुरी फिल्मों के नायक, राजनीति में बॉलीवुड के नायकों से बहुत आगे निकल गए हैं। बॉलीवुड के नायकों को राजनीति वैसे कभी रास नहीं आयी, जैसी भोजपुरी फिल्मों के नायकों को आयी। इस मामले में वे तमिल फिल्मों के नायकों को जबर्दस्त टक्कर दे रहे हैं। राजनीति में जैसी कामयाबी तमिल फिल्म नायकों को मिली, वैसी ही कामयाबी अब भोजपुरी फिल्मी नायकों को मिल रही है। इसके लिए उन्हें खासतौर से भाजपा का धन्यवादी होना चाहिए।
खैर, बात भोजपुरी गानों की हो रही थी, तो बिहार के इस चुनाव में बस वही छाए रहे। शुरुआत घुसेड़ देंगे कट्टा कपार में से हुई और मारब सिक्सर छह गोली छाती में तक पहुंच गई। बीच में भाषणों में कनपटी पर कट्टा भी धरा गया। जिससे यह साबित हुआ कि गानों की अहमियत अपनी जगह, पर असली अहमियत कट्टे की है। कट्टे ने न सिर्फ टीवी रिपोर्टरों को अपनी रिपोर्टों को बेहतर अगर न भी कहें तो आकर्षक बनाने में मदद दी, बल्कि नेताओं के भाषणों को भी आकर्षक बनाया। हर तरफ कट्टा था, गानों में कट्टा था, भाषणों में कट्टा था और अंत तक आते-आते तो अखबारों का स्टिंग ऑपरेशन भी कट्टे को लेकर ही हुआ। जनता के मुद्दे छटपटाते रहे। पर कट्टों के सामने उनको भला कौन पूछता?
