उत्तर और दक्षिण तथा विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक-दूसरे पर आरोप लगाने का यह उपयुक्त समय नहीं है। हम उन देशों को पर्यावरण न्याय से वंचित नहीं कर सकते हैं, जिनकी जलवायु आपदा लाने में कोई भूमिका नहीं रही है। लेकिन जलवायु आपदा की मार सबसे ज्यादा झेलते हैं।
बेलेम, ब्राज़ील में आयोजित कॉप-30 सम्मेलन को जलवायु संकट पर वैश्विक कोष से आर्थिक मदद देने और कॉप-27 के निर्णयों को ईमानदारी से लागू करवाने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन के रूप में प्रचारित किया गया। यदि सच में ऐसा है, तो यह आगे बढ़ सकेगा जब जलवायु न्याय की धारणा प्रबल हो। यह स्वीकारा जाए कि जिस दर से जलवायु बदलाव के आघात बढ़ रहे हैं, जिस दर से पृथ्वी गर्म हो रही है, अनुकूलन की प्रक्रिया उस हिसाब से पिछड़ती जा रही है।
शरम अल शेख में आयोजित कॉप-27 सम्मेलन में खेमों में बंटे देशों में व्यवहार में कटुता देख संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस को तो यहां तक कहना पड़ा था कि उत्तर और दक्षिण तथा विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक-दूसरे पर आरोप लगाने का यह उपयुक्त समय नहीं है। उनका कहना था कि हम उन देशों को पर्यावरण न्याय से वंचित नहीं कर सकते हैं, जिनकी जलवायु आपदा लाने में कोई भूमिका नहीं रही है। उनका आशय सबसे कम विकसित और द्वीपीय देशों से भी था, जिनका जलवायु आपदा उत्पन्न करने में सबसे कम अंश है, किंतु जो जलवायु आपदा की मार सबसे ज्यादा झेलते हैं। अंततः कॉप के इतिहास में कॉप-27 ऐसा पहला सम्मेलन बन गया था, जिसमें भारी दबावों के बीच धनी देशों ने आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए कार्बन प्रदूषण से पीड़ित गरीब देशों को एक मुआवजा कोष की मांग मानी थी। कॉप-27 में जलवायु जोखिम संभावित संकट-उन्मुख देशों ने तो कोष स्वीकृति पर दबाव बनाने के लिए यह धमकी भी दे डाली थी कि जब तक इस पर निर्णय नहीं होगा, वे वापस नहीं जाएंगे।
आज वैज्ञानिक सुझा रहे हैं कि तेल भंडारों में बचे तेल को भी वहीं रहने दीजिए। परंतु हो उलटा रहा है। आसमान में जो ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन जमा है, उसका 90 प्रतिशत पश्चिमी देशों और जापान का है। तेल ही नहीं, कोयले को भी तेजी से ज्यादा मात्रा में बाहर निकाला जा रहा है। देश अपनी बढ़ी जरूरतों के लिए अपने कोयले के आयातों को बढ़ा रहे हैं। हालात ये हैं कि कोयले तक की मांग बढ़ रही है। भारत भी उनमें से एक है। ऐसे में अब एक्टिविस्ट उन बंदरगाहों और यार्डों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, जहां से निर्यात का कोयला भेजा जा रहा है। भारत समेत विश्व के कई देशों ने शून्य कार्बन उत्सर्जन प्राप्त करने के प्रयास भी जारी रखे हैं। किंतु साफ ऊर्जा का उत्पादन इतना नहीं हो रहा है कि वह विभिन्न देशों और विभिन्न क्षेत्रों की सारी जरूरतों को पूरी तरह किफायती तौर पर पूरा कर सके। जितना साफ ऊर्जा का उत्पादन बढ़ता है, तब तक उससे ज्यादा ही विभिन्न कार्यों और क्षेत्रों के लिए ऊर्जा की जरूरतें भी बढ़ जाती हैं। इसका एक उदाहरण चीन भी है।
यूरोपीय यूनियन तो उन आयातों पर भी कार्बन टैक्स लगाने का सोच रही है, जिनके निर्माण में थ्रेशहोल्ड वैल्यू से ज्यादा उत्सर्जन होता है। ऐसे में मजबूरन ही सही, विभिन्न देश अपने-अपने देशों में जीवाश्म ईंधनों के उपभोग, उपयोग और उत्पादन पर कड़े से कड़े नियम लागू कर रहे हैं। इनके अंतर्गत प्रतिष्ठानों, उद्यमों या सेवा क्षेत्र के प्रदाताओं को विभिन्न गतिविधियों के संचालन को जारी रखने के लिए या तो साफ ऊर्जा स्रोतों का विकल्प चुनना है, अथवा टेक्नोलॉजी और गतिविधिक पद्धतियों से उत्पादनों को शून्य कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन से बनाना है। अक्तूबर, 2023 में विश्व की 130 प्रमुख कंपनियों ने, जिनमें महेन्द्रा ग्रुप, नेशनल वोल्वो कार जैसी कंपनियां शामिल हैं, जिनका वैश्विक वार्षिक राजस्व करीब एक खरब अमेरिकी डॉलर था, वैश्विक नेताओं से कहा है कि अगले समिट में वे फॉसिल फ्यूल फेज-आउट के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त करें। धनी अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए 2035 तक सौ प्रतिशत डिकार्बोनाइज्ड सिस्टम और इसे 2040 तक प्राप्त करने के लिए गरीब देशों को आवश्यक पूरी वित्तीय सहायता दी जाए।
कॉप-28 के चीफ, यूएई के सुल्तान अल जबर ने अप्रैल, 2023 के एक सम्मेलन में यह कहा था कि तेल साफ ऊर्जा बदलाव में महत्वपूर्ण रहेगा। हमें पेट्रोल या फॉसिल फ्यूल फेज-आउट के बजाय इनके द्वारा पैदा होने वाले इमिशन फेज-आउट की जरूरत है। उनका कहना था कि सोलर और पवन ऊर्जा ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं, बदलाव रोकने में खासकर स्टील, सीमेंट और एल्यूमीनियम उद्योगों में उत्सर्जन कम करने में मुश्किलें आ रही हैं। कुछ उद्योग हैं, जो कार्बन-इंटेन्सिव हैं। यदि देश इन उद्योगों की अपनी उन इकाइयों पर प्रतिबंध लगाएंगे तो इसका विकास पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। जिससे आवश्यक उत्पादों में कमी और प्रतिबंधात्मक उपायों से उनके नागरिकों की आजीविका और जीवन गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
घोर जलवायु संकट से लड़ने के लिए 2050 तक कार्बन न्यूट्रल दुनिया की आवश्यकता का संदेश यूएन के महासचिव ने 2019 में कॉप-25 में ही दे दिया था। भारत समेत विश्व के कई देशों ने शून्य कार्बन उत्सर्जन प्राप्त करने के प्रयास भी जारी रखे हैं। किंतु पेट्रोल और कोयले का उपयोग छोड़िए, धरती के कोख से इनको निकालने की भी तेजी कम नहीं होने वाली है।
फॉसिल फ्यूल्स फेज-आउट की जगह इमिशन फेज-आउट की वकालत हुई, तो गरीब देश कहां जाएंगे? व्यापार पर भी असर पड़ेगा। एक तरफ लॉस एंड डैमेज फंड से कुछ नहीं मिला, ऊपर जलवायु परिवर्तन का दंश भी झेल रहे हैं। कुछ का तो अस्तित्व ही दांव पर है। उनकी समस्या इस हद तक है कि सागर में डूबते अपने नागरिकों को कहां बसाएं।
लेखक पर्यावरण वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

