परमाणु अस्त्रों को लेकर गैर जिम्मेदार बयानबाजी
अतीत में परमाणु संपन्न देशों की बयानबाजी संयमपूर्ण रही है। परमाणु ताकत का जिक्र इरादतन संदेशों तक सीमित था जिसनेे दशकों परमाणु युद्ध से बचाए रखा। लेकिन अब वह गैर-जिम्मेदार हो गई है। बात परमाणु ब्लैकमेल वाली बयानबाजी तक पहुंच गई है। इस पर दुनिया की चुप्पी तटस्थता नहीं, बल्कि मिलीभगत कही जा सकती है।
परमाणु युग की सदा अपनी एक अलग भाषा रही है। शीत युद्ध के निवारक (डिटेरेंट) और पारस्परिक विनाश सुनिश्चित करने वाले इंतजाम से आगे चलकर, इसको ‘विश्वसनीय न्यूनतम निवारक’ और ‘उपयोग में पहल नहीं’ जैसे सौम्य नाम देने तक, हर वाक्यांश सावधानी से गढ़ा जाता था। व्याकरण अपने आप में संयम का एक औजार बन गया। धारणा ये रही कि इस परमाणु-व्याकरण से अंकुश बनता है और यह उनका उपयोग रोककर रखता है।
परस्पर विरोधियों तक में भी समझ थी कि परमाणु मामलों में, शब्दों में वेग होता है- वह जो सैन्य लामबंदी, डराने या एक भी मिसाइल हिलाए-डुलाए बिना तनाव अथवा टकराव में बढ़ोतरी करने में सक्षम होता है। सार्वजनिक संवाद निवारण के अभिन्न अंग थे; बयान स्पष्टता भरे और नपे-तुले शब्दों में गढ़कर जारी किए जाते क्योंकि कोई एक गैर-जिम्मेदार वाक्यांश सैन्य गतिविधि या बेबात का अलर्ट पैदा कर सकता था। अब वह अनुशासन कमज़ोर पड़ता जा रहा है। संयम का व्याकरण स्थूल बन गया है। जहां कभी परमाणु ताकत का जिक्र इरादतन संदेशों तक सीमित था, अब वह चुनावी रैलियों, प्रेस वार्ताओं और टेलीविज़न भाषणों में आन घुसा है। परमाणु संदर्भ में इस किस्म की नाटकीय जुमलेबाजी हानि रहित नहीं होती; यह उन्हीं नियमों का उल्लंघन करने जैसा है जिन्होंने दशकों तक दुनिया को परमाणु युद्ध से बचाए रखा है।
चुप्पी की ताकत प्रबल करना : खतरा न केवल उससे है जो कुछ कहा जाता है बल्कि जो अनुत्तरित रह गया, उससे भी है। जब एक मेज़बान देश की चुप्पी संयुक्त राष्ट्र की अनुपस्थिति और अन्य परमाणु ताकतों की उदासीनता मिलकर, किसी परमाणु धमकी को बिना ऐतराज जाने दे,तो वे जवाबदेही दरकिनार और परमाणु मानक कमजोर कर देते हैं।
विरोधाभास पर टिका परमाणु निवारक : हथियार पास होना युद्ध रोकने के लिए है न कि युद्ध छेड़ने को। यह विरोधाभास केवल संयम, रुख, सैन्य तैनाती और इनसे बढ़कर, भाषा के जरिये जीवित रहता है। नोबेल पुरस्कार विजेता रणनीतिकार थॉमस शेलिंग ने चेताया था कि निवारण केवल हथियारों तक सीमित नहीं, ‘जोखिम के हेरफेर’ से भी जुड़ा है। इसलिए, भाषा शस्त्रागार का एक हिस्सा है। गैर-जिम्मेवार तैनाती की तरह, लापरवाह शब्द भी संतुलन खतरनाक रूप से बिगाड़ सकते हैं।
हमारे पूर्व नौसेना प्रमुख, एडमिरल अरुण प्रकाश ने चेताया है कि परमाणु शब्दावली भी परमाणु रुख जितनी ही जोखिम भरी है। उनका कहना है कि लंबे समय तक भारत की विश्वसनीयता का आधार दोनों ही मामलों में अनुशासित संयम बनाए रखना रहा। परमाणु युग में लापरवाह बयानबाजी को महज घरेलू राजनीति वाली जुमलेबाजी मानकर खारिज करना खतरनाक व गलत आकलन हो सकता है।
बंकर से नहीं, खुलेआम : एक स्पष्ट मामला इस गिरावट को दर्शाता है। एक अग्रणी लोकतंत्र की भूमि पर, एक परमाणु-शस्त्र सपंन्न मुल्क का सेनाध्यक्ष ऐलान करता है : ‘अगर हमने पाया कि हम डूबने जा रहे हैं, तो हम अपने साथ आधी दुनिया को भी ले डूबेंगे’। यह बात उन्होंने किसी बंकर में फुसफुसाकर नहीं कही, बल्कि घरेलू और वैश्विक श्रोताओं के सामने सरेआम माइक्रोफोन में बोली। मेजबान देश ने इस पर कोई ऐतराज नहीं जताया। संयुक्त राष्ट्र ने चुप्पी साध ली। सुरक्षा परिषद के अन्य स्थायी सदस्यों ने आंखें फेर लीं। यह संकेत देता है कि कूटनीतिक कीमत चुकाए बिना परमाणु ब्लैकमेल की जा सकती है। बिन ऐतराज प्रत्येक धमकी अगले धमकी की सीमा को और छोटी कर देती है, और संयम को उद्दंडता में बदल देता है।
संधियों से परे : इस ख़तरे का फैलाव परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जैसी संधियों से भी कहीं आगे तक जाता है। असली ख़तरा सिर्फ़ इसमें नहीं कि परमाणु अस्त्रों का नियंत्रण किसके पास है बल्कि इसमें भी है कि परमाणु हथियारों को लेकर बात कैसे की जाती है, कैसे उपयोग की धमकी जाती है और कैसे इस सबका सामान्यीकरण किया जा रहा है। जब एक पराजित सेनाध्यक्ष, अपने ही प्रधानमंत्री को पीछे करके, किसी दूसरे लोकतंत्र की धरती से अपने लोकतांत्रिक पड़ोसी और आधी दुनिया को धमकी दे डाले, और संसार चुप्पी साध ले, तो यह हरकत किसी संधि के उल्लंघन से ज़्यादा विनाशकारी मिसाल कायम करने वाली है। यह दुनिया भर के सत्ताधीशों को संदेश देता है कि परमाणु ब्लैकमेल का उपयोग, निर्भय होकर खुलेआम किया जा सकता है। यह बर्ताव संयम के मूल व्याकरण को बेमाने करता है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि ऐसी बयानबाज़ी का इस्तेमाल केवल घरेलू राजनीतिक लाभ के लिए है। लेकिन परमाणु युग में धारणा भी क्षमता जितनी ही खतरनाक हो सकती है। एक गलत जुमला प्रतिद्वंद्वी को निवारक रुख अपनाने को प्रेरित कर सकता है। एक अस्पष्ट वाक्यांश,नीयत को लेकर ग़लतफ़हमी पैदा कर सकता है। और जब विवादित सीमाओं से लेकर साइबर हमले की घटनाओं तक, संकट पहले से ही एक साथ चले हुए हों – गलती करके बच जाने की गुंजाइश खतरनाक रूप से काफी कम रह जाती है।
अन्य मानदंडों से सबक : विगत में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय दर्शा चुका है कि संयम न केवल शस्त्रागार के जरिए, बल्कि सैद्धांतिक रूप में संहिताबद्ध करके भी हासिल किया जा सकता है। साल 1997 की ओटावा बारुदी सुरंग संधि ने साबित कर दिया था कि जब दुनिया एकमत हो जाए कि कुछ हथियार एकदम अस्वीकार्य हैं, तो अवहेलना का कलंक काफी अहमियत रखता है। रासायनिक हथियार सम्मेलन ने भी यह स्थापित किया कि परिस्थिति जैसी भी हो, कुछ ख़तरे वैश्विक रूप से रेड लाइन पार कर जाते हैं। यहां तक कि अनिच्छुक शक्तियों को भी खुले तौर पर नियमों की अवहेलना करने की बजाय, उल्लंघन जायज ठहराने या छुपाने को मजबूर होना पड़ता है।
ये मामले दर्शाते हैं कि संयम को केवल नियंत्रण संधियों के माध्यम से नहीं, बल्कि एक साझा विश्वास के जरिए संस्थागत रूप दिया जा सकता है, इसी प्रकार कुछ हथियारों और उनके उपयोग को लेकर बयानबाज़ी को भी पूर्ण अवैध घोषित करना चाहिए। चिंताजनक रूप से, परमाणु विमर्श उल्टी दिशा में जा रहा है। धमकी और इस्तेमाल की वर्जना को मज़बूत करने की बजाय, चुप्पी व बेपरवाही उसे खोखला कर रही है। कलंक के जिस डर ने बारूदी सुरंगों और रासायनिक हथियारों का उपयोग रोके रखा है, वह परमाणु हथियारों के मामले में बेपरवाही का सामान्यीकरण करने से प्रभाव खो सकता है।
ऑपरेशन सिंदूर की सीख : भारत का अपना इतिहास एक शक्तिशाली प्रतिवाद प्रस्तुत करता है। ऑपरेशन सिंदूर में, जब पाकिस्तानी सेना कमज़ोर पड़ी और तनाव बेहद था, भारत के पास युद्ध को विस्तार देने की पूरी क्षमता थी। फिर भी उसने नपा-तुला संयम चुना। लक्ष्यों पर सटीक प्रहार किया, टकराव में विस्तार किये बिना ऑपरेशन खत्म कर दिया। यह कमज़ोरी नहीं थी; आवेग के वशीभूत होने के बजाय सिद्धांत पर अमल करना था। ऑपरेशन सिंदूर ने साबित कर दिया कि परमाणु युग की शासन प्रणाली गैर-जिम्मेवार हुए बगैर दृढ़ रह सकती है। यह भी कि संयम की शक्ति भरोसा कम करने के बजाय मज़बूत करती है।
संयम के व्याकरण की पुनर्स्थापना : चिंतन करना बेशक पहले जरूरी होता है, लेकिन कार्रवाई इंतजार नहीं सकती। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, माइक्रोफोन पर गैर-जिम्मेदार बयानबाजी से परमाणु युग की सुरक्षा के वास्ते, दुनिया को अपने सिद्धांतों और परमाणु शब्दावली में अनुशासन बहाल करना होगा।
जरूरी है बहुआयामी दृष्टिकोण : मेजबान देश को अपनी भूमि पर परमाणु ब्लैकमेल का विरोध करना चाहिए, स्पष्ट करते हुए कि ऐसी बयानबाजी अस्वीकार्य है। संयुक्त राष्ट्र, पी-5, क्षेत्रीय मंच जैसी संस्थाओं को इसकी पुष्टि अवश्य करनी चाहिए कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी सामूहिक निंदा की मांग करती है, विनम्र चुप्पी की नहीं। राजनयिक मंच संयम के स्थान के रूप में बरते जाएं। कोई प्रेस वार्ता या आधिकारिक यात्रा व्यक्तिगत मंच नहीं होता; यह एक देश के दूसरे देश से संवाद का पटल होता है। नागरिक समाज और मीडिया में भी संयम की शब्दावली की समझ जरूरी है, बेकाबू परमाणु बयानों को उग्रता बढ़ाने के रूप में पेश करना चाहिए। रक्षा प्रतिष्ठान भी राजनीतिक नेतृत्व को नियमित रूप से जानकारी देकर उन्हें निष्पक्ष, ऐतिहासिक रूप से स्थिर और खतरे के आकलन से अवगत कराए, ताकि नेताओं में सरसरी तौर पर ही, लेकिन परमाणु संबंधी अनौपचारिक बयानबाजी की कीमत चुकाने की समझ बन सके। यह अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना नहीं, बल्कि यकीनी बनाना है।
सिद्धांत पालना : जब सिद्धांत मौन पड़ जाएं, सत्ता उनसे खिलवाड़ करने लगती है। शब्दावली पर काबू न रहने पर,यह अपनी बोली बोलने लगती है- धमकी की भाषा। यह ऐसी बोली है जिसमें दुनिया कभी भी पारंगत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा होने का मतलब होगा मुख से तबाही निकलना। परमाणु ब्लैकमेल के समक्ष दुनिया की चुप्पी तटस्थता नहीं, बल्कि मिलीभगत है। इस प्रवृत्ति को उलटना एक विकल्प न होकर अस्तित्वगत अनिवार्यता है।
लेखक सेना की पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर और पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक ट्रस्टी हैं।