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शैक्षिक गुणवत्ता में गिरावट पर आत्ममंथन करें

डिग्रियों का बाजारीकरण

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भारत में शिक्षा क्रांति के दावे के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों तक जागरूकता नहीं पहुंची है। फर्जीवाड़ा, व्यापारीकरण और घटते मानकों ने शिक्षा व्यवस्था को गहरी चुनौती दी है।

हम देश में शिक्षा के नए मॉडलों, डिजिटल प्रगति और कृत्रिम मेधा की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं। तकनीक और इंटरनेट की ताकत में हम विकसित देशों की बराबरी का दावा करते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि आज भी शिक्षा से मिलने वाले जागरूकता के संस्कार आमजन तक नहीं पहुंच पाए हैं। कृत्रिम मेधा और रोबोटिक युग की चर्चा के बीच देश का बड़ा ग्रामीण हिस्सा अब भी इनसे वंचित है।

शिक्षा क्रांति का अर्थ यह है कि आधुनिक शिक्षा केवल अमीर और उच्च वर्ग तक सीमित न रहे, बल्कि गरीब वर्ग के बच्चों को भी समान अवसर और ज्ञान प्राप्त हो। सरकारी स्कूलों का स्तर इतना ऊंचा हो जाए कि गरीब छात्रों को महंगे, पश्चिमी शैली के स्कूलों की आवश्यकता न पड़े।

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वास्तव में शिक्षा क्रांति के जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे, वे अभी तक साकार नहीं हो सके हैं। हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के जस्टिस हरप्रीत सिंह बराड़ की टिप्पणियां इस विफलता को उजागर करती हैं। उन्होंने कहा कि न केवल पंजाब, बल्कि देशभर के शिक्षा नियामक संस्थान अपने संस्थानों में न्यूनतम शैक्षणिक मानकों को लागू करने में असफल रहे हैं। नियामक संस्थाओं का दायित्व था कि वे शिक्षा को वैज्ञानिक, सुसंस्कृत और आधुनिक स्वरूप दें, लेकिन व्यवहार में वे केवल औपचारिकता निभा रही हैं। इस लापरवाही का परिणाम यह है कि स्कूलों और कॉलेजों की परीक्षाएं ही नहीं, बल्कि युवाओं के भविष्य निर्धारण वाली प्रतियोगी परीक्षाएं भी सुचारु रूप से नहीं हो पा रही हैं।

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वर्तमान समय में न्यायपालिका की सबसे बड़ी चिंता शिक्षण क्षेत्र में फैलते फर्जीवाड़े को लेकर है। यह फर्जीवाड़ा लगातार बढ़ रहा है, परंतु पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकों में आवश्यक सुधार के संकेत नहीं दिखते। बिना किसी ठोस योग्यता के बांटी जा रही डिग्रियां न केवल युवाओं के भविष्य को संकट में डालती हैं, बल्कि जनहित को भी नुकसान पहुंचाती हैं।

हाल ही में पंजाब से खबरें सामने आईं कि कुछ कर्मचारी, जिनमें शिक्षक और डॉक्टर भी शामिल थे, फर्जी डिग्रियों के आधार पर वर्षों तक नौकरी करते रहे। जब प्रमोशन के समय जांच हुई, तब ये घोटाले उजागर हुए। आज देश का हर नौजवान विदेशों में कमाने का सपना देखता है। इंग्लैंड जैसी जगहों पर अंग्रेज़ी भाषा की योग्यता के लिए प्रमाणपत्र मांगे जाते थे, जिन्हें जाली तरीके से प्राप्त कर लिया जाता था। लेकिन इन फर्जी डिग्रियों के कारण विदेशों में न केवल उनके सपनों को झटका लगता, बल्कि दोयम दर्जे का जीवन भी जीना पड़ता था।

न्यायपालिका की एकल पीठ की सबसे बड़ी चिंता शिक्षा के बढ़ते व्यापारीकरण को लेकर है। बच्चों के स्कूल में दाखिले के साथ ही पहली कक्षा से ट्यूशन शुरू करवा दी जाती है और अभिभावक इसे अपनी जिम्मेदारी की समाप्ति मान लेते हैं। शिक्षा प्रणाली में व्यापारीकरण इस हद तक बढ़ गया है कि चाहे वह दाखिले की संयुक्त परीक्षाएं हों या आईएएस जैसी प्रतिष्ठित सेवाएं, हर स्तर पर कोचिंग संस्थानों का बोलबाला है। न्यायपीठ ने यह भी इंगित किया कि सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा डिस्टेंस एजुकेशन सेंटर्स से पैदा हुआ है, जिनका उद्देश्य शिक्षा नहीं, बल्कि व्यावसायिक लाभ है। इन संस्थानों से मिलने वाली तकनीकी डिग्रियों की वैधता पर सवाल उठते हैं। न्यायालय ने कहा है कि इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी डिग्रियों को तभी मान्यता दी जाए जब वे एआईसीटीई से अनुमोदित हों।

वर्तमान परिवेश में निजी शिक्षा और कोचिंग संस्थानों का जाल इस कदर फैल गया है कि कई संस्थान किसी भी विश्वविद्यालय से डिग्री दिलवाने का दावा करते हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हर वर्ष ऐसे अवैध और मान्यता-विहीन संस्थानों की सूची जारी करता है, जो नाम बदल-बदल कर फर्जी डिग्रियों का धंधा चला रहे हैं। पंजाब में ही 16 से अधिक निजी विश्वविद्यालय सक्रिय हैं, लेकिन उनका शैक्षणिक स्तर क्या है, यह गंभीर प्रश्न है। यदि हर डिग्री की विश्वसनीयता परखने के लिए एक और परीक्षा लेनी पड़ी, तो यह परीक्षा-दर-परीक्षा की प्रणाली भी एक अव्यवस्थित मूल्यांकन पद्धति बनकर रह जाएगी।

हर वर्ष परीक्षाओं के नियमों में बदलाव किए जाते हैं, फिर भी छात्रों की शिकायतें बनी रहती हैं। शिक्षा क्रांति का अर्थ केवल तकनीकी बदलाव नहीं, बल्कि ऐसा आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए जो व्यक्ति के भीतर ज्ञान और मूल्यों की ज्योति प्रज्वलित करे—न कि भौतिकवाद की ऐसी आंधी, जो सही और गलत की पहचान तक मिटा दे।

दुर्भाग्यवश, आज शिक्षा प्रणाली में बाजारीकरण इतना हावी हो गया है कि डिग्री को ज्ञान और अभ्यास से ऊपर रखा जा रहा है। इसमें शिक्षकों, नीति-निर्माताओं और पुस्तक संस्कृति के क्षरण की भी भूमिका है। यदि भारत को 2047 तक वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ना है तो शिक्षा की गिरावट पर गंभीर आत्ममंथन करना होगा।

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