राजेश रामचंद्रन
सत्ता और धर्मनिष्ठा उतने ही बेमेल हैं जितना भक्ति और अमर्यादित व्यवहार; फिर भी सत्ता की राजनीति धर्मनिष्ठा का इस्तेमाल अपनी वैधता बनाने के लिए करती है, जबकि धर्मनिष्ठा सत्ता का मुकाबला या उसे सहज कर सकने लायक नहीं होती।
एक धर्मनिष्ठ हिंदू के लिए कृष्ण एक अद्वितीय भगवान हैं : वह भावविभोर होकर शिशु रूप में भी कान्हा की उपासना करता है वह उनसे प्रीति रखता है और ठीक वैसी प्रेम-भावना जैसी कि राधा की अपने प्रिय कुंवर कृष्ण के लिए थी या जो ‘राधा के कृष्ण’में है; कृष्ण की छवि विस्मयकारी सुदर्शन चक्र धारी सारथी की भी है और वह भी जिन्होंने गीता रूपी महाज्ञान दिया, वे एक दार्शनिक भी हैं, जो हमें निष्काम कर्म करना सिखाते हैं। इसलिए एक हिंदू के लिए उनकी मिथकीय जन्मभूमि का बहुत महत्व रहा है, मुझे अपनी मां को कृष्ण भक्तों के लिए पवित्रतम तीर्थस्थल पर ले जाने का मौका मिला। लेकिन मथुरा और वृंदावन की यात्रा के बाद उन्हें मायूसी हुई, शाही ईदगाह की वजह से नहीं। वास्तव में, उन्होंने तो यह तक गौर नहीं किया कि वहां मस्जिद है भी या नहीं– उनकी असहजता तो वहां घूम रहे आवारा जानवर, धूल-मिट्टी और गंदगी को लेकर थी। वे अपनी कल्पना वाले, मनोरम वातावरण के बीच कृष्ण की छवि को हकीकत के वृंदावन और यमुना के घाटों तक जाते कचरे भरे रास्तों में रख नहीं पा रही थीं। उन्हें अफसोस हुआ कि काश इस यात्रा के बारे न सोचतीं, क्योंकि मन-मंदिर में बना ‘वृंदावन के कृष्ण’ का पवित्र अक्स जो लोप हो गया था।
उम्मीद है, यमुना किनारे इस तीर्थ स्थल की जो हालत दो दशक पहले थी, उसमें सुधार हुआ होगा। तथापि एक आस्थावान हिंदू के लिए मथुरा में शाही ईदगाह की मौजूदगी उतनी ही गौण है जैसे कि वाराणसी में शिव के दर्शन करते वक्त ज्ञानवापी मस्जिद प्रत्यक्ष नहीं रहती है। अपने आराध्य से मिलाप के आनन्द में उन्हें तो केवल कृष्ण और शिव ही दिखाई देते हैं। लेकिन मौकापरस्त राजनेता या प्रतिकारी व्यक्ति को सिर्फ अपने पवित्रतम पूजा स्थलों में सिर उठाए विधर्मी ढांचा ही नज़र आता है, इसलिए जमींदोज़ करना चाहता है। यह नजरिए का सवाल है, कोई वही देखता है जो देखना चाहता या कोई वह जो देखने को मजबूर किया गया जाए : सत्ता या धर्मनिष्ठा। उन्हें दिखाई देता है तो केवल वह मंजर जिसमें बाहरी आक्रांताओं की हमलावर लुटेरी फौज उनके पूर्वजों को बेइज्जत कर रही है और उनकी भूमि पर हजार साल राज किया : क्रूर विदेशी शासक जिन्होंने स्थानीय लोगों पर दमन किया, शक्तिहीन बनाया और तमाम अभिव्यक्तियों से महरूम रखा।
राष्ट्र की कल्पनाशीलता और स्मृति का सांप्रदायीकरण उस वक्त मुकम्मल तौर पर हो जाता है जब वर्चस्व रखने वाला राजनीतिक प्रचार तंत्र इस स्वयंसिद्ध सूत्र को मानने से इंकार दे कि आक्रांता शासक- चाहे मुगल हो या ब्रिटिश- उसने भारत पर स्थानीय क्षत्रपों की मदद के बिना राज नहीं किया। जहां एक मजहब के प्रतिगामी सोच वाले औरंगजेब की तारीफ करते हैं वहीं बहुसंख्यक समुदाय के कट्टरवादी उतनी शिद्दत से भर्त्सना, लेकिन मजेदार यह कि दोनों ही राजपूताना के उन राजाओं पर चुप्पी साध लेते हैं जिन्होंने मुगल साम्राज्य के लिए लड़ाइयां लड़ीं और इलाके जीत कर दिए। विध्वंस और लूटमार प्रत्येक युद्ध का अंग है और जाहिर है पूजा स्थल निशाने पर हुआ करते थे। लेकिन फिर राजपूताना के राजा मथुरा में विध्वंस क्यों नहीं रोक पाए? आखिरकार पैदल भी चलकर आते तो मथुरा तक पहुंचने में दस दिन से भी कम लगते। मुगल सेना की साम्राज्यवादी मुहिमों में स्थानीय राजाओं की भागीदारी के इतिहास को मिटाने वाली योजना का उद्देश्य न केवल मध्यकालीन भारत की स्मृति का सांप्रदायीकरण करना है बल्कि ‘कल्पनीय चोट’ को हथियार भी बनाना है।
बतौर एक राजनीतिक हथियार स्मृति का सांप्रदायीकरण कानून के जरिए नहीं रोका जा सकता; बल्कि प्रतिकारी तत्वों की कार्य-सूची सिरे चढ़ाने की खातिर कानून को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। यह स्पष्ट नहीं है कि इन दिनों व्हाट्सएप ग्रुपों में काशी-मथुरा को लेकर जो वीडियो प्रसारित हो रहे हैं, उनमें एक संप्रदाय के पूजास्थल तोड़ने वाली कहानी बारम्बार दोहराना क्या राजनीतिक माहौल बनाने की गर्ज से है या फिर यह आने वाले पूरे समय में उस संप्रदाय का चरित्र बदलने के लिए है।
वह हिंदू धर्म जो विदेशी आक्रमणों और धर्म-परिवर्तन के वक्त भी कायम रहा, एक ऐसा लचीला धर्म था जिसमें अंदरूनी सुधार निरंतर चलते रहते थे, जिसकी वहज से असहमति, स्व-संदेह, सुधार और अभिव्यक्ति के लिए जगह थी। इसी का इस्तेमाल गांधीजी ने हिंदू धर्म के अंदर प्रचलित छुआ-छूत प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाने के लिए किया। और यही ‘जगह’ हरेक को बहुसंख्यक वर्ग की कुप्रथाओं पर सवाल उठाने की छूट भी देती है, इसमें अन्य संप्रदायों के कट्टर धर्मावलंबी और धर्म परिवर्तन करवाने वाले प्रचारक भी शामिल हैं। मध्य-कालीन सह-अस्तित्व के इन तमाम चिन्हों को, दासता का चिन्ह बताकर, मिटाने की नई कार्ययोजना से केवल असहिष्णुता ही बढ़ेगी।
सामाजिक तौर पर यह काम सिर्फ कटुता बढ़ाएगा जबकि राजनीतिक रूप में इससे सत्तारूढ़ दल के पास जो ताकत पहले से है उसमें बढ़ोतरी नहीं होगी। इसलिए हमारी मिली-जुली संस्कृति का स्वरूप बिगाड़ने वाले यह प्रयास क्यों? क्या यह यत्न बहुसंख्यकों में प्रतिकारी वर्ग की राजनीतिक जीत की घोषणा है? यदि ऐसा ही है तो हिंदू अपनी सहिष्णुता, समावेशी और सबको अंगीकार करने वाली विशेषताओं पर गर्व करना छोड़ दें। अब वसुधैव कुटुम्बकम सिद्धांत की बात खोखली लगने लगी है। बारास्ता अदालत इतिहास का अपराधीकरण करने के यह प्रयास कानून के राज का मखौल बना रहे हैं। एक प्रतिकारी से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह ‘पूजास्थल कानून-1991’ या अयोध्या पर सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का सम्मान करेगा, जिसमें कहा गया है ‘सार्वजनिक पूजास्थलों का चरित्र बचाए रखने को संसद ने साफ शब्दों में अधिदेश दिया है कि इतिहास और इसकी गलतियों का इस्तेमाल वर्तमान और भविष्य बिगाड़ने के औजार के रूप में नहीं हो सकता’।
जहां एक संगठन विशेष मध्यकालीन युद्धों की स्मृतियों का सांप्रदायिक करण कर रहा है वहीं विपक्ष लोगों से अपना संपर्क गंवा बैठा है, यहां तक कि वह अर्थपूर्ण तरीके से उन्हें यह तक नहीं बता पा रहा है कि अपने इतिहास से जुड़े रहकर पड़ोसियों से यथोचित संबंध बनाकर रखें। वजू-कुंड प्रकरण में नजरिया देशभर के शानदार मंदिरों की कलात्मकता को कमतर करने जैसा है। जिन्होंने ज्ञानवापी वज़ू कुण्ड का सर्वेक्षण किया है यदि वे तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में गए होते तो पता रहता कि शिवलिंग किसे कहते हैं, तब शिवलिंग विचार का इस कदर अनादर न करते।
विवादित स्थलों को लेने की आकांक्षा रखने वाला एक प्रतिकारी अपनी स्मृतियों के लुटेरे आक्रांता से अलग कैसे हुआ! या फिर वह अपने संप्रदाय के स्वरूप को नया आकार देना चाहता है और इसको अपने काल्पनिक दुश्मनों के उसी सांचे में ढालना चाहता है जिसमें वे आदिम प्रथा के हिस्सेदार बनकर विधर्मियों के पूजास्थल और मूर्तियां तोड़ते हैं? नि:संदेह, यह बात बतौर एक राष्ट्र भारत की छवि के अनुकूल नहीं कि मध्यकालीन पूजास्थलों का सर्वेक्षण करके कहीं शिवलिंग रूपी प्रतीक तो कहीं कृष्ण की भूमि का टुकड़ा ढूंढ़ने के लिए आदेश पाने को अदालत का रुख करता फिरे। आज हमारे समक्ष ध्यान देने को बहुत से अन्य मुद्दे हैं, मसलन, मुद्रा स्फीति पर लगाम, रोजगार सृजन और हमारी सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना। द इकोनॉमिस्ट पत्रिका का पिछले हफ्ते का मुखपृष्ठ सारी कहानी बयां करता है : ‘वक्त भारत का- क्या मोदी मौका गंवा देंगे’?
लेखक प्रधान संपादक हैं।