समूचे यूक्रेन में खूनी जंग जारी है, जिसके चलते तीस लाख से अधिक नागरिकों को पड़ोसी मुल्कों में शरण लेनी पड़ी है। शुक्र है, विगत में रूस और पड़ोसी मुस्लिम बहुल एशियन गणराज्यों द्वारा अलग रास्ता अख्तियार करते वक्त प्रक्रिया सौहार्द्रपूर्ण रही थी, जिसकी निशानी स्वरूप आज भी इनके बीच गहरी दोस्ती और सहयोगात्मक रिश्ता कायम है। हालांकि यह बात रूस और यूरोपियन-यूरेशियन पड़ोसियों के बीच लागू नहीं होती। कभी सोवियत संघ के घटक रहे गणराज्य, मसलन एस्टोनिया, लात्विया और लिथुएनिया आज नाटो के पाले में हैं। रूस इस कृत्य को अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों द्वारा अपनी नाकेबंदी के तौर पर लेता है।
रूसी सीमाओं पर व्याप्त मौजूदा संघर्ष के पीछे मुख्य वजह यूक्रेन की रूस से दूरी बनाना और अमेरिका एवं इसके नाटो साझेदारों के साथ रक्षा संबंध बनाना है। पूर्व अभिनेता और हास्य कलाकार रहे किंतु करिश्माई नेता वोलोदीमीर जेलेंस्की के राष्ट्रपति चुने जाने बाद तनाव में और इजाफा होता चला गया। ओहदा संभालने के तुरंत बाद जेलेंस्की अमेरिका के साथ बृहद सुरक्षा समझौता बनाने में जुट गए। आखिरकार इस प्रक्रिया का अंजाम रूस द्वारा यूक्रेन के दोनेस्तक और लुहांस्क क्षेत्र पर नियंत्रण बनाने में हुआ। गत 10 नवंबर 2021 को अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिन्केन और यूक्रेनियन समकक्ष दिमित्रो कुलेबा के बीच ‘यूक्रेन-अमेरिका सामरिक घोषणापत्र’ पर दस्तखत करने के साथ हालात बेतरह संगीन और तनावपूर्ण बन गए।
यह समझौता होते ही अमेरिकी मीडिया में खबरें आने लगीं कि यूक्रेनी सीमाओं के नज़दीक रूसी फौज का असामान्य जमावड़ा बनने लगा है। यूक्रेन-अमेरिका ‘घोषणापत्र’ में विशेष रूप से यूक्रेन की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं की मान्यता और संप्रभुता अक्षुण्ण बनाए रखने का जिक्र किया गया, इसको विस्तारित करते हुए क्रीमिया में जारी रूसी अतिक्रमण और यूक्रेनी जल सीमा को भी शामिल किया गया। इस तरह ‘घोषणापत्र’ से यूक्रेन-रूस तनाव में वृद्धि होना अवश्यंभावी बन गया और परिणाम वही हुआ, जब समूचा यूक्रेन संघर्षग्रस्त हो गया। रूसी हवाई हमले शुरू होने से स्थिति का पूर्ण-रूपेण युद्ध में तब्दील होना लाजिमी था और लाखों यूक्रेनियों को पड़ोसी देशों में शरण लेनी पड़ी। सब नहीं तो अधिकांश शरणार्थियों को आभास है कि शीघ्र वतन वापसी का मौका शायद ही बने।
पुतिन द्वारा टैंक, तोपें और घातक हवाई शक्ति प्रयोग करने से विश्व का नजरिया रूस के खिलाफ हो गया। निःसंदेह इस कृत्य ने न सिर्फ अमेरिका बल्कि यूरोप भर के अधिकांश मुल्कों को रूस के विरुद्ध होने को उकसाया है। बदले में, पहले से काफी दृढ़-निश्चयी हुए बैठे पुतिन को भी अपना रुख और कड़ा करने को मजबूर होना पड़ा। रूस अब यूक्रेन में पूर्ण युद्ध में लिप्त है जबकि अंतर्राष्ट्रीय नजरिए की लहर रूस के खिलाफ है। संयुक्त राष्ट्र आम सभा में चली लंबी और गर्मागर्म बहस के बाद, यूक्रेन में रूसी कृत्यों की कड़ी भर्त्सना का प्रस्ताव पारित हुआ है। मतदान में 141 देशों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में तो भारत सहित 35 देशों ने अनुपस्थिति दर्ज करवाई है। रूस के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव से अनुपस्थित रहने के पीछे भारत के कारण हैं और अमेरिकी अधिकारियों को अवगत करा दिया गया है कि रूस से हथियार खरीदने की भारत की पुरानी नीति की वजह से उससे संबंध निभाना अपरिहार्य है।
यूक्रेन में रूसी दखल के आलोक में, अन्यथा काफी सावधानी बरतने वाली यूरोपियन शक्तियां, जैसे कि जर्मनी और फ्रांस भी इस मुद्दे पर अमेरिका का समर्थन कर रही हैं। लेकिन कोई शक नहीं कि पूर्व सोवियत संघ के घटक रहे अन्य मुल्कों को नाटो संगठन में शामिल होने से हतोत्साहित करने को जो कुछ बन पड़े, पुतिन वह करेंगे। रूस जानता है कि नाटो सदस्य उससे सीधे टकराव की संभावना बनाकर खुश नहीं होंगे। इसके अलावा, यह बात चली हुई है कि यूक्रेन संकट राष्ट्रपति बाइडेन के लिए ऐसे वक्त पर मौका बनकर आया है, जब उन्हें अफगानिस्तान से जल्दबाजी में अमेरिकी फौज की बेइज्जती भरी वापसी करवाकर फजीहत झेलनी पड़ रही है।
यूक्रेन मुद्दे पर रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव में अमेरिकी गुट का साथ देने के लिए भारत पर काफी दबाव रहा, जिसे खारिज करके भारत ने सही किया है। आलोचना प्रस्ताव पारित करने के साथ पश्चिमी जगत ने रूस पर नाना प्रकार के प्रतिबंध जड़ दिए हैं और रूसी सेना का सामना करने में जुटी यूक्रेनी प्रतिरोधक शक्तियों को हथियार मुहैया करवाने में तेजी ला दी है। 10 नवंबर, 2021 को यूक्रेन और अमेरिका के बीच हुए समझौते में भी काफी ध्यान ‘यूक्रेन की रक्षा और रूसी आक्रामकता का प्रत्युत्तर’ देने पर केंद्रित था। अमेरिका का साथ देने को भारत पर काफी दबाव है, जो वह नहीं करेगा। हालांकि भारत चीन से दरपेश रक्षा एवं अन्य चुनौतियों को लेकर बने क्वाड संगठन पर अमेरिका का सहयोग जारी रखेगा। क्वाड की आखिरी बैठक उन विषय-वस्तुओं का चुनाव करने के लिए हुई थी, जिन पर भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया सहयोग कर सकते हैं। सूची में भारत निर्मित वैक्सीन से लेकर हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में नौवहनीय और सैन्य सहयोग करने तक के पहलू शामिल रहे।
साफ है, लगातार बिगड़ते रूस-अमेरिका संबंधों से पैदा हुए मौजूदा तनावों से बरतते वक्त भारत को अपनी बाहरी आर्थिकी के पहिए सुचारू रखने पर ध्यान केंद्रित रखना होगा। अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूस पर जो हालिया प्रतिबंध लगाए गए हैं, उसका असर क्या हो सकता है, इस पर भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। भारत को रूस से आयातित होने वाले महत्वपूर्ण हथियार, रक्षा उपकरण और गोला-बारूद की आमद पर समस्या का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि भारत द्वारा आर्थिक उदारीकरण अपनाने से पूर्व, सोवियत संघ काल में, लेन-देन भारतीय मुद्रा में करने का लंबा अनुभव है। रूस के पास प्रचुर मात्रा में तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार होने की वजह से उसे अनिश्चितकाल तक वैश्विक ऊर्जा बाजार से बाहर नहीं रखा जा सकता। वास्तव में, कहा यह जा रहा है कि इन प्रतिबंधों का सबसे बड़ा फायदा अमेरिका और चीन को मिलेगा। चीन का लाभ यह है कि रूस से खरीदी प्राकृतिक गैस का भुगतान किसी न किसी रूप में कर देगा वहीं अमेरिका को फायदा प्राकृतिक गैस के बढ़े दामों से होगा। अमेरिकी तटीय गैस भंडारों से उत्पादन बढ़ाने को वित्तीय प्रोत्साहन देने की बात पहले ही चल निकली है।
चीन के सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाईम्स ने हाल ही में ऑस्ट्रेलिया द्वारा रूस पर और प्रतिबंध लगाने के आह्वान पर तंज कसा है। बड़ी सुर्खियों में लिखा : ‘दब्बू ऑस्ट्रेलिया इस स्थिति में नहीं है कि यूक्रेन मुद्दे पर भारत की स्वतंत्र नीति की आलोचना कर सके’। आगे कहा : ‘मोदी सरकार ऑस्ट्रेलिया की तरह अमेरिका की आज्ञाकारी नहीं है। भारत अपने राष्ट्रीय हितों और दीर्घकालीन सामरिक ध्येय ध्यान में रखते हुए ठंडे दिमाग से सोच-विचार कर अपना रुख अपनाए हुए है। रूस के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने के लिए पश्चिम के नेतृत्व में जो राग अलापा जा रहा है, उसमें अंधे होकर शामिल होने से भारत ने खुद को बचाए रखा है और इसकी बजाय स्वतंत्र कूटनीतिक राह अपनाई है, जो ऑस्ट्रेलिया के बस से बाहर है। यह वह महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जिस पर ऑस्ट्रेलिया को विचार करना चाहिए’। यूक्रेन के घटनाक्रम से व्याप्त वैश्विक तनाव के बीच चीन की ओर से ऐसी टिप्पणी आना असामान्य है।
लेखक वरिष्ठ पूर्व राजनयिक हैं।