मारूफ रज़ा
अधिकांश भारतीय-खासकर हमारे राजनीतिक वर्ग को खासी हैरानी हुई होगी जब चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत और वायु सेनाध्यक्ष आरकेएस भदौरिया के बीच भारतीय वायुसेना की भूमिका को लेकर सार्वजनिक तौर पर भिन्न मत व्यक्त किए गये। भविष्य में किसी युद्ध मोर्चे पर भारतीय वायुसेना की भूमिका क्या होगी और पूरे अभियान का नेतृत्व किसके हाथ में होगा, इसको लेकर इन दो वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने भावी युद्धों में वायुसेना की भूमिका पर जो विचार दिया है, वह विगत की परिपाटी से हटकर है। जो भविष्य में किसी मोर्चे के मुताबिक सम्मिलित कमान संरचना बनने वाले सिद्धांत का संकेत देते हैं।
असहमति का एक कारण ऐतिहासिक है। चूंकि भारत को दरपेश बाहरी खतरे की संभावना अधिकांशतः थलीय सीमा पर केंद्रित रही है, इसलिए बात अगर भारत की सीमाओं की रक्षा की हो या सीमा पार जाकर दुश्मन का इलाका फतह करने की हो, थलसेना खुद को इस भूमिका में पाती है। और इस सब में, प्राप्ति हेतु थलीय अभियानों में वायुसेना की मदद का क्या महत्व है, यह ऐतिहासिक तथ्य न सिर्फ 1965 और 1971 की लड़ाई में सिद्ध हो चुका है बल्कि 1987 में सियाचिन और 1999 में कारगिल की झड़प में भी मकबूल हो चुका है। वायुसेना को यह शिकायत है कि जब वर्ष 1962 में चीनी घुसपैठ पूरे उरोज़ पर थी, तब उस पर लड़ाई में अकर्मण्य होने का इल्जाम लगाया जाता है। हालांकि इतिहासकारों का मत है कि तत्कालीन वायुसेना अध्यक्ष अस्पी इंजीनियर ने तिब्बत में बने चीनी ठिकानों के अलावा छावनियों को भी निशाना बनाने की पूरी योजना तैयार कर रखी थी, ताकि चीन के हमले को रोका जा सके। लेकिन वायुसेना की योजना को थलसेना की अगुवाई कर रहे जनरल थापर ने खारिज कर दिया था, वह वायुसेना अध्यक्ष को इसलिए दबा पाए क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व का मानना था कि वायुसेना को शामिल करने से युद्ध और भड़क सकता है। लेकिन फिलहाल, किसी भावी युद्ध में भारतीय वायुसेना अपनी भूमिका के महत्व को ‘खेल बदलकर रख देने वाला’ के तौर पर देखती है। इसका एक उदाहरण हालिया बालाकोट अभियान है। वायुसेना खुद को केवल एक सहायक अंग की तरह लिए जाने के खिलाफ है।
आजादी उपरांत थलसेना के ‘अधिमान प्रभाव’ को सीमित करने हेतु अनेकानेक ढांचागत बदलाव अपनाए गए थे और आरंभिक कदम के तौर पर ब्रिटिश काल वाले कमांडर-इन-चीफ की जगह सेनाध्यक्ष के पद को ‘चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ’ में तबदील कर दिया गया। ऐसा होने पर इस पद का अधिमान बाकी दो अंगों के सेना अध्यक्षों के समकक्ष बन गया था। इस तरह तीनों सेनाओं के उच्चतम पद का रुतबा एक समान हो गया। तीनों अपने-अपने विभाग के सर्वोच्च अधिकारी के तौर पर रक्षा मंत्री के सलाहकार हैं। 1971 के युद्ध के बाद चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की पद की सृजना का विचार पहली बार उपजा था। सलाह दी गई थी कि फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को देश का पहला सीडीएस बनाया जाए, लेकिन तत्कालीन एयर चीफ मार्शल पीसी लाल और तत्कालीन रक्षा सचिव केबी लाल ने मानेकशॉ की उम्मीदवारी को वीटो कर दिया था, क्योंकि वे नौकरशाहों को दरकिनार कर अपनी बात मनवाने के लिए मशहूर थे। इसके बाद यह विचार अगले चार दशकों तक लंबित रहा क्योंकि नौकरशाह यह पाकर खुश थे कि स्वयं तीनों अंगों के सेनाध्यक्ष इस विषय पर एकमत नहीं रहे। यहां तक कि कारगिल युद्ध के दौरान भी यह बात निकली थी कि थलसेना अध्यक्ष जनरल वीपी मलिक और तत्कालीन वायुसेना अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल अनिल टिपनिस के बीच पाकिस्तानों बंकरों पर हमले के लिए लड़ाकू विमानों और हेलीकॉप्टरों के इस्तेमाल करने के तौर-तरीकों को लेकर काफी मतभेद थे। किंतु इस किस्म के विवाद जमीनी फौजी की जान को महंगे पड़ते हैं। फिर भी, अंत में सब कुछ सुलझ गया था। भारतीय वायुसेना ने युद्ध की स्थिति में ‘गुणात्मक अंतर’ ला दिया था।
कारगिल युद्ध के बाद बनी कारगिल रिव्यू कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सीडीएस की पद सृजना आधुनिक युद्धक अभियानों की जरूरत के लिए एक अवश्यंभावी जरूरत है –इस हेतु तीनों अंगों के बीच सहयोग की दरकार है ताकि सैन्य ध्येय की प्राप्ति हो पाए। इस विचार की ताईद मंत्री समूह के अलावा रक्षा मामलों पर बनी नरेश चंद्रा कमेटी और वर्ष 2016 में ले. जनरल शेखतकर वाली कमेटी ने भी की थी। परंतु सीडीएस बनाने के विचार का विरोध खुद तीनों सेना प्रमुखों और उनके मुख्यालयों द्वारा यह सोचकर होता रहा कि इसके रूप में एक सर्वोच्च सैन्य कमांडर उभरने से अपने-अपने मातहतों में उनका प्रभाव कम हो जाएगा। हालांकि सेना के प्रत्येक अंग की अपनी अलग रणनीति, उपकरण, क्रय जरूरतें और खुद की व्यावसायिक रिवायतें एवं संस्कृति है, तथापि सीडीएस के रूप में जो भूमिका उलीकी गई है, उससे सेनाध्यक्षों के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल, भंडारण जैसे आम विषयों से परे जाकर काम करने को मिलेगा। इसलिए युद्ध में मोर्चे के हिसाब से एक सर्वोच्च निर्णायक कमान बनाने के अलावा विकल्प फिलहाल बहुत सीमित हैं, भले ही इसका विरोध हो रहा है, खासकर भारतीय वायुसेना द्वारा, परंतु इस मतांतर को भावी विशिष्ट कमान संरचना की स्थापना में रुकावट बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती। हमारे सामने अनेकानेक मोर्चों पर विशेष कमान व्यवस्था बनाने की चुनौतियां दरपेश हैं, दो थलीय हैं –एक है पाकिस्तानी सीमा तो दूसरी चीनी। इनके अलावा एक वायु और एक नौसैन्य संयुक्त कमान बनानी पड़ेगी, जिसमें हरेक में तीनों अंगों का सम्मिलित सहयोग हो।
मौजूदा समय में, भारत में कुल 17 कमान केंद्र हैं, प्रत्येक की अपनी कार्यकारी भूमिका है, तथापि इनके कार्य क्षेत्र में कुछ उभयनिष्ठ काम ऐसे होते हैं जो अन्य कमान भी कर रही होती हैं, लिहाजा इससे निरर्थक दोहराव पैदा हो जाता है। युद्ध होने की स्थिति में चीनी चुनौती से निपटने के लिए हिमालयी मोर्चे पर भारत की कम से कम 7 कमानें लगी हैं जबकि चीन की ओर से हिमालयी क्षेत्र के लिए केवल एक ही कमान केंद्र है। अगर वायुसेना द्वारा पेश एतराजों की एवज में देश के तमाम युद्धक वायुशक्ति का नियंत्रण दिल्ली स्थित मुख्यालय के तहत कर देने की इजाजत मिल जाए, तब ऐसे हालात में, हिंद महासागर में कि चीनी चुनौती से निपटने को कोई नौसैन्य कमान बिना यह जाने कि किस किस्म की वायु शक्ति उसे उपलब्ध हो पाएगी, अपनी योजना को कैसे अंजाम दे पाएगा? मौका बनने पर, यदि उक्त नौसैन्य कमान का मुखिया पहले दिल्ली स्थित वायु सेनाध्यक्ष से स्रोतों पर विस्तृत वार्ताएं कर अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने लगे तो क्या अकारण समय व्यर्थ नहीं होगा? इतना सब होने के बाद, यदि वायुसेना को लगे कि अपने सीमित संसाधनों का प्रयोग हिमालयी क्षेत्र में करना ज्यादा मुफीद होगा, तब? सीडीएस पद का सृजन, और इसके बाद, मोर्चे के हिसाब से बनने वाली सम्मिलित कमान स्थापना का निर्णय चूंकि राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिया गया है, अतएव इस मुद्दे पर होने वाली बहस अब खत्म हो और यह मामला बंद हो जाना चाहिए। अमेरिका में, गोल्डवॉटर-निकोल्स कानून-1986 के जरिए सेना के तीनों अंगों के बीच की प्रतिद्वंद्विता और सहमति का अंत किया गया था। समय आ गया है कि भारत में कुछ ऐसा हो।
लेखक सामरिक रणनीति विषयों के माहिर हैं।